गरीब की बीमारी, जेब पर भारी ?

गरीब की बीमारी, जेब पर भारी: क्या है ‘आउट ऑफ पॉकेट एक्सपेंडिचर’?

‘आउट ऑफ पॉकेट एक्सपेंडिचर’ धीरे-धीरे कम हो रहा है. 2014-15 में ये कुल सेहत खर्च का 62.6% था, जो 2021-22 में घटकर 39.4% रह गया है.

‘आउट ऑफ पॉकेट एक्सपेंडिचर’ (OOPE) का मतलब है, जब कोई व्यक्ति अपनी बीमारी के इलाज के लिए अपनी जेब से सीधा पैसा खर्च करता है. ये खर्च दवाइयों, डॉक्टर की फीस, टेस्ट और अस्पताल में भर्ती होने जैसी चीजों पर हो सकता है.

गरीब लोगों के लिए ये खर्च बहुत भारी पड़ सकता है, क्योंकि उनके पास अक्सर बचत नहीं होती. कई बार उन्हें इलाज के लिए कर्ज लेना पड़ता है या इलाज करवाना ही छोड़ देना पड़ता है. इस खर्च के कारण वे और भी ज्यादा गरीब हो जाते हैं.

जब भारत सरकार अस्पतालों में मुफ्त इलाज और सस्ती दवाइयां उपलब्ध होने का दावा कर रही है, तो यह खर्च कम होना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सरकार की योजनाएं इस बोझ को कम कर पा रही हैं?

नेशनल हेल्थ अकाउंट क्या कहता है?
नेशनल हेल्थ अकाउंट (NHA) के अनुसार, आउट ऑफ पॉकेट एक्सपेंडिचर वो खर्चा है जब कोई भी व्यक्ति इलाज करवाते वक्त अपनी जेब से तुरंत देता है. इसमें अस्पताल में भर्ती होने का खर्च, बाहर डॉक्टर को दिखाने का खर्च, बच्चा पैदा होने का खर्चा, गर्भावस्था के दौरान और बाद में देखभाल का खर्चा, परिवार नियोजन के सामान का खर्चा, इलाज में इस्तेमाल होने वाले उपकरणों का खर्चा, मरीज के आने-जाने का खर्चा, टीका लगवाने का खर्चा, दुकान से सीधे खरीदी गई दवाइयों का खर्चा और दूसरे मेडिकल खर्चे जैसे खून, ऑक्सीजन वगैरह का खर्चा भी शामिल है. हालांकि नेशनल हेल्थ अकाउंट हर घर का अलग-अलग सेहत पर होने वाला खर्च नहीं रखता है.

‘आउट ऑफ पॉकेट एक्सपेंडिचर’ घर वालों पर कितना भारी?
जब किसी घर में कोई बीमार पड़ता है तो पहले से ही परेशानी होती है. ऐसे में अपनी जेब से इलाज का खर्चा देना और भी मुश्किल हो जाता है. ये खर्चा हर घर पर भारी पड़ता है, लेकिन गरीब घरों पर इसका असर बहुत ज्यादा होता है.

अगर घर की आमदनी कम है और इलाज का खर्चा ज्यादा है, खासकर जब अस्पताल में भर्ती होना पड़े या कोई बड़ी बीमारी हो जाए, तो ये खर्चा बहुत भारी पड़ता है. ऐसे में गरीब लोगों को खाना, घर, कपड़े, पढ़ाई जैसी जरूरी चीजों पर भी खर्च कम करना पड़ता है. कई बार उन्हें दोस्तों-रिश्तेदारों या सूदखोरों से कर्ज लेना पड़ता है, जिससे वो और भी ज्यादा कर्ज में डूब जाते हैं.

नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (NSSO) के 2011-12 के एक सर्वे के हिसाब से भारत में 18% घरों को इलाज के ऐसे खर्चे झेलने पड़े, जो उनकी बर्बादी का कारण बन सकते थे.

गरीब की बीमारी, जेब पर भारी: क्या है 'आउट ऑफ पॉकेट एक्सपेंडिचर'?

