अमित शाह ही अखिलेश के चुनावी गुरु…?:जिस फॉर्मूले से शाह ने UP जीता, इस बार उसे अखिलेश ने पहले इस्तेमाल कर दिया
शह-मात के सियासी खेल में कहा जाता है कि सफलता उन्हीं को नसीब होती है जो अपने धुर विरोधी दलों की रणनीति पर बारीकी से नजर रखते हुए अपनी योजना बनाते हैं। कुछ ऐसा ही उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भी इस बार देखने को मिल रहा है। राजनीति के जानकारों का कहना है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष अमित शाह ने जाति और क्षेत्र में प्रभुत्व आधारित छोटे राजनीतिक दलों से जिस तरह से गठबंधन किया था, ठीक उसी तरह से इस बार के चुनाव में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने व्यूह रचना तैयार की है।
पूर्वांचल में ओम प्रकाश राजभर, कृष्णा पटेल, स्वामी प्रसाद मौर्य और दारा सिंह चौहान को अपने पाले में खींचने के साथ ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जयंत चौधरी के साथ राजनीतिक दोस्ती कर अखिलेश यादव लखनऊ की कुर्सी पर काबिज होने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाए हुए हैं।
आइए, जानते हैं कैसे अमित शाह के नक्शे कदम पर चलते हुए अखिलेश ने गठबंधन के चेहरे ढूंढे हैं…और किस तरह से उन्हें फायदा पहुंचाएंगे।
अमित शाह की 5 चालें तो अखिलेश यादव ने चल दीं
1. कभी अमित शाह के राजभर, अब अखिलेश के हो गए
सबसे पहले बात ओम प्रकाश राजभर की। कभी ऑटो चालक रहे ओम प्रकाश राजभर के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने कांशीराम की छत्रछाया में राजनीतिक सफर की शुरुआत की थी। राजनीति में उन्हें पहली बार सफलता तब मिली जब उन्होंने 1995 में अपनी पत्नी राजमति राजभर को जिला पंचायत के सदस्य का चुनाव जिताया। 1996 में वह बसपा से कोलअसला विधानसभा (अब पिंडरा) से प्रत्याशी थे, लेकिन चुनाव हार गए थे। बदलते समय के साथ ओम प्रकाश का मोह बसपा से भंग हुआ और वह सोनेलाल पटेल के अपना दल से जुड़ गए। अपना दल के साथ भी राजभर लंबे समय तक नहीं रह पाए और 2002 में उन्होंने सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी का गठन किया। राजभर की पहचान पिछड़े वर्ग के नेता के तौर पर होती है।
अति पिछड़ी जातियों में राजभर की पकड़ को देख कर ही अमित शाह ने वर्ष 2016 में मऊ के रेलवे मैदान में बड़ी रैली कर ओमप्रकाश राजभर को साथ लेने की घोषणा कर पूर्वांचल में बड़ा दांव खेला था। 2017 के विधानसभा चुनाव में अमित शाह ने उनके साथ गठबंधन किया था। 2017 में ओमप्रकाश राजभर की सुभासपा से चार विधायक चुने गए। हालांकि, कैबिनेट में पर्याप्त हिस्सेदारी नहीं मिलने से वह लगातार नाराज रहे। भाजपा पर सवाल भी उठाते रहे। इधर, छोटी जातियों को लामबंद करने की ताकत के चलते राजभर पर सपा भी डोरे डालती रही। 28 अक्टूबर 2021 को सुभासपा के 19 वें स्थापना दिवस पर मऊ में ही आयोजित एक बड़ी रैली में अखिलेश यादव ने राजभर को अपने साथ कर लिया। सपा- सुभासपा का चुनावी गठबंधन हो गया है। इसके साथ ही बीजेपी से भी भी राजभर की दोस्ती लंबी नहीं चली और वह अलग हो गए है और अब इस बार सपा-सुभासपा सियासी मैदान में हैं।
