यूपी के वोटबैंक: क्या यादव सिर्फ समाजवादी पार्टी को वोट देते हैं?

यादव वो हैं जिन्होंने ब्राह्मण-ठाकुर राजनीतिक नेतृत्व को यूपी की सत्ता से न सिर्फ बेदखल किया बल्कि मंडल आंदोलन के बाद मायावती को छोड़ दें तो सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य की सत्ता में लगातार बने रहे. 2014 में मोदी की आंधी आई और यूपी की यादव सत्ता सिर्फ मुलायम परिवार के कुछ सांसदों तक ही सिमट गई. 2017 का विधानसभा चुनाव ज्यादा बुरे नतीजे लेकर आया. 2012 में 224 सीटें जीतने वाली सपा सिर्फ 47 सीटों पर सिमट गई. जबकि 47 सीटें जीतने वाली बीजेपी आखिर कैसे 324 सीटें जीतने में कामयाब रही, आखिर ये किसके हिस्से का वोटर था जिसे बीजेपी ने हड़प लिया था?

यूपी की तमाम ओबीसी जातियों में यादवों की हिस्सेदारी क़रीब 20% है. यूपी की कुल आबादी में करीब 8 से 9% यादव वोटर इतने गोलबंद हैं कि मंडल से पहले और उसके बाद, राजनीति के दोनों कालखंडों में उनका असर रहा है. यूपी में पांच बार उनके सीएम रहे हैं. छोटी बड़ी 5 हजार से अधिक जातियों वाले समूह ओबीसी में सबसे ज्यादा राजनीतिक चेतना यादवों में देखी गई है. इसीलिए यूपी जैसे राज्य, जहां आजादी के बाद से लगातार सवर्ण ही सीएम बनते आ रहे थे, वहां 1977 में रामनरेश यादव के हाथ सत्ता की बागडोर लग गई. उधर, हरियाणा जैसे जाट बहुल प्रदेश में राव बीरेंद्र सिंह मुख्यमंत्री बन गए. पड़ोसी देश नेपाल में भी यादवों ने पकड़ बना रखी है. नेपाली कांग्रेस के नेता रामबरन यादव वहां के राष्ट्रपति रह चुके हैं. उपेंद्र यादव वहां डिप्टी प्राइम मिनिस्टर हैं. (ये भी पढ़ें:
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फिलहाल यूपी की पॉलिटिक्स में यादवों की पहचान सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव और उनके परिवार से ही है, जबकि बिहार में लालू प्रसाद यादव और उनके परिवार से. सियासी विश्लेषक मानते हैं कि इन दोनों की वजह से यादवों का विकास अन्य पिछड़ी जातियों के मुकाबले ज्यादा हुआ. और यही वो चोर दरवाजा है जिसकी चाभी बीजेपी के हाथ लग गई है. यानी बीजेपी ने यादवों को छोड़ अपना फ़ोकस उन ओबीसी जातियों पर किया जिन्हें इन दोनों नेताओं ने उपेक्षित कर दिया था.

यूपी में ज्यादातर यादव सपा से जुड़े हैं लेकिन बीजेपी ने गैर यादव ओबीसी के साथ-साथ इस वोटबैंक में भी सेंध लगाना शुरू कर दिया है. उसे इसका परिणाम भी 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में देखने को मिला. विश्लेषकों के मुताबिक यादव वोटबैंक का एक हिस्सा सपा से बीजेपी में शिफ्ट हुआ है. इसीलिए बीजेपी ने भूपेंद्र यादव को पार्टी में महासचिव पद की जिम्मेदारी दी है. केंद्र में दो यादवों को मंत्री भी बनाया. रामकृपाल को ग्रामीण विकास और हंसराज अहीर को गृह विभाग में राज्यमंत्री का पद दिया.  (इसे भी पढ़ें:

