ऐसे में उनकी अभी तक की यात्रा और भावी दशा-दिशा के प्रति उत्सुकता बहुत स्वाभाविक है। वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य की चर्चा करें तो संघ से संबद्ध मानी जाने वाली भारतीय जनता पार्टी यानी भाजपा इस समय शीर्ष पर है तो कम्युनिस्ट आंदोलन निरंतर विखंडन के बाद पूरी तरह हाशिए पर पहुंच चुका है। भारतीय राजनीतिक विमर्श में भाजपा दक्षिणपंथ, कम्युनिस्ट वामपंथ तो कांग्रेस मोटे तौर पर वामपंथी झुकाव के बावजूद मध्यमार्गी पार्टी ही मानी गई है।

भाजपा के मौजूदा वर्चस्व को देखते हुए यही प्रतीत होता है कि उसकी वैचारिक धारा समय के साथ भारतीय राजनीति पर अपनी पैठ मजबूत करती गई, जबकि खांटी वामपंथी कम्युनिस्ट और वाम झुकाव वाली कांग्रेस अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते दिख रहे हैं। विचारधाराओं के संघर्ष की पृष्ठभूमि के एक पड़ाव की जड़ें स्वतंत्रता पूर्व के दौर से जुड़ी हैं तो उसका अगला विस्तार आजादी के बाद होता है।

भाकपा दिसंबर 1925 के दौरान अस्तित्व में आई। वामपंथी खेमे में आरंभ से ही टकराव के कई मोर्चे खुले दिखे। इसमें सत्ता प्राप्ति के लिए राह चुनने से लेकर संविधान सभा में सहभागिता के मुद्दे पर कायम मतभेद प्रमुख बिंदु रहे। चीन और रूस के समर्थन के मुद्दे ने भी आंतरिक धड़ों के बीच ऐसा पेच फसाया जो अंदरूनी विभाजन का आधार बना। परिणामस्वरूप, भाकपा से ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी यानी माकपा निकली।

अलग-अलग राह चुनने के बावजूद वैचारिक गोंद ने दोनों धड़ों को जोड़े रखा और उनके गठजोड़ ने केरल, बंगाल और त्रिपुरा में अपना राजनीतिक वर्चस्व बनाए रखा। माओवादी हिंसक धारा भी कुछ हिस्सों में अपनी जड़ें जमाने में सफल रही। हालांकि अब स्थिति यह है कि बंगाल और त्रिपुरा से इन दलों का लगभग सफाया हो चुका है। केवल केरल में ही उनकी राजनीतिक जमीन बची है।

वहीं, हिंसक माओवादियों की स्थानीय जनता पर पकड़ कमजोर हुई है तो सुरक्षा एजेंसियों के अभियानों ने भी उन्हें खासा नुकसान पहुंचाया है। समय के साथ खुद को बदल पाने में नाकाम रहना भारत में वामपंथ का दायरा सिकुड़ने की बड़ी वजह रही। यहां तक कि अकादमिक और साहित्य से लेकर पत्रकारिता जैसे क्षेत्रों में कभी वर्चस्व रखने वाली यह विचारधारा वहां भी आभा खो रही है।

आजादी से पहले के दौर की बात करें तो उसी दौरान मुस्लिमों को लामबंद करने के लिए बनी मुस्लिम लीग का लक्ष्य तो भारत विभाजन के साथ ही पूरा हो गया था। लीग के इक्का-दुक्का अवशेष जरूर कुछ इलाकों तक सक्रिय रह गए हैं। पंजाब में पंथिक राजनीति के रूप में शुरू हुए अकाली दल में विभाजन होते गए और प्रमुख अकाली पार्टी-शिरोमणि अकाली दल अपने पुरोधा प्रकाश सिंह बादल के निधन के बाद पंजाब में खुद को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रही है।

अकाली दल के अन्य धड़ों की स्थिति भी कोई बहुत अच्छी नहीं। दलितों की गोलबंदी के लिए डा. भीमराव आंबेडकर का रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया यानी आरपीआइ के रूप में किया गया राजनीतिक प्रयोग भी सफल नहीं रहा। वहीं, तमिलनाडु में 1920 के दौरान पेरियार के नेतृत्व में गति पकड़ने वाले आंदोलन ने द्रविड़ कषगम यानी डीके के रूप में राजनीतिक चोला पहना। डीके से ही डीएमके, एआइएडीएमके और एमडीएमके जैसी अन्य द्रविड़ राजनीतिक धाराएं निकलीं जो आज भी परस्पर संघर्षरत हैं। तमिलनाडु में द्रविड़ राजनीति का वर्चस्व होने के बावजूद इन धड़ों में वैचारिक टकराव जारी है।

जहां ये विचारधाराएं समय के साथ संकुचित और विखंडित होती गईं तो दूसरी ओर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के छत्र तले दक्षिणपंथी विचारधारा निरंतर फलती-फूलती गई। स्वतंत्रता से पहले जहां हिंदू महासभा और अभिनव भारत जैसे हिंदुत्व के लिए समर्पित संगठन भी सक्रिय थे तो कालांतर में इस प्रकार के संगठन भी संघ की वैचारिकी में समाहित होते गए।

इतना ही नहीं, आरंभ में कांग्रेस के भीतर असंतुष्ट दक्षिणपंथी नेता भले ही संघ से जुड़े संगठनों का सीधा हिस्सा न बने हों, लेकिन उन्होंने संघ परिवार से गलबहियां करने में कोई संकोच नहीं किया। जनसंघ के रूप में संघ का राजनीतिक प्रयोग अपेक्षित रूप से सफल नहीं रहा, लेकिन देश में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार के गठन में जरूर उसकी अहम भूमिका रही। यहां तक कि जयप्रकाश नारायण जैसे गांधीवादी नेता को भी संघ से कोई परहेज नहीं रहा।

मोरारजी देसाई और जगजीवन राम जैसे दिग्गज कांग्रेसी भी संघ के समर्थन से बनी सरकार का हिस्सा बने। जनता पार्टी के असफल प्रयोग के बाद संघ ने भाजपा के रूप में एक नई शुरुआत को समर्थन दिया और दो लोकसभा सीटों से एक समय 303 लोकसभा सीटों तक पहुंची भाजपा ने अपनी सफलता से चमत्कृत किया है। संघ के अन्य संगठन भी अपने विस्तार में सफल रहे हैं।

संकुचन और विस्तार के विरोधाभास से विपरीत विचारधाराओं की गुणवत्ता को तो स्पष्ट रूप से स्थापित नहीं किया जा सकता, मगर यह अवश्य समझा जा सकता है कि इनके विकास और पिछड़ने के क्या कारण हो सकते हैं। इसमें सबसे प्रमुख कारण तो यही दिखता है कि वामपंथी विचारधारा जहां अंतरराष्ट्रीयवाद से अति प्रभावित होकर उसके सही भारतीय स्वरूप को सामने नहीं रख पाई तो संघ ने सामाजिक समावेश, हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के जरिये आगे बढ़ने में सफलता पाई। पिछली सदी के अंतिम दशक में मंडल, मंदिर और मार्केट के रूप में देश जिस बड़े बदलाव का साक्षी बना, उन परिस्थितियों को संघ ने दूसरों के मुकाबले शायद कहीं बेहतर तरीके से भुनाया।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फॉर पालिसी रिसर्च में फेलो हैं)