![28 अक्टूबर 2021 को मऊ में सुभासपा के 19 वें स्थापना दिवस पर सपा- सुभासपा का गठबंधन हुआ।](https://images.bhaskarassets.com/web2images/521/2022/01/28/new-project-20_1643376924.jpg)
2. अमित शाह ने अनुप्रिया तो कृष्णा पटेल से अखिलेश ने हाथ मिलाया
डॉ. सोनेलाल पटेल उत्तर प्रदेश के कुर्मी समाज के मतदाताओं के बीच अपनी खास पैठ के लिए जाने जाते थे। सोनेलाल पटेल जीते जी वो सियासी रुतबा नहीं हासिल कर पाए जो वह चाहते थे। उनकी मौत के बाद उनकी बेटी अनुप्रिया पटेल विधायक और फिर 2 बार सांसद चुनी गईं। इस बीच सोनेलाल पटेल की पत्नी कृष्णा पटेल की राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी बढ़ती चली आईं और मां-बेटी की राहें जुदा हो गईं। अनुप्रिया 2014 के लोकसभा चुनाव से भाजपा के साथ हैं। ऐसे में, सपा को भी एक ऐसा नेता चाहिए था जो कुर्मी समाज के मतदाताओं को बता और जता सके कि सोनेलाल पटेल की राजनीतिक विरासत का वही असली उत्तराधिकारी है। अखिलेश ने इस सांचे में कृष्णा पटेल को फिट पाया और उन्हें साथ ले लिया। उत्तर प्रदेश में पूरब से लेकर पश्चिम तक की राजनीति पर बारीकी से नजर रखने वाले जानकारों का कहना है कि किसका पलड़ा कितना भारी पड़ेगा, यह तो वक्त बताएगा। कुर्मी समाज के बीच कृष्णा पटेल की भी पैठ है और इसे खारिज नहीं किया जा सकता है।
![स्वामी प्रसाद मौर्य के साथ हाथ मिलाकर अखिलेश यादव ने ओबीसी वोटर को अपनी ओर करने की चाल चली है।](https://images.bhaskarassets.com/web2images/521/2022/01/28/new-project-22_1643377168.jpg)
3. 2017 में शाह ने स्वामी को अपने पाले में किया, अब अखिलेश ने
1980 से राजनीति में सक्रिय स्वामी प्रसाद मौर्य लोकदल और जनता दल से होते हुए बसपा सुप्रीमो मायावती के खास करीबियों में से एक रहे। 2017 के विधानसभा चुनाव के पहले मौर्या ने तेजी से बदल रही प्रदेश की सियासत का रुख समझ लिया। मायावती से किनारा कर लिया। 8 अगस्त 2016 को अमित शाह ने उन्हें बीजेपी में शामिल कराया। तब उन्होंने कहा था कि अब न गुंडाराज, न भ्रष्टाचार, 2017 में बीजेपी का राज। खुद विधायक और मंत्री बने, इसके साथ ही उन्होंने अपनी बेटी संघमित्रा को सांसद बनवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
तकरीबन 4 दशक के राजनीतिक अनुभव वाले स्वामी की मौर्य समाज और पिछड़ा वर्ग के मतदाताओं में जबरदस्त पैठ है। इस बार अखिलेश यादव ने स्वामी से संपर्क कर लिया। बात बन जाने के बाद 11 जनवरी 2022 को स्वामी प्रसाद मौर्य ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। इसके 2 दिन बाद वह अपने करीबी विधायकों के साथ अखिलेश से जा मिले। जानकार कहते हैं कि इस बार के विधानसभा चुनाव में स्वामी प्रसाद मौर्य समाजवादी पार्टी के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए पिछड़ा वर्ग बाहुल्य कई सीटों पर बड़ा उलटफेर करा सकते हैं।