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ऐसे संगठित हुए यादव

यूपी के एटा, इटावा, फ़र्रुखाबाद, मैनपुरी, कन्नौज, आजमगढ़, फ़ैज़ाबाद, बलिया, संत कबीर नगर और कुशीनगर जिले को यादव बहुल माना जाता है. यादवों के इतिहास और राजनीति से जुड़ा ब्लॉग ‘यादवगाथा’ के लेखक उमेश यादव बताते हैं कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी यूपी के यादवों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था. उमेश का दावा है कि साल 1922 में गोरखपुर में हुए चौरीचौरा आंदोलन में हिस्सा लेने वाले ज्यादातर लोग दलित एवं पिछड़ी जाति के थे और इनका नेतृत्व भी भगवान अहीर कर रहे थे. भगवान अहीर को इसके लिए फांसी की सजा भी सुनाई गई थी. चौधरी रघुबीर सिंह भी एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी थे.

उमेश बताते हैं कि आज़ादी से पहले ही यादव नेता चौधरी नेहाल सिंह, चौधरी गंगाराम, बाबूराम यादव और लक्ष्मी नारायण ने यूपी, दिल्ली और मध्य भारत के कुछ हिस्सों में उपजातियों में बंटे हुए यादवों को एक करना शुरू कर दिया था. 1908 में ही इन नेताओं ने यादव सभा बनाई. इसी साल रेवाड़ी राजपरिवार से जुड़े राव मान सिंह ने ‘अभीर यादव कुलदीपक’ किताब में अपील की कि यादव, अहीर, गोप सभी क्षत्रिय यदुकुल के वंशज हैं और इन्हें अब एक हो जाना चाहिए. 1908 में ही दिलीप सिंह ने रेवाड़ी से ‘अहीर गजट’ पत्रिका निकाली.

यूपी जब संयुक्त प्रांत था तब मैनपुरी जिला ही ‘अहीर’ संगठनों का केंद्र हुआ करता था. चौधरी पद्मा सिंह, चौधरी कामता सिंह और चौधरी श्याम सिंह ने साल 1910 में मैनपुरी में ‘अहीर-यादव क्षत्रिय महासभा’ का गठन किया. 1912 में शिकोहाबाद में ‘अहीर क्षत्रिय विद्यालय’ की स्थापना की गई. अहीर यादव क्षत्रिय महासभा ने सबसे पहले यादवों की विभिन्न उपजातियों को साथ लाकर उन्हें राजनीतिक शक्ति के रूप में संगठित करने का काम किया. राव बलबीर सिंह ने यादवों को जनेऊ पहनने के लिए प्रेरित किया था, जिससे बिहार के मुंगेर में राजपूत और भूमिहार नाराज़ हो गए और यादवों-अहीरों के साथ इनकी हिंसक झड़पें भी हुईं.

विट्ठल कृष्ण खेतकर ने 1924 में इलाहाबाद में अखिल भारतीय यादव महासभा का गठन किया. आज़ादी से पहले से ही अखिल भारतीय यादव महासभा सरकार से सेना में यादव रेजिमेंट बनाने की मांग करती रही है. यह मांग आज भी दक्षिण हरियाणा के राव उठाते रहते हैं.

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यादव राजनीति का उदय

1966 यूपी में यादव राजनीति के लिए काफी अहम साबित हुआ. अखिल भारतीय यादव महासभा की एक बैठक इटावा में हुई. इसमें रेवाड़ी के राजा राव बीरेन्द्र सिंह को सभापति चुना गया. ‘यादवगाथा’ के लेखक उमेश यादव के मुताबिक समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने इसी दौरान पिछड़ी जातियों में यादवों की संगठन शक्ति को पहचाना और कांग्रेस के खिलाफ यादव, कुर्मी, कोइरी और मुस्लिम का एक गठजोड़ बनाने का प्रयास किया. लोहिया ने नारा भी दिया- ‘पिछड़ा पावै सौ में साठ’. हालांकि 1967 में लोहिया का निधन हो गया और जाट नेता चौधरी चरण सिंह ने इसी फ़ॉर्मूले का इस्तेमाल करते हुए पश्चिमी यूपी के जाटों को भी इसमें शामिल कर लिया.

