विवाह करना जरूरी है, लेकिन अगर हमारे पास इससे भी बड़ा लक्ष्य है तो हम उसे चुन सकते हैं
कहानी
बात उन दिनों की है जब स्वामी विवेकानंद अपने परिवार की आर्थिक स्थिति को लेकर बहुत परेशान थे। उनके पिता विश्वनाथ दत्ता का निधन हो चुका था। विवेकानंद ने अपने जीवन में सुख-सुविधाएं भी देखी थीं, क्योंकि उनके पिता कलकत्ता हाईकोर्ट में वकील थे। वे विद्वान होने के साथ ही संस्कृत और फारसी भाषा के जानकार भी थे। स्वामी जी के पिता की संगीत में भी रूचि थी।
विष्णुनाथ दत्ता ने धन बहुत कमाया, लेकिन दान भी बहुत दिया। इसी वजह से उनके परिवार की आर्थिक स्थिति बिगड़ गई थी। पिता के निधन के बाद परिवार में रिश्तों में कलह होने लगी। युवा नरेंद्र ने अपने जीवन में कुछ बातें बहुत करीब से देख ली थीं। पहली ये कि माता-पिता का साया उठ जाए, तो बचे हुए रिश्तेदारों के तौर-तरीके बदल जाते हैं। दूसरी बात ये कि धन-संपत्ति सदैव किसी की नहीं रहती है। इनके साथ ही उन्होंने गृह कलह भी देखी।
जब-जब युवा नरेंद्र के लिए विवाह के प्रस्ताव आते थे, तो वे उन्हें अस्वीकार कर देते थे। एक दिन उनकी माता भुवनेश्वरी देवी ने पूछा, ‘नरेंद्र क्या बात है, हम जिस लड़की का प्रस्ताव लेकर आते हैं, तुम मना कर देते हो। क्या तुम्हारी रूचि किसी और महिला में है?’
युवा नरेंद्र बोले, ‘आप ठीक समझ रही हैं। मुझे विवाह नहीं करना है।
उनकी मां ने फिर पूछा, ‘क्या इसकी वजह जो हमारे आसपास घटनाएं घट रही हैं, वे हैं या कोई और बात है?’
विवेकानंद ने कहा, ‘मां पिता जी कहा करते थे कि कभी भी किसी स्थिति या दृश्य को देखकर आश्चर्यचकित मत होना, गहराई से उस बात को समझना। सभी लोग विवाह करते हैं, सिर्फ इसलिए मैं भी विवाह कर लूं, ये सही नहीं है। अगर मैं विवाह नहीं करूंगा, तो उस ब्रह्मचर्य का उपयोग करूंगा। इस देह का दुरुपयोग नहीं करूंगा।’
इस समझ के साथ वे अविवाहित रहे, लेकिन उन्होंने अपनी योग्यता और ब्रह्मचर्य का सदुपयोग किया।
सीख
विवेकानंद की ये कहानी हमें समझाती है कि दांपत्य जीवन आवश्यक है, लेकिन अगर हमारे पास इससे भी बड़ा लक्ष्य है तो हम दूसरा पक्ष भी चुन सकते हैं।