क्या खत्म हो गया यूपीए? जानिए कांग्रेस वाली UPA के टॉप पर पहुंचने से लेकर बिखरने तक की कहानी
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने हाल ही में एनसीपी प्रमुख शरद पवार के साथ मुलाकात के बाद कहा कि ‘अब कोई यूपीए’ नहीं है। कभी खुद यूपीए का हिस्सा रह चुकीं ममता बनर्जी के इस बयान ने राजनीतिक तूफान खड़ा कर दिया है। कांग्रेस की अगुवाई में 2004 में अपने गठन के बाद दो बार देश की सत्ता पर काबिज होने वाले ‘यूपीए’ के नहीं होने के इस बयान ने देश के सबसे बड़े राजनीतिक गठबंधनों में से एक के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लगा दिया है।
इस राजनीतिक घमासान के बीच आइए जानते हैं कि कब और कैसे हुआ था यूपीए का गठन? कौन-कौन सी पार्टियां थीं इसमें शामिल? कैसे पड़ा यूपीए का नाम? और कब छुई इसने बुलंदियां और कब पहुंची रसातल में?
कब और कैसे हुआ था यूपीए का गठन?
यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस (यूपीए) का गठन 2004 में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की अगुवाई में हुआ था। इसका जन्म 2004 के लोकसभा चुनावों में अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में एनडीए की हार के बाद हुआ था। उन चुनावों में कांग्रेस को 145 सीटें मिली थीं, जो बीजेपी (138) से सात सीटें ही ज्यादा थीं। ऐसे में बीजेपी को सत्ता पर काबिज होने से रोकने के लिए ही कांग्रेस ने कई अन्य विपक्षी दलों के साथ मिलकर यूपीए का गठन किया।
यूपीए के गठन में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और सीपीएम के दिवंगत महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत ने अहम भूमिका निभाई थी। सुरजीत ने विपक्षी दलों को इस गठबंधन से जोड़ने का बीड़ा उठाया था और उनके प्रयासों से 12 क्षेत्रीय पार्टियां यूपीए का हिस्सा बनीं, जिनमें-राष्ट्रीय जनता दल (RJD), नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (NCP), द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK), लोक जनशक्ति पार्टी (LJP), तेलंगाना राष्ट्र समिति (TRS), पट्टाली मक्कल काटची (PMK),झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM), मरुमलार्ची द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (MDMK), इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (IUML), पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (PDP), रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (A), और केरल कांग्रस (J) शामिल थीं।
मतलब 2004 में यूपीए गठन के समय इसमें कांग्रेस समेत कुल 13 पार्टियां शामिल थीं। इन पार्टियों के अलावा चार लेफ्ट पार्टियां-सीपीएम, सीपीआई, आरएसपी और फॉरवर्ड ब्लॉक ने कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के आधार पर बाहर से समर्थन दिया था।
कॉमन मिनिमम प्रोग्राम पर 17 मई 2004 को हस्ताक्षर हुए और यह यूपीए की नीतियों और कार्यक्रमों को लेकर पथ प्रदर्शक बन गया।
कैसे पड़ा यूपीए का नाम?
इस गठबंधन के लिए ‘यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलांयस’ नाम पहली पसंद नहीं था। इस गठबंधन में शामिल पार्टियों ने इसका नाम ‘यूनाइटेड सेकुलर अलायंस’ या ‘प्रोग्रेसिव सेकुलर अलांयस’ रखने का सुझाव दिया था। लेकिन डीएमके के दिवंगत नेता और तमिल राजनीति के दिग्गज एम. करुणानिधि ने सोनिया गांधी से 16 मई 2004 को हुई एक बैठक में कहा कि तमिल में सेकुलर का मतलब गैर धार्मिक होता है। तब उन्होंने इसका नाम प्रोग्रेसिव अलांयस रखने का सुझाव दिया, जिसे सभी ने स्वीकार कर लिया और इस तरह इस गठबंधन का नाम यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस (यूपीए) या संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन पड़ा।
कब हुआ था यूपीए की पहली सरकार का गठन?
22 मई 2004, को मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री पद पर शपथ लेने के साथ ही यूपीए की पहली सरकार का गठन हुआ। पहली सरकार में शपथ लेने वाले इस गठबनंध के प्रमुख नेताओं में एनसीपी प्रमुख शरद पवार, आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद, एलजेपी अध्यक्ष रामविलास पासवान, जेएमएम प्रमुख शिबू सोरन, टीआरएस प्रमुख के चंद्रशेखर राव, डीएमके के टीआर बालू, दयानिधि मारन और ए राजा, और पीएमके प्रमुख एस रामदास के बेटे अंबुमणि रामदास शामिल थे।
यूपीए से कब अलग हुई कौन सी पार्टी?