इलाहाबाद हाईकोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस सभाजीत यादव यूपी में यादवों की राजनीति पर कहा, “रामनरेश यादव के सीएम बनने से पहले यूपी में यादव वोटबैंक तीन हिस्सों में बंटा था. ज्यादातर कम पढ़े-लिखे या ‘अनपढ़’ यादव चौधरी चरण सिंह को अपना नेता मानते थे. पढ़े-लिखे और प्रगतिशील यादव सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे. वे लोहिया के साथ जुड़े थे. कम्युनिस्ट पार्टी में चंद्रजीत यादव और सोशलिस्ट में रामसेवक यादव की अच्छी पैठ थी. यादवों के संघर्ष और जागरूकता की वजह से ही उन्हें सत्ता में अच्छी भागीदारी मिली.”

सोशलिस्ट पार्टी का प्रभाव जैसे-जैसे बढ़ा, यादवों का भी यूपी की राजनीति में क़द बढ़ता गया. चौधरी चरण सिंह ने 1967 में ही यूपी में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनाई और मुलायम सिंह यादव इस सरकार में सहकारिता मंत्री बनाए गए. 1977 में रामनरेश यादव ने यूपी में जनता पार्टी की सरकार बनाई. इसके बाद तो मुलायम सिंह यादव तीन बार सीएम बने और बाद में 2012 में अखिलेश यादव ने भी यूपी की सत्ता संभाली. यूपी में यादवों के उभार में मंडल कमीशन ने भी अहम भूमिका निभाई और 1990 में इसकी सिफारिशें लागू होने के बाद 2017 में योगी आदित्यनाथ तक सिर्फ एक अगड़ी जाति का सीएम बना.

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ऐसे बना ‘एमवाई’ समीकरण
एमवाई समीकरण मतलब यादव-मुस्लिम वोट. यह मुलायम सिंह की सियासी गणित का फार्मूला था. 1987 में राजीव गांधी की सरकार थी. राम मंदिर का मुद्दा गरमाया तो उसकी आंच से मेरठ भी अछूता नहीं रहा. यहां भी सांप्रदायिक दंगे हुए. इसी में हाशिमपुरा कांड हुआ. जिसमें विशेष समुदाय के 42 लोगों की हत्या हुई. इसी कांड के बाद मुलायम सिंह पहली बार मुस्लिमों के नजदीक हुए. तब यूपी में कांग्रेस की सरकार थी और वीर बहादुर सिंह सीएम थे. इसके बाद 1992 की बाबरी विध्वंस की घटना के बाद मुलायम का ‘एम’ समीकरण और मजबूत होकर उभरा और उन्होंने लगातार इसकी सियासी फसल काटी. आज भी समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव को एमवाई वोटबैंक के गणित पर काफी भरोसा है.

यादव वोटिंग पैटर्न?

सीएसडीएस के एक सर्वे के मुताबिक 2009 के लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा 73% यादव समाजवादी पार्टी के साथ थे. जबकि 2014 के चुनाव तक इसमें बीजेपी सेंधमारी कर चुकी थी और यह घटकर सपा के पक्ष में सिर्फ 53% ही रह गया. बीजेपी को 27% यादवों के वोट हासिल हुए. जबकि 2009 में उसे इस जाति के सिर्फ 6 फीसदी ही वोट मिले थे. कांग्रेस ने जहां 2009 में 11 फीसदी यादवों का समर्थन हासिल किया था वहीं 2014 में वह और कम होकर सिर्फ आठ फीसदी ही रह गया. सर्वे का दिलचस्प पहलू ये है कि पिछले दो चुनावों में बसपा के पक्ष में पांच फीसदी से अधिक यादव नहीं आए.

बात 2007 और 2012 के विधानसभा चुनाव की करें तो कांग्रेस को इस जाति के सिर्फ चार-चार परसेंट वोट मिले. सपा को 2007 में 72% जबकि 2012 में घटकर सिर्फ 66% यादवों का मत हासिल हुआ. बीजेपी लगातार इस जाति में पैठ बनाने की कोशिश करती नजर आ रही है. लेकिन योगी सरकार में सिर्फ एक यादव मंत्री ही बनाया गया है. अन्य जातियों की तरह ही यादवों में भी उपनामों के हिसाब से उनमें एक दूसरे से कुलीन और श्रेष्ठ होने की बात सामने आती है. ग्वाल, ढढोर के नाम पर खासतौर पर इनमें सियासी बेचैनी देखने को मिलती है. इसी का फायदा बीजेपी उठाने का प्रयास कर रही है.

