मोदी सरकार ने आखिर क्यों कृषि कानूनों की वापसी का लिया फैसला, इन प्वाइंट्स में समझें सबकुछ
देश की सुरक्षा एजेंसियों को लगातार इस बात की चिंता सता रही थी कि पंजाब जैसे बॉर्डर राज्य में अलगाववादी ताकतें इस आंदोलन को हाईजैक कर सकती थीं.
कृषि कानूनों (Farm Law) को लेकर पिछले एक साल से चल रहे विरोध प्रदर्शन और तमाम माथा-पच्ची पर आखिरकार केंद्र सरकार ने एक झटके में विराम लगा दिया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) ने शुक्रवार को इसे वापस लेने का ऐलान कर दिया है. आगामी विधानसभा चुनावों को देखते हुए केंद्र सरकार का यह कदम बीजेपी के लिए अहम और बेहद फायदेमंद साबित हो सकता है. इस बीच हम आपको कृषि कानूनों की वापसी के पीछे के संभावित कारणों के बारे में बताते हैं.
देश विरोधी और अलगाववादी ताकतें कृषि कानूनों से फैले असंतोष का फायदा उठाने की फिराक में थीं. देश की सुरक्षा एजेंसियों को लगातार इस बात की चिंता सता रही थी कि पंजाब जैसे बॉर्डर राज्य में अलगाववादी ताकतें इस आंदोलन को हाईजैक कर सकती थीं. इस बावत पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और गृह मंत्री अमित शाह को एक प्रजेंटेशन देकर भी आए थे. बीजेपी का मानना है कि देश को कमजोर करने वाली ताकते सक्रिय हो रही थीं. गणतंत्र दिवस पर लाल किले पर हुई हिंसा को एक उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता हैं.
केंद्र ने पंजाब में तैयार की राजनीतिक जमीन
कांग्रेस से अलग होने के बाद कैप्टन अमरिंदर सिंह ने साफ किया था कि आगामी विधानसभा चुनाव में वो बीजेपी के साथ गठबंधन कर सकते हैं. बशर्ते केंद्र सरकार तीन किसान कानूनों के मुद्दे पर कोई ठोस और निर्णायक कदम उठाए, लिहाजा अब जबकि आगामी विधानसभा चुनाव सर पर है ऐसे में खस्ताहाल पड़ी बीजेपी में जान फूंकने के लिए ये कदम उठाना आवश्यक था. पिछले 7 सालों में केंद्र सरकार ने सिख समुदाय के हक में कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए हैं उसका भी फायदा तभी मिल सकता था जब सूबे में पैर रखने के लिए राजनीतिक जमीन तैयार हो. अकाली दल के साथ पहले से ही बीजेपी के करीबी रिश्ते रहे लेकिन अकाली दल को किसान कानूनों की वजह से 2 दशक पुराने गठबंधन को तोड़ना पड़ा था. किसान कानूनों को रद्द किए जाने की सूरत में पोस्टपोल अलायंस की संभावना के लिए भी ये कदम उठाना आवश्यक था.
जाटों को भी साधने की कोशिश
पहले से नाराज हरियाणा के जाटों को साधने के लिए दुष्यंत चौटाला की पहल भी उल्ट पड़ रही थी और पिछले एक साल से हरियाणा का जाट सड़कों पर विरोध प्रदर्शन कर रहा था. हरियाणा के ज्यादातर टोल बूथ किसानों के कब्जे में थे और दिल्ली के सीमाओं पर आवाजाही बाधित थी. जिससे आमलोग परेशान थे.
हरियाणा के बीजेपी नेताओं का खुलेआम सड़कों पर विरोध होने लगा था. हरियाणा में बीजेपी के सहयोगी और उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला भी आंदोलन को जल्दी समाप्त करवाने का दबाव बना रहे थे.
किसान आंदोलन के चलते पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खासकर जाट बहुल इलाकों में बीजेपी को नुकसान का डर सताने लगा था. आंदोलन के बाद से मुज्जफरनगर इलाके में राकेश टिकैत का दबदबा बढ़ा था. जाट किसानों ने अपने खोए जनाधार को पाने की कोशिश कर रहे रालोद के जयंत चौधरी भी लगातार एक्टिव थे और ऊपर से समाजवादी पार्टी से गठबंधन करके एक बड़ी चुनौती दे रहे थे. इस इलाके में वोटो की लामबंदी 2014 से पहले के तर्ज पर ना हो खासकर जाट-मुस्लिम वोटों की गोलबंदी की संभावना बीजेपी के लिए चिंता का कारण बनी हुई थी. हालांकि इलाके के गुज्जर वोट पर किसान आंदोलन की कोई छाप नहीं थी लेकिन जाट बहुलता वाले इलाकों में बीजेपी अपनी पकड़ कमजोर नहीं होने देना चाहती है.
आगामी चुनावों को देखते हुए सरकार ने लिया ये फैसला
केंद्र में सरकार बनाने के बाद से ही पीएम मोदी के ज्यादातर फैसलों में गांव, गरीब और किसान को प्राथमिकता देने की कोशिश दिखती है. लेकिन कृषि कानूनों के विरोध में चल रहे किसान आंदोलनों में जिस तरह पीएम विरोधी नारे और पुतले जलाए गए उससे उन्हें गहरा धक्का लगा. सरकार बनने के बाद ही किसानों की आय दोगुनी करने की मोदी सरकार की घोषणा और उसके लिए किए जा रहे चेष्टा के बीच उग्र किसान आंदोलन से केंद्र सरकार को एक बड़ा झटका भी लगा था.
बहरहाल, पिछले 1 साल से लगातार हंगामे का बलि चढ़ रहा संसद का सत्र 29 नवम्बर से शुरू होने जा रहा है. इसी सत्र में ये कृषि कानून निरस्त किये जायेंगे. उम्मीद है कि आगामी सत्र शुरुआती हंगामे के बाद सुचारू ढंग से चल सके.