हिजाब के सवाल पर राष्ट्रीय बहस की जरूरत; स्त्री-पुरुष समानता की बात करते हैं तो सिर्फ स्त्रियों पर बंधन क्यों?

मुस्लिम छात्राएं हिजाब (शिरोवस्त्र) पहनें या न पहनें, इस मुद्दे को लेकर कर्नाटक में जंग छिड़ गई है। मामला उडुपी जिले के एक काॅलेज में गरमाया है। मंगलवार को कर्नाटक के ही एक अन्य कॉलेज में हिजाब पहनकर आई एक मुस्लिम छात्रा को घेरकर नारेबाजी भी की गई, जो गलत है। पर यह मुद्दा ऐसा है, जिस पर राष्ट्रीय बहस की जरूरत है। कर्नाटक की भाजपा सरकार ने कहा है कि 1983 में पारित एक शिक्षा कानून के तहत छात्र-छात्राओं की वेशभूषा क्या हो, यह सरकार या वह शिक्षण-संस्था तय करेगी।

इस प्रावधान के विरुद्ध कुछ लोगों ने अदालत में याचिका भी दायर कर दी है। उनका कहना है कि ऐसा प्रावधान नागरिकों के मूलभूत अधिकारों का हनन करता है। कोई आदमी क्या खाए, क्या पहने, किस करवट सोए- इस सबकी उसे स्वंतत्रता है। यह तर्क मोटे तौर पर ठीक ही लगता है लेकिन इसकी बारीकियों में उतरेंगे तो इसके कई पहलुओं से सहमत होना मुश्किल है। यदि हर नागरिक को खाने, पहनने और बोलने की असीम स्वतंत्रता हो तो वह किसी भी हद तक जा सकता है।

लेकिन हिजाब पहनने की स्वतंत्रता किसी खतरनाक श्रेणी में नहीं आती है। हिजाब क्या है? हिजाब सिर और सीने पर ढके जाने वाले कपड़े को कहते हैं। कभी-कभी उससे चेहरा भी ढक लिया जाता है और सिर्फ आंखें खुली रहती हैं। वह लगभग वैसा ही होता है, जैसे आजकल सभी लोग- औरत और मर्द- मुखपट्टी या मास्क लगाए रखते हैं। औरतें हिजाब, बुर्का और नकाब धारण करें, यह परंपरा अरबों में इसलिए चली थी कि वे अंग-प्रदर्शन से बचें।

लगभग ऐसी ही परंपरा भारत के सभी धर्मावलंबियों में भी रही है, जिसे पर्दा और घूंघट की प्रथा कहा जाता है। लेकिन अब हिजाब जैसी परंपरा का पालन इस्लामी देशों में भी घटता जा रहा है। अब से 50-55 साल पहले जब मैं काबुल विश्वविद्यालय में अनुसंधान कर रहा था तब मैं देखता था कि अफगान छात्राएं शॉर्ट स्कर्ट पहनकर आती थीं। वैसे स्कर्ट मैंने रूस, यूरोप और अमेरिका में भी नहीं देखे। एेसे में वेशभूषा पर सवालों का उठना स्वाभाविक हो सकता है। लेकिन घूंघट और हिजाब को इस श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है।

घूंघट और हिजाब का प्रावधान किसी भी धर्मग्रंथ में नहीं है। कुरान शरीफ में कहा गया है कि अपने घर की महिलाओं से कहिए कि जब वे बाहर निकलें तो अपने अंगों को ढककर रखें ताकि लोग उन्हें तंग न करें। वे बाहरी लोगों के सामने अपनी नज़रें नीची रखें। कुरान में यह जो कहा गया, वह बिल्कुल उचित था, क्योंकि उस वक्त के अरब देशों में मर्द अपनी मर्यादा का उल्लंघन करने में ज्यादा संकोच नहीं करते थे।

वेशभूषा में परिवार की स्त्रियों को विशेष सावधानी बरतने के लिए इसलिए भी कहा जाता था, क्योंकि उस जमाने में इसे स्वेच्छाचारिता से जोड़ दिया जाता था। भारत में पर्दा-प्रथा कहां थी? यह भी कुछ सदियों पहले ही चली। खास तौर से विदेशी आक्रमणकारियों के काल से! कई संत कवियों और महर्षि दयानंद ने पर्दा-प्रथा का डटकर विरोध किया था। लेकिन आधुनिक काल में जब हम स्त्री-पुरुष समानता की बात करते हैं तो सिर्फ स्त्रियों पर इस तरह के अतिरंजित बंधन क्यों थोपना चाहते हैं?