क्या ऐसे हुई यादव वोट में सेंधमारी?

‘24 अकबर रोड’ के लेखक रशीद किदवई कहते हैं, “मुलायम सिंह यादव से पहले भी यादव राजनीतिक रूप से जागरूक थे, लेकिन उनके आने के बाद वे एकदम से गोलबंद हो गए. इसीलिए बीजेपी इन पर डोरे डाल रही है और कुछ चुनावी सर्वे बताते हैं कि वो इसमें कामयाब भी दिख रही है. यादव वोटबैंक में सेंध लगाने में वो इसलिए कामयाब है क्योंकि यादवों की हिंदू धर्म में गहरी आस्था है. वे श्रीकृष्ण को अपना आराध्य मानते हैं, ऐसे में बीजेपी धर्म और आस्था के बल पर आसानी से उनके नजदीक हो जाती है. ग्वाल, ढढोर को लेकर जो स्पेस बन रहा है उसमें भी वो सेंध लगा रही है. एक और बड़ा तर्क ये है कि मुलायम सिंह और अखिलेश पूरे यूपी के यादवों को बराबरी की नजर से शायद नहीं देख पाए. इसलिए वो यादव बीजेपी की तरफ गए.”

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मुलायम सिंह यादव और यूपी

यूपी में यादव पॉलिटिक्स मुलायम सिंह यादव के इर्द गिर्द घूमती है. हालांकि उससे पहले राम नरेश यादव सबसे बड़े यादव नेता थे. सैफई (इटावा) में जन्मे मुलायम सिंह 1967 में पहली बार विधायक चुने गए. फिर सात बार विधायक बने. तीन बार (1989 से 1991, 1993 से 1995, 2003 से 2007) सीएम बने. 1996 से 1998 तक रक्षामंत्री का पद संभाला. मुलायम सिंह यादव फिलहाल उत्तर प्रदेश की आजमगढ़ लोकसभा सीट से सांसद हैं. उनके बेटे अखिलेश यादव 2012 से 2017 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे और अब समाजवादी पार्टी के सर्वेसर्वा हैं.

सपा की तरफ क्यों हैं सबसे ज्यादा यादव ?

ऑल इंडिया यादव महासभा के राष्ट्रीय महासचिव प्रमोद चौधरी कहते हैं, “यादव सभी पार्टियों में हैं लेकिन यूपी में ज्यादा झुकाव इसलिए सपा की तरफ है क्योंकि इसमें यादव लीडरशिप है. पिछड़ों की लड़ाई लड़ते हैं. झुकाव हिस्सेदारी से तय होता है. 2014 में कुछ यादव उम्मीदों की लहर पर सवार होकर जरूर बीजेपी की तरफ गया था.”

वरिष्ठ पत्रकार टीपी शाही कहते हैं, “यूपी में यादवों का असली राजनीतिक उभार 1977 में हुआ. जब जनता पार्टी की सरकार में आजमगढ़ के रहने वाले राम नरेश यादव सीएम बने. मंडल कमीशन लागू होने के बाद ओबीसी में सबसे मजबूत होकर कोई जाति उभरी है तो वो है यादव, और इसकी वजह सत्ता में उनकी भागीदारी से जोड़कर देखनी चाहिए.”

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डॉ.शफीउज्जमान ने अपनी पुस्तक ‘द समाजवादी पार्टी: ए स्टडी ऑफ इट्स सोशल बेस आईडियोलॉजी एंड प्रोग्राम’ में पीएसी और यूपी पुलिस में सपा के शासन ( जून-जुलाई 1994) के दौरान हुई भर्तियों का जो ब्योरा दिया है, उससे साफ होता है कि सपा की तरफ यादव वोटों का ध्रुवीकरण तेजी से क्यों हुआ? इसके मुताबिक 3181 लोगों की भर्ती में 1298 यादव थे. इसमें गैर यादव ओबीसी सिर्फ 64 थे. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि यादव सपा से अनायास ही नहीं जुड़े.