- यूपीए के गठन के बाद जल्द ही इसमें शामिल पार्टियों का अलग-अलग वजहों से इससे अलग होने का सिलसिला भी शुरू हो गया।
- 2006 में यूपीए छोड़ने वाली सबसे पहली पार्टी के चंद्रशेखर राव की टीआरएस थी, जिसके नेता नरेंद्र ने नए तेलंगाना राज्य के गठन की पार्टी की मांग की वजह से यूपीए सरकार से इस्तीफा दिया था।
- 2007 में एमडीएमके ने कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के पालन न करने का आरोप लगाते हुए यूपीए से समर्थन वापस ले लिया था।
- 2008 में यूपीए को सबसे बड़ा झटका भारत-अमेरिका न्यूक्लियर डील पर आगे बढ़ने को लेकर मनमोहन सरकार से चार लेफ्ट पार्टियों का समर्थन वापस लेना रहा। लेफ्ट की समर्थन वापसी से मनमोहन सरकार अल्पमत में आ गई थी, लेकिन तब उसे गिरने से बचाया मुलायम सिंह यादव की उस समाजवादी पार्टी ने।
- 2009 में पीडीपी और डीएमके ने अभी अपने-अपने राज्यों की राजनीति के लिए यूपीए से किनारा कर लिया।
2009 लोकसभा चुनावों से अपने शीर्ष पर पहुंचा यूपीए?
- 2009 के लोकसभा चुनावों में यूपीए ने अपना अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया। कांग्रेस ने अकेले 206 सीटें जीत लीं, लेकिन उन्हें फिर भी बहुमत के लिए अन्य पार्टियों की जरूरत थी। यूपीए ने इन चुनावों में 262 सीटें जीती थीं।
- यूपीए-2 में कुछ नई पार्टियां भी इस गठबंधन से जुड़ी, जिनमें ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस जैसी पार्टियां शामिल थीं। हालांकि फिर भी यूपीए-1 के मुकाबले इस बार सहयोगी दलों की संख्या घट गई।
- यूपीए-2 में कांग्रेस के साथ केवल पांच पार्टियों तृणमूल कांग्रेस, एनसीपी, डीएमके, नेशनल कॉन्फ्रेंस, और इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग ने ही शपथ ग्रहण किया। ममता बनर्जी को रेलवे मंत्री बनाया गया।
- यूपीए-2 के पास लेफ्ट पार्टियों के साथ ही रामविलास पासवान (एलजेपी) और लालू (आरजेडी) का समर्थन नहीं था। हालांकि सरकार गठन के बाद लालू की आरजेडी ने मनमोहन सरकार को समर्थन दिया। लेकिन 2010 में राज्य सभा में महिला आरक्षण बिल लाए जाने के विरोध में समर्थन वापस भी ले लिया।
- यूपीए-2 में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी ने भी मनमोहन सरकार का समर्थन किया।
- इनके अलावा कई क्षेत्रीय पार्टियों, जैसे ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM), विदुथलाई चिरुथाईगल काची (VCK), सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट और बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट ने यूपीए सरकार को बिना किसी मंत्री पद के ही अपना समर्थन दिया था।
कब शुरू हुआ यूपीए का पतन?
2014 के लोकसभा चुनावों से कांग्रेस के साथ ही यूपीए का भी पतन शुरू हो गया। नरेंद्र मोदी की अगुवाई में इन चुनावों में बीजेपी को जोरदार जीत मिली (एनडीए-336, बीजेपी-282 सीट) और कांग्रेस अब तक के अपने न्यूनतम आंकड़े 44 सीटों पर सिमट गई। यूपीए गठबंधन भी फेल रहा और महज 59 सीटें ही जीत पाया। हालांकि कांग्रेस के साथ वाली पार्टियों के गठबंधन को इन चुनावों के बाद भी तकनीकी तौर पर तो यूपीए कहा जा रहा था, लेकिन 2014 के चुनावों के बाद कोई ही यूपीए मरणासन्न स्थिति में पहुंच गया था।
2019 आम चुनावों में भी एनडीए के सामने नहीं टिका यूपीए
2019 लोकसभा चुनावों में कांग्रेस और यूपीए का ग्राफ पिछले चुनावों के मुकाबले थोड़ा बेहतर तो रहा, लेकिन नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी और एनडीए ने और बड़ी जीत (एनडीए-353 सीट, बीजेपी-303) हासिल की। वहीं कांग्रेस ने 52 सीटें जीतीं जबकि एनडीए का ग्राफ पिछले चुनावों के मुकाबले थोड़ा बेहतर होकर 90 सीटों का रहा। लगातार दो लोकसभा चुनावों में मिली हार के बाद यूपीए भले ही सैद्धांतिक तौर पर जिंदा रहा लेकिन भारतीय राजनीति पर दिन प्रतिदिन इसकी पकड़ ढीली होती गई।