आउट ऑफ पॉकेट एक्सपेंडिचर कम हो रहा है या बढ़ रहा?
NHA के अनुसार, ‘आउट ऑफ पॉकेट एक्सपेंडिचर’ धीरे-धीरे कम हो रहा है. 2014-15 में ये कुल सेहत खर्च का 62.6% था, जो 2021-22 में घटकर 39.4% रह गया है. सरकार सेहत पर ज्यादा पैसा खर्च कर रही है. कुल सेहत खर्च में सरकारी खर्च का हिस्सा 2014-15 में 29.0% था, जो 2021-22 में बढ़कर 48.0% हो गया है. सरकार ने राज्यों से भी कहा है कि वो अपने बजट का कम से कम 8% सेहत पर खर्च करें. 

सरकार ने अपने सेहत विभाग (DoHFW) का बजट भी बढ़ाया है. 2017-18 में ये 47,353 करोड़ रुपये था, जो 2025-26 में बढ़कर 95,957.87 करोड़ रुपये हो जाएगा. 15वें वित्त आयोग ने 2020-21 से 2025-26 के बीच पंचायतों के जरिए सेहत के लिए 70,051 करोड़ रुपये दिए हैं.

राज्यों में ‘आउट ऑफ पॉकेट एक्सपेंडिचर’ कितना?
स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले ‘आउट ऑफ पॉकेट एक्सपेंडिचर’ का प्रतिशत यह बताता है कि किसी राज्य में लोग अपनी जेब से कितना खर्च कर रहे हैं. लगभग सभी राज्यों में 2019-20 से 2021-22 के बीच OOPE में कमी आई है. उत्तर प्रदेश में OOPE सबसे ज्यादा है, जबकि कर्नाटक में सबसे कम है. केरल, पश्चिम बंगाल, पंजाब और आंध्र प्रदेश में भी OOPE का प्रतिशत अपेक्षाकृत ज्यादा है. जबकि असम, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड में OOPE का प्रतिशत सबसे कम है.

उत्तर प्रदेश, केरल, पश्चिम बंगाल और पंजाब जैसे राज्यों में उच्च OOPE का मतलब है कि इन राज्यों में लोगों को इलाज के लिए अपनी जेब से अधिक खर्च करना पड़ता है. कर्नाटक, असम, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड जैसे राज्यों में कम OOPE का मतलब है कि इन राज्यों में लोगों को इलाज के लिए अपनी जेब से कम खर्च करना पड़ता है.

जम्मू और कश्मीर में 2019-20 से 2021-22 के बीच OOPE में सबसे बड़ी कमी देखी गई है. मध्य प्रदेश में 2019-20 से 2020-21 के बीच OOPE में कोई बदलाव नहीं हुआ. 

सरकार का खर्च कितना बढ़ा?
NHA के डेटा के अनुसार, 2014-15 से 2021-22 के बीच सरकार ने GDP के मुकाबले सेहत पर अपना खर्च 1.13% से बढ़ाकर 1.84% कर दिया है. कुल खर्च में भी सेहत पर खर्च का हिस्सा 3.94% से बढ़ाकर 6.12% कर दिया है. इसी दौरान हर व्यक्ति पर सेहत का खर्च 1108 रुपये से बढ़कर 3169 रुपये हो गया है, यानी तीन गुना बढ़ गया है.

रिपोर्ट में दावा किया गया है कि सरकारी अस्पतालों की हालत सुधर रही है और लोगों को आसानी से इलाज मिल रहा है. कोविड-19 महामारी ने भी सरकार को सेहत पर ज्यादा ध्यान देने के लिए मजबूर किया है.

गरीब की बीमारी, जेब पर भारी: क्या है 'आउट ऑफ पॉकेट एक्सपेंडिचर'?

आउट ऑफ पॉकेट एक्सपेंडिचर कैसे कम करें?
भारत की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 का लक्ष्य है कि 2025 तक इलाज के भारी खर्च से बर्बाद होने वाले घरों की संख्या को 25% तक कम किया जाए. इसके लिए सरकार को कुछ जरूरी कदम उठाने होंगे.

इलाज के भारी खर्च को कम करने के लिए सरकार को ये समझना जरूरी है कि लोगों को मुफ्त में अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं मिलें. इसके लिए सरकार को निजी अस्पतालों पर नियंत्रण रखना होगा और लोगों को सस्ती बीमा योजनाएं देनी होंगी. अगर सरकार ये कदम उठाती है तो इलाज का खर्च कम हो सकता है और गरीब लोग बर्बादी से बच सकते हैं.

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