कांशीराम के रास्ते पर बीजेपी?

यूपी में यादव राजनीति से निपटने के लिए बीजेपी ने जो रणनीति बनाई है उसका श्रेय अक्सर संघ को दिया जाता है. बसपा के संस्थापक कांशीराम ने सबसे पहले गैर-यादव वोट बैंक की ताकत को पहचाना था. करीब बीस साल पहले कांशीराम ने बसपा के लिए जीत का एक फ़ॉर्मूला तैयार किया था, जिसमें उन्होंने दलितों के साथ-साथ गैर यादव जातियों को बीएसपी से जोड़ा था. कुर्मी, सैनी, शाक्य, कुशवाहा, मौर्य, राजभर, निषाद जैसी जातियों के नेताओं को उन्होंने सबसे पहले अहमियत दी. पार्टी में पद से नवाजा.

जातियों का नेता बनाने का फार्मूला!

कांशीराम ने लोकतंत्र को जातियों का मैनेजमेंट और ऐडजस्टमेंट बताया था और इस प्रयोग के जरिए ही मायावती चार बार यूपी की सीएम भी बनीं. सोनेलाल पटेल की पार्टी अपना दल आज बीजेपी के साथ है लेकिन सोनेलाल कांशीराम के साथी थे और उन्हें कुर्मी समाज का नेता बनाने में कांशीराम ने काफी मदद की थी. ओम प्रकाश राजभर भी कांशीराम के साथी रहे थे, जिन्होंने बाद में बीजेपी से हाथ मिला लिया.

केशव प्रसाद मौर्य के जरिए बीजेपी ने जो कार्ड खेला वो भी कांशीराम के फार्मूले से ही प्रेरित नज़र आता है. मौर्य, सैनी, शाक्य और कुशवाहा कांशीराम के दौर में बसपा के परंपरागत वोटर माने जाते थे. वो इसलिए क्योंकि सियासत में यादवों के मुकाबले काफी पिछड़ी इन जातियों के उन्होंने कई नेता बनाए. हालांकि मायावती के आने से न सिर्फ इन ओबीसी जातियों बल्कि गैर-जाटव जातियों ने भी यूपी में बसपा का साथ छोड़ा और बीजेपी 2017 में 41% वोट हासिल करने में कामयाब रही.

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17वीं लोकसभा के चुनाव के लिए बीजेपी ने यूपी में जिन 40 स्टार प्रचारकोंकी सूची जारी की है उसमें एक भी यादव का नाम नहीं है. जबकि तीन मौर्य, कुशवाहा, सैनी और तीन जाट हैं. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि पार्टी का फोकस गैर यादव ओबीसी वोटबैंक पर ज्यादा है.

ओबीसी रिजर्वेशन का बंटवारा: बीजेपी का दांव

यूपी में यादव बनाम गैर यादव पिछड़ी जातियों की राजनीति का सीधा फायदा बीजेपी को देखने को मिला है. साल 2017 में सत्ता में आते ही योगी आदित्यनाथ की सरकार ने चार सदस्यीय सामाजिक न्याय समिति का गठन किया था. जिसका काम था पिछड़ों में भी ऐसी जातियों की पहचान करना जिन्हें ओबीसी रिजर्वेशन का फायदा नहीं मिल रहा है. इसी जस्टिस राघवेंद्र कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में ओबीसी को 79 उपजातियों में बांटा है. योगी सरकार ने पिछड़ों के आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक पिछड़ेपन और नौकरियों में उनकी हिस्सेदारी के अध्ययन के लिए हाईकोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस राघवेंद्र कुमार की अध्यक्षता में चार सदस्यीय कमिटी बनाई थी.

