क्या आप अपने बच्चों को ‘थूक का सूप’ और भूसे की ब्रेड खिलाने के लिए तैयार हैं?
एक बार कल्पना करके देखिए कि नायकों की कथित महानता को पूरा करने में पीढ़ियों को किस जीवनशैली से गुज़रना पड़ा. कहावत है कि ये दुनिया अराजकता से 2 वक्त के खाने की दूरी पर है. मतलब, दो वक्त तक पूरी दुनिया को खाना न मिले, तो पृथ्वी पर अराजकता फैल जाएगी.
यूक्रेन पर रूस (Russia) के हमले के बाद दुनिया भर में तरह-तरह की चर्चाएं जारी हैं. कई लोग इसे तीसरे विश्व