4. पहले शाह के साथ थे, अब अखिलेश के साथ हैं दारा सिंह चौहान
आजमगढ़ जिले के गेलवारा गांव में पिछड़े वर्ग से ताल्लुक रखने वाले परिवार में जन्मे दारा सिंह चौहान राजनीति में कांग्रेस, सपा, बसपा, भाजपा से होते हुए एक बार फिर सपा में हैं। राज्यसभा से होते हुए वह लोकसभा पहुंचे और फिर 2017 में वह बीजेपी से विधायक व मंत्री बने। 2022 के चुनाव से पहले उन्होंने बीजेपी छोड़ कर सपा का दामन थाम लिया। दारा सिंह चौहान अति पिछड़ी जाति मानी जाने वाली नोनिया (चौहान) जाति से हैं। पूर्वांचल में आजमगढ़, मऊ, गाजीपुर और बलिया में नोनिया समाज की सियासत में अच्छी दखल है। बिहार के राज्यपाल फागू चौहान के बाद दारा सिंह चौहान नोनिया समाज के बड़े नेताओं में से एक हैं। लंबे राजनीतिक अनुभव और नोनिया समाज में तगड़ी पकड़ के चलते अखिलेश के लिए दारा का साथ फायदेमंद रहेगा, इसमें फिलहाल किसी को कोई शक नहीं है। दारा सिंह चौहान को सपा ने मऊ जिले की घोसी विधानसभा से अपना उम्मीदवार बनाया है। राजनीतिक पंडित दारा सिंह चौहान को मौसम वैज्ञानिक मानते हैं।
2014 के लोकसभा चुनाव में दारा सिंह चौहान बसपा के टिकट से मैदान में उतरे लेकिन भाजपा के हरिनारायण राजभर से वो हार गए। तब, भाजपा के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए दारा सिंह चौहान ने अमित शाह से संपर्क किया। 2015 में उन्होंने भाजपा की सदस्यता ग्रहण कर ली। पूर्वांचल की राजनीति में पकड़ रखने वाले दारा सिंह चौहान ने 2022 चुनाव से ठीक पहले 12 जनवरी को योगी कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया। इनके साथ चार और विधायकों ने पार्टी छोड़ छोड़ दी। इनमें बृजेश प्रजापति, रोशन लाल, भगवती सागर और विनय शाक्य शामिल हैं। इसके 2 दिन बाद ही सभी सपा में शामिल हो गए।
![अखिलेश यादव ने जयंत चौधरी से गठबंधन करके पश्चिमी उत्तरप्रदेश की राजनीति में बड़ा फेरबदल करने की दिशा में कदम बढ़ाया है।](https://images.bhaskarassets.com/web2images/521/2022/01/28/new-project-21_1643377020.jpg)
5. जयंत चौधरी से अखिलेश को उम्मीदें
चौधरी चरण सिंह और अजित सिंह के बाद अब जयंत चौधरी का नाम पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट नेताओं में प्रमुखता से लिया जाता है। राजनीति में जैसे इस परिवार की 3 पीढ़ियों के चेहरे बदल गए, वैसे ही भारतीय क्रांति दल से इस परिवार के शुरू हुए सियासी सफर की पहचान अब राष्ट्रीय लोक दल से है। केंद्र सरकार के कृषि कानूनों के विरोध में किसानों के साथ लगातार मुखर नजर आए जयंत चौधरी लखीमपुर हिंसा में भी भाजपा के केंद्रीय मंत्री अजय मिश्र टेनी का विरोध करने वालों की अग्रिम पंक्ति में खड़े नजर आए। युवा जयंत को विश्वास है कि पश्चिमी के किसानों और जाट बिरादरी के समर्थन के बूते वो इस बार अपने दादा जैसा राजनीतिक रसूख पाने में सफल होंगे। जयंत की लगातार सक्रियता को देखते हुए अखिलेश को भी उनसे उम्मीदें बहुत हैं। यही उम्मीदें अमित शाह भी जयंत से लगाए थे, लेकिन अखिलेश ने बाजी मार ली।