इसमें बीएचयू के प्रोफेसर भूपेंद्र विक्रम सिंह, रिटायर्ड आईएएस जेपी विश्वकर्मा और सामाजिक कार्यकर्ता अशोक राजभर शामिल थे. विश्वकर्मा 2002 में राजनाथ सरकार में बनी सामाजिक न्याय अधिकारिता समिति में भी सचिव थे

कमेटी ने 27 फीसदी पिछड़ा आरक्षण को तीन हिस्सों-पिछड़ा, अति पिछड़ा और सर्वाधिक पिछड़ा में बांटने की सिफारिश की है. पहली श्रेणी को 7%, दूसरी श्रेणी को 11% और तीसरी श्रेणी को 9% आरक्षण वर्ग में रखा जाना प्रस्तावित है. इसी समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि यादवों और कुर्मियों को 7 फीसदी आरक्षण दिया जा सकता है. रिपोर्ट में कहा गया है कि यादव और कुर्मी न सिर्फ सांस्कृतिक रूप से बल्कि आर्थिक और राजनीतिक रसूखवाले हैं. यादव समाजवादी पार्टी का कोर वोटर है जबकि कुर्मी बीजेपी समर्थित अपना दल का कोर वोटर है.

इस रिपोर्ट में समिति ने सबसे ज्यादा आरक्षण की मांग अति पिछड़ा वर्ग के लिए की है, जो 11 फीसदी है. कमेटी ने लोध, कुशवाहा, तेली जैसी जातियों को इस वर्ग में रखा है. 400 पन्नों की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि अति पिछड़ा जाति के लोगों के लिए रोजगार की संभावनाएं उनकी जनसंख्या से आधी हैं. इस जाति की श्रेणी में आने वाले कुछ खास वर्ग हैं, जिन्हें सबसे ज्यादा नौकरियां मिल रही हैं.

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सर्वाधिक पिछड़ा जाति में राजभर, घोसी और कुरैशी को 9 फीसदी आरक्षण दिए जाने की मांग की गई है. इसमें यह भी कहा गया है कि इन जाति के लोगों को या तो थर्ड और पांचवीं श्रेणी की नौकरियां मिलती हैं या फिर ये बेरोजगार रहते हैं. इसमें यह भी मुद्दा उठाया गया है कि ओबीसी की कुछ उप जातियों को आरक्षण का लाभ मिलने के बाद उनका सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्तर ऊंचा उठा है. उनकी शिक्षा और जनसंख्या में बढ़ोत्तरी होने के बाद से उनका राजनीति में हस्तक्षेप बढ़ा है. रिपोर्ट में लिखा है, ‘ऐसा देखा गया है कि सिर्फ कुछ उप जातियों को आरक्षण का लाभ मिला जबकि अधिकांश इसके लाभ से अछूते रहे.’

राजनीतिक तौर पर देखा जाए तो सपा के ओबीसी वोट बैंक और माया के दलित वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए योगी सरकार ये नया प्लान लेकर आई थी. असल में बीजेपी के सामने ये साफ़ है कि 2014 के अपने सबसे अच्छे प्रदर्शन में भी उसके हिस्से सिर्फ 39% वोट आए थे. लेकिन अपने सबसे बुरे प्रदर्शन के दौरान भी माया-अखिलेश का साझा वोट बैंक कभी 45% से नीचे नहीं गया है. ऐसे में योगी की नज़र सपा से नाराज़ ओबीसी जातियों और बसपा से नाराज़ अनुसूचित वर्ग में आने वाली जातियों पर टिकी हुई है.

योगी ने अखिलेश की माया के खिलाफ रही स्ट्रेटजी को अपने अमल में लाने की शुरुआत कर दी है. अखिलेश ने 17 ओबीसी जातियों को अनूसूचित जातियों में शामिल करने का दांव 2017 चुनावों से ठीक पहले दिसंबर 2016 में चला था हालांकि मामला केंद्र सरकार के पास ही अटका रह गया था. सपा के मामले में बात करें तो यूपी के ओबीसी वोट बैंक का एक बड़ा हिस्सा उसके पास आता है. इस वोट बैंक में 70 से 80 जातियां शामिल हैं. जिसमें सबसे बड़ा हिस्सा यादवों का है. महागठबंधन से लड़ने के लिए बीजेपी के पास एक ही ऑप्शन है कि वो सपा के हिस्से जाने वाली गैर-यादव जातियों को अपने पाले में ले आए. इसी तरह बसपा से निपटने के लिए दलित अंब्रेला में शामिल 40-50 जातियों में से गैर-जाटव जातियों को तोड़ ले.