यहां इसे दोनों तरह से देखा जा सकता है। कुछ लोग कह सकते हैं कि स्त्रियां अपने अंगों का प्रदर्शन न करें यही ठीक है, इसी तरह इस मत के विरोधी पूछ सकते हैं कि वे अपनी पहचान भी क्यों छिपाएं? बुर्का, घूंघट, पर्दा, हिजाब और नक़ाब तो उनके चेहरे को भी ढक लेते हैं। यदि कोई कुछ नहीं पहनकर बाहर निकले तो वह आपत्तिजनक जरूर है (दिगंबर संतों के अलावा), लेकिन कोई किसी भी रंग, शैली, आकार, कीमत का कपड़ा पहने तो उसमें आपत्ति का कारण नहीं बनता।

यदि मुसलमान स्त्रियां बुर्का पहनें, हिंदू स्त्रियां घूंघट काढ़ें और माथे पर सिंदूर लगाएं, हिंदू पुरुष चोटी रखें, जनेऊ पहनें तो किसी को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए। भारत में धोती, पाजामा, लुंगी, पेंट, चादर, अंगोछा आदि अधोवस्त्रों के कई रूप प्रचलित हैं। लेकिन शिक्षा-संस्थाओं को जाति, पंथ या मजहब की डोंडी पीटने वाले ऐसे प्रकट-चिह्नों से मुक्त रखा जा सके तो अच्छा है। इसीलिए भारतीय गुरुकुलों में समस्त ब्रह्मचारियों की वेशभूषा एक जैसी ही होती थी।

यूनान के दार्शनिक प्लेटो की ‘एकेडमी’ और अरस्तू की ‘लीसीएम’ में छात्रों की वेशभूषा भी एक जैसी होती थी। चाहे वे किसी राजपरिवार के ही क्यों ना हों। सांदीपनि आश्रम में क्या कृष्ण और सुदामा अलग-अलग वेशभूषा में रहते थे? लोग अपने घर और बाजार में जैसी वेशभूषा पहनना चाहें, पहनें। उन्हें इससे भला कौन रोक सकता है? लेकिन शिक्षा-संस्थाओं में सबकी वेशभूषा एक जैसी हो तो उसके कई लाभ हैं। बचपन से लोगों में समता और सादगी का भाव पनपेगा।

अमीरी की उच्चता ग्रंथि और गरीबी की हीनता ग्रंथि का भाव बच्चों में आपस की दूरियां पैदा नहीं करेगा। लेकिन जब लड़कियां हिजाब पहनेंगी, तो फिर भगवा दुपट्टा और नीला गुलूबंद भी दिखाई पड़ेगा। यह अलगाववाद चाहे मजहबी हो, जातीय हो या आर्थिक हो, शिक्षा-संस्थाओं में तो नहीं होना चाहिए। यदि मुस्लिम लड़कियां हिजाब नहीं पहनेंगी तो क्या उनके इस्लामी होने में कुछ कमी आ जाएगी? मैं जब इंदौर के क्रिश्चियन काॅलेज में पढ़ता था तो ब्रह्मचारी के नाते खड़ाऊ पहना करता था।

जब प्राचार्य सी. डब्ल्यू. डेविड ने उसकी खट-खट पर आपत्ति की तो मैं उसे उतारकर नंगे पांव ही कालेज में प्रवेश करने लगा था। तब क्या मेरा ब्रह्मचर्य भंग हो गया था? हम छात्रों की वेशभूषा एक जैसी कर लें, तब भी अलगाव की समस्या रहेगी। उसे घटाने के लिए यह भी किया जा सकता है कि सारे भारतीय अपने खान-पान और नामकरण में भी मोटी-मोटी एकरूपता लाने की कोशिश करें। इसका अर्थ यह नहीं कि सभी धोती-कुर्त्ता पहनें, दाल-रोटी खाएं और अपने नाम संस्कृत या हिंदी में रखें।

विविधता कायम रहे लेकिन मुसलमानों के नाम सिर्फ अरबी, ईसाइयों के नाम सिर्फ इंग्लिश और यहूदियों के नाम सिर्फ हिब्रू में क्यों रहें? वे अरबों, अंग्रेजों और इजराइलियों की नकल क्यों करें? वे अपने नाम अपनी मातृभाषाओं में क्यों नहीं रखें? ऐसा होगा तो देश में अंतरजातीय व अंतरधार्मिक विवाहों की संख्या बढ़ेगी और एकता इस्पाती बनेगी। मैंने इंडोनेशियाई मुसलमानों के नाम संस्कृत में देखे हैं।

उनके राष्ट्रपति का नाम सुकर्णो था व उनकी बेटी का नाम मेघावती है। कुछ ही महीनों पूर्व सुकर्णो की एक अन्य पुत्री सुकमावती ने हिंदू धर्म स्वीकार किया है और इसे इंडोनेशिया के मानवाधिकार और राजनीतिक चिंतकों ने अपने देश में धार्मिक बहुलतावाद का ही एक प्रमाण बतलाया था। बहरहाल, हिजाब वाले मामले पर कर्नाटक हाईकोर्ट सुनवाई कर रहा है और माननीय न्यायालय के निर्णय से ही तस्वीर साफ हो सकेगी।

स्वतंत्रता या स्वच्छंदता?
कोई आदमी क्या खाए, क्या पहने, किस करवट सोए- इस सबकी उसे स्वंतत्रता है। यह तर्क मोटे तौर पर ठीक ही लगता है लेकिन इसकी बारीकियों में उतरेंगे तो इसके कई पहलुओं से सहमत होना मुश्किल है। यदि हर नागरिक को खाने, पहनने और बोलने की असीम स्वतंत्रता हो तो वह किसी भी हद तक जा सकता है। हिजाब पहनने की स्वतंत्रता किसी खतरनाक श्रेणी में नहीं आती है। लेकिन अब हिजाब जैसी परंपरा का पालन इस्लामी देशों में भी घटता जा रहा है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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