यूपी विधानसभा चुनाव 2022 : किस पर मेहरबान होंगे प्रदेश के मुसलमान?
पिछले विधानसभा चुनाव में अपने वोटों की अहमियत खो चुके मुसलमान इस चुनाव में अपनी पुरानी अहमियत को दोबारा हासिल करना चाहते हैं. इसके लिए मुस्लिम समुदाय की तरफ से काफ़ी एहतियात बरती जा रही है. बीजेपी के नेताओं के भड़काऊ बयानों पर मुस्लिम संगठनों या तो ख़ामोश रहते हैं या फिर सधी हुई प्रतिक्रिया दे रहे हैं.
यूपी में चुनावी सरगर्मियां तेज़ होने के साथ ही मुस्लिम मतदताओं को रिझाने का खेल भी शुरू हो गया है. बीजेपी को हराने के नाम पर सपा, बसपा, रालोद और कांग्रेस सूबे के क़रीब 20 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं को अपने साथ लाने की भरसक कोशिश कर रहे हैं. वहीं मुस्लिम वोटों में सेंधमारी करके असदुद्दीन ओवेसी यूपी में पैर जमाना चाहते हैं तो पीस पार्टी अपना खोया वजूद फिर हासिल करने की कोशिशों में है. इसके लिए उसने राष्ट्रीय उलेमा कौंसिल के साथ गठबंधन किया है. ऐसे में सवाल उठता है कि आख़िर मुसलमान इनमें से किस पर कितना मेहरबान होंगे?
मुस्लिम मतदाताओं का रुझान किस तरफ होगा, इस पर चर्चा करने से पहले ये जानना ज़रूरी है कि कि सूबे की कितनी सीटों पर मुसलमान कितने असरदार हैं. सूबे में क़रीब 20 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं. कुल 145 विधानसभा सीटों पर मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं.
कितनी सीटों पर कितने असरदार मुसलमान?
मुसलमानों के प्रभाव के हिसाब से प्रदेश की विधानसभी सीटों को तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है. एक- वो सीटें जहां मुसलमान अकेले अपने दम पर चुनाव जीत सकते हैं. दूसरी-जहां मुसलमान दूसरे जातीय समूह के साथ तालमेल कर जिताऊ गठबंधन बनाते हैं. तीसरी- जहां मुसलमान एक तरफा मतदान करके किसी को जिता या हरा सकते हैं.
पहली श्रेणी में करीब 30-35 सीटें आती हैं. इन पर 40-50 प्रतिशत तक मुस्लिम मतदाता हैं. यहां मुसलमान अपने दम पर जीतने की स्थिति में हैं बशर्ते इन सीटों पर अकेला मुस्लिम उम्मीदवार हो. इनमें से करीब 15 सीटें दलितों के लिए आरक्षित हैं. इनमें ज़्यादातर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सीटें आती हैं. रामपुर अकेला ज़िला है जहां मुस्लिम मतदाता 50 प्रतिशत हैं. यहां ज़्यादातर सीटों पर मतदाताओं का यही अनुपात है. उसके बाद मुरादाबाद में 45, बिजनौर, बरेली और अमरोहा में 40 प्रतिशत मुसलमान हैं. इनके अलावा 30-35 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले ज़िलों में कुछ सीटों पर 40 प्रतिशत तक मुसलमान हैं.
दूसरी श्रेणी में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर, मेरठ, मुज़फ्फरनगर, शामली, अलीगढ़, आगरा, एटा, मैनपुरी, इटावा, फिरोज़बाद, शाहजहांपुर, मध्य उत्तर प्रेदश के पीलीभीत, हरदोई, सीतापुर, लखीमपुर खीरी, कानपुर, उन्नाव, और पूर्वांचल में गज़ीपुर, वाराणसी, संत कबीरनगर, बस्ती, गोंडा, गोरखपुर डुमरियागंज जैसे ज़िले आते हैं. इन ज़िलों में मुसलमानों की आबादी 25 से 35 प्रतिशत तक है. इन ज़िलों की 40-45 सीटों पर 30-35 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं. इनमें से कई सीटों पर दलितों के साथ, तो कई सीटों पर, यादव, कुर्मी, जाट व अन्य पिछड़ी जतियों के मतदाताओं के साथ मिलकर जीत के समीकरण बनते हैं.
तीसरी श्रेणी में ऐसी सीटें आती हैं जहां मुस्लिम मतदाता 20-25 प्रतिशत तक हैं. ऐसी क़रीब 70 सीटें हैं. ये सीटें पूरे प्रदेश में फैली हुई हैं. इन सीटों पर मुसलमान एकमुश्त वोट करके किसी को जिताने-हराने में सक्षम हैं. इन सीटों पर अक्सर समाजवादी पार्टी, बीएसपी या कांग्रेस की कोशिश होती हैं कि उनके उम्मीदवारों को मुसलमानों का एकमुश्त वोट मिल जाए. इनमें से कुछ सीटों पर ये पार्टियां मुस्लिम उम्मीदवार भी उतारती हैं. बीजेपी के मुकाबले इन में से किसी पार्टी का अकेला मुस्लिम उम्मीदवार होता है तो उसकी जीत की संभावना बढ़ जाती है. कई बार वो जीत भी जाती हैं.