बीजेपी का गैर-यादव ट्रंप कार्ड

गैर यादव पिछडी जातियों में कुर्मी के अलावा सैनी, शाक्य, कुशवाहा और मौर्य बीजेपी के एजेंडें में सबसे उपर हैं. पिछड़ी जातियों में इनकी हिस्सेदारी 15 फीसदी के करीब है. वाराणसी, कानपुर, लखीमपुर खीरी, फर्रुखाबाद समेत पूर्वांचल और बुंदेलखड़ के कुल 17 जिलों में कुर्मी बिरादरी कुल आबादी की 15 फीसदी से ज्यादा है. वहीं सहारनपुर, मुजफरनगर समेत आसपास के जिलों में सैनी की तादाद और प्रतापगढ़, इलाहाबाद, देवरिया, कुशीनगर, संत कबीरनगर, गोरखपुर, महराजगंज, आजमगढ़, वाराणसी और चंदौली जैसे जिलों में मौर्य, कुशवाहा बिरादरी की अच्छी खासी संख्या है.

यूपी विधानसभा चुनावों में भी बीजेपी ने गैर यादव ओबीसी वर्ग से करीब 35 फीसदी टिकट (130 से ज्यादा कैंडिडेट) दिए थे. इन टिकटों में प्रमुख रूप से बीजेपी की पसंद कोइरी (मौर्य, कुशवाहा, सैनी सरनेम वाले), कुर्मी (चौधरी, वर्मा सरनेम वाले), लोध-राजपूत (सिंह, लोधी, राजपूत सरनेम वाले), निषाद (बिंद, कश्यप, निषाद सरनेम वाले) समेत राजभर, बघेल और नोनिया शामिल रहे. जिन्हें टिकट देने में वरीयता दी गई. केशव प्रसाद मौर्य को प्रदेश अध्यक्ष बनाना, बसपा के पूर्व दिग्गज स्वामी प्रसाद मौर्य को बीजेपी में शामिल करना और अपना दल की नेता अनुप्रिया पटेल को केंद्र में मंत्री बनाना बीजेपी की इसी रणनीति का हिस्सा रहा.

बीजेपी के रणनीतिकारों का आकलन है कि 2019 में भी अगर बीजेपी को अच्छा प्रदर्शन करना है तो गैर-यादव वोटरों का उसके साथ रहना बेहद ज़रूरी है.

गैर यादव वोटरों को लुभाने की कोशिश!

केंद्र सरकार ने ओबीसी के सब-कटेगराइजेशन के लिए 2 अक्टूबर 2017 को एक आयोग का गठन किया है. यह आयोग तय करेगा कि ओबीसी में शामिल जातियों को क्या आनुपातिक आधार पर प्रतिनिधित्व दिया जा सकता है. आयोग तय करेगा कि ऐसी कौन सी जातियां हैं जिन्हें ओबीसी में शामिल होने के बाद भी आरक्षण का पूरा लाभ नहीं मिला और ऐसी कौन सी जातियां हैं जो आरक्षण की मलाई खा रही हैं. चार सदस्यीय इस आयोग की अध्यक्ष दिल्ली हाईकोर्ट की पूर्व मुख्य न्यायाधीश जी. रोहिणी हैं.

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विभाजन का किसे फायदा?

तो पार्टियां कैसे ओबीसी वोटों को अपनी तरफ करने की कोशिश कर रही हैं? सीएसडीएस के निदेशक संजय कुमार का मानना है कि “2014 से ही पार्टियां ओबीसी को एक ब्लॉक के रूप में नहीं देख रही हैं. पार्टियों को पता है कि हर राज्य में ओबीसी के अपर सेक्शन हैं उसका झुकाव किसी न किसी पार्टी की तरफ पहले से है. उसे तोड़ पाना किसी के लिए मुश्किल होता है. जैसे यूपी में यादव हैं. इसलिए वहां वह गैर यादव ओबीसी को तोड़ने की कोशिश में है. इसी तरह बिहार में गैर यादव, गैर कुर्मी ओबीसी को तोड़ने की कोशिश होगी. इसीलिए बीजेपी ने सब-कटेगराइजेशन के लिए जो आयोग बनाया है उसे हम ओबीसी को तोड़ने की कोशिश के तौर पर ही देख सकते हैं. इस आयोग को बनाने के पीछे बीजेपी ने अपना राजनीतिक माइलेज जरूर देखा होगा.”

‘यादववाद’ की शिकार हुई सपा ?

वरिष्ठ पत्रकार हरेराम मिश्रा के मुताबिक अन्य पिछड़ा वर्ग के नौ प्रतिशत यादव 78 गैर यादव ओबीसी जातियों का हिस्सा खा जाएं और उन्हें केवल अस्मिता की राजनीति में फंसाए रखें- यह अब मुमकिन नहीं है. उत्तर प्रदेश में सामाजिक न्याय की राजनीति करने के नाम पर सत्ता में आई समाजवादी पार्टी ने अपने पूरे चरित्र में यादव जाति को छोड़कर ओबीसी संवर्ग की अन्य किसी जाति को राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक तौर पर कभी भी आगे नहीं बढ़ने दिया. चाहे वह मुलायम सिंह यादव का दौर रहा हो या फिर अब अखिलेश यादव का. अन्य यादव ओबीसी को केवल ‘बेवकूफ’ बनाया गया.

जब भी कभी जातिगत गोलबंदी की बात की जाती तब भी समीकरण सदैव यादव बनाम अन्य के नाम से जाना जाता है. जबकि उत्तर प्रदेश में ओबीसी कैटेगरी में यादव के अलावा कई अन्य जातियां भी हैं जिन्होंने समाजवादी कुनबे को पूरा समर्थन दिया है लेकिन सत्ता का लाभ उन्हें कभी नहीं दिया गया.

अब जबकि, संघ ने इन गैर यादव ओबीसी जातियों पर ध्यान केंद्रित किया है तब अखिलेश यादव के पास इन्हें (सपा) से जोड़े रखने का कोई मजबूत आधार ही नहीं है. जब समूचा गैर यादव ओबीसी बीजेपी के साथ चला गया हो तब यादव वोट बैंक को बचाने की मजबूरी में सपाई ‘कट्टर’ यादव बन गए हैं. यह संघ के सामने अखिलेश यादव की हार है क्योंकि पिछड़ा वर्ग की आबादी लगभग 45 प्रतिशत है और इसमें यादव केवल नौ प्रतिशत हैं. बाकी अन्य 78 जातियां, जिन पर संघ कब्जा कर चुका है अखिलेश के पाले में आने को तैयार नहीं दिखतीं. ऐसा लगता है कि समाजवादी पार्टी ने यह मान लिया है कि वह अभी गैर ओबीसी को अपने पाले में नहीं रख सकती इसलिए केवल ‘यादव’ अस्मिता पर ही ध्यान केन्द्रित किया जाए. यह उसके टिकट वितरण में भी दिखता है.

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हालांकि, इलाहाबाद हाईकोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस सभाजीत यादव कहते हैं कि मुलायम सिंह का यादव प्रेम सिर्फ अपने परिवार तक सीमित है. ये बात सच है कि ज्यादातर यादव सपा के साथ जुड़े हैं लेकिन इसमें उसका नुकसान भी है. अब देखिए वर्तमान सरकार में वे कहां हैं? दूसरी पार्टी को आप वोट नहीं देते तो फिर आपको वो क्यों टिकट देगी और सपा जिसे आप सबसे ज्यादा वोट देते हैं वो सिर्फ अपने परिवार के यादवों को टिकट देगी.

साथ में अंकित फ्रांसिस, ग्राफिक्स डिजाइन-अनिकेत सक्सेना

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