मोदी-योगी ने घटा दी मुस्लिम मतदाताओं की अहमियत
यूपी में 145 सीटों पर मुसलमानों के प्रभावशाली होने की वजह से राजनीति में उनकी ख़ास अहमियत रही है. 2012 के विधानसभा चुनावों तक ऐसा माना जाता था कि मुसलमानों के समर्थन के बग़ैर सूबे में कोई पार्टी सरकार नहीं बना सकती. लेकिन 2017 के चुनाव में बीजेपी ने यह भ्रम तोड़ दिया. बीजेपी और उसके सहयोगी दलों ने एक भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं उतारा. बीजेपी ने अकेले 312 सीटें जीती. अपने सहयोगी दलों की मदद से बीजेपी 325 सीटें जीतकर लगभग तीन चौथाई बहुमत से सत्ता में आई. बीजेपी की इस प्रचंड जीत ने मुसलमानों के सहारे कई बार सत्ता में रहीं सपा और बसपा के घमंड को चकनाचूर कर दिया और कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी फेर दिया.
औंधे मुंह गिरी थीं समाजवादी पार्टी, बीएसपी और कांग्रेस
पिछले चुनाव में अखिलेश यादव ने मुसलमानों के सहारे अपनी सरकार बचाने के लिए कांग्रेस से गठबंधन किया. लेकिन महज़ 47 सीटें ही जीत सके. सपा से गठबंधन के बावजूद कांग्रेस यूपी के चुनावी इतिहास में सबसे कम 7 सीटों पर सिमट कर रह गई. बसपा सिर्फ 19 सीटें ही जीत सकी थी. सपा के 47 में से 17 यानि एक तिहाई से ज़्यादा मुस्लिम विधायक जीते. बीएसपी के 19 से 5 मुस्लिम विधायक जीते तो कांग्रेस के 7 में 2 मुस्लिम विधायक जीते. एक आम धारणा है कि पिछले चुनाव में सपा-बसपा का अपना जातीय आधार वाला मतदाता हिंदुत्व की हवा में बहकर बीजेपी के ख़ेमे में चला गया था. इनके पास सिर्फ़ मुस्लिम मतदाता ही बचा था.
2022 में क्या है मुसलमानों का रुझान?
1990 में राजनीति में राममंदिर के नाम पर राजनीतिक आंदोलन शुरू हुआ. 1991 के चुनाव में राम लहर अपने चरम पर थी. तब पहली बार बीजेपी की सरकार बनी. 6 दिसंबर 1992 को उसी के रहते अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराई गई. तबसे यूपी के मुसलमान बीजेपी हराओ अभियान छेड़े हुए हैं. जो पार्टी बीजेपी को हराने में सक्षम दिखती है मुसलमानों के वोट का बड़ा हिस्सा उसे ही मिलता रहा है. कभी सपा तो कभी बसपा का दामन थामकर मुसलमान 2012 तक तो बीजेपी हराओ अभियान में कामयाब रहा. लेकिन 2017 में ये बाज़ी उल्टी पड़ गई. अब 2022 के चुनाव में भी मुसलमान नए सिरे से अपनी पुरानी नीति को ही अमली जामा पहनाने की तैयारी में लगता है. यानि जहां जो पार्टी बीजेपी को हराती दिखेगी, मुसलमान उसे वोट देगा.
सपा हो सकती है पहली पसंद
सूबे में बिछी चुनावी बिसात पर सपा मुसलमानों की पहली पसंद हो सकती है. अखिलेश ने जहां पश्चिमी उत्तर प्रदेश में के साथ आरएलडी गठबंध किया है तो पूर्वांचल में ओम प्रकाश राजभर की सुभासपा और अपना दल (कृष्ण पटेल गुट) समेत कई छोटी पार्टियों को साध लिया है. अखिलेश खुद को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के विकल्प के रूप में पेश कर चुके हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सपा का आधार यादव वोट न के बराबर हैं. ऐसे में जाटों के आधार वाली आरएलडी के साथ गठबंधन की स्थिति में मुसलमानों का भरपूर वोट मिलने की संभावना है. पिछले चुनाव में सपा ने करीब 50 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे, इनमें 17 जीते थे. इस इलाके में जाट-मुस्लिम गठजोड़ हमेशा से मज़बूत रहा है. इसी तरह अन्य पार्टियों से गठबंधन की वजह से पूर्वांचल और मध्य उत्तर प्रदेश में सपा मुसलमानों की पहली पसंद हो सकती है.
बीएसपी खो रही है भरोसा
बीएसपी मुसलमानों के बीच धीरे-धीरे अपना भरोसा खो रही है. तीन बार बीजेपी के समर्थन से मुख्यमंत्री बनने वाली मायावती के बारे में मुसलमानों के बीच ये धारणा बन चुकी है कि वो कभी भी बीजेपी के साथ जा सकती हैं. राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा है कि अगर किसी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला तो मायावती बीजेपी की सरकार बनवाकर अपने लिए उपराष्ट्रपति या किसी राज्य का राज्यपाल के पद का सौदा कर सकती हैं. एक और धारणा है कि मायावती मुसलमानों के वोट लेने के लिए मुसलमानों को ज़्यादा टिकट तो देती हैं लेकिन दलित बीएसपी के मुस्लिम उम्मीदवारों को वोट नहीं देते. पिछले चुनाव में बसपा ने 102 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे लेकिन सिर्फ 5 ही जीत सके. ज़ाहिर है कि बसपा का दलित-मुस्लिम गठजोड़ अब पहले की तरह जीत की गारंटी नहीं रहा.
कांग्रेस तीन में न तेरह में
उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हालत बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना वाली है. प्रियंका गांधी ने कांग्रेस को चुनावी संघर्ष में लाने के लिए जी तोड़ मेहनत की है. लुंजपुंज पड़े संगठन को खड़ा किया है. लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद कांग्रेस विकल्प पेश करती नज़र नहीं आ रही. यूपी का चुनाव सात महीने पहले हुए पश्चिम बंगाल के चुनाव की तरह बीजेपी बनाम सपा होता जा रहा है. ऐसे में अपना वजूद बचाने की कोशिशों में जुटी कांग्रेस के लिए इस चुनाव में बहुत ज़्यादा गुंजाइश नहीं दिखती है. खुद कंग्रेसी नेता मानते हैं कि उनकी पार्टी 10-20 सीटों पर ही सिमट जाएगी. ऐसे में मुसलमान सिर्फ उन्हीं सीटों पर कांग्रेस को वोट दे सकता है जहां उसका उम्मीदवार बीजेपी टक्कर देने वाला हो या फिर अकेला मुस्लिम हो.
मुस्लिम नेतृत्व वाली पर्टियां
यूपी के इस विधानसभा चुनाव में मुस्लिम नेतृत्व वाली तीन अहम पार्टियां ताल ठोक रही हैं. ज़ाहिर है मुस्लिम वोटों पर ये अपना हक़ जमाने के लिए मैदान में हैं. इनमें सबसे अहम असदुद्दीन औवेसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहदुल मुससमीन, डॉ. अय्यूब सर्जन की पीस पार्टी और मौलाना आमिर रशदी की राष्ट्रीय ओलेमा कौंसिल है. पिछले साल बिहार में 5 विधानसभा सीटें जीतने के बाद असदुद्दीन औवेसी ने बड़े ज़ोर शोर से पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ने का ऐलान किया था. लेकिन पश्चिम बंगाल में उनकी पार्टी का खाता तक नहीं खुला. इसके बावजूद उत्तर प्रदेश में उन्होंने उम्मीदें नहीं छोड़ी हैं. पीस पार्टी और उलेमा कौंसिल अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहीं हैं. ये पार्टियां जीतने के लिए कम और दूसरी पार्टियों को हराने के लिए ज़्यादा चुनाव लड़ रही हैं. ये अगर दो-चार सीटें जीत भी जाएंगी तो सत्ता के समीकरणों पर कोई खास फ़र्क़ नहीं पड़ेगा. ये बात मुसलमान भी अच्छी तरह समझ रहे हैं. लिहाज़ा इनकी तरफ़ मुसलमानों का कोई ख़ास रुझान नहीं दिखता है. कुछ सीटों पर इनके क़द्दावर उम्मीदवारों को अच्छा वोट ज़रूर मिल सकता है.
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि पिछले विधानसभा चुनाव में अपने वोटों की अहमियत खो चुके मुसलमान इस चुनाव में अपनी पुरानी अहमियत को दोबारा हासिल करना चाहते हैं. इसके लिए मुस्लिम समुदाय की तरफ से काफ़ी एहतियात बरती जा रही है. बीजेपी के नेताओं के भड़काऊ बयानों पर मुस्लिम संगठनों या तो ख़ामोश रहते हैं या फिर सधी हुई प्रतिक्रिया देते हैं. मुसलमान बीजेपी की तरफ से हो रहीं सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशों को नाकाम करना चाहते हैं. अभी तक वो इसमें एक हद तक कामयाब भी हैं. आगे क्या होगा ये आने वाला वक़्त ही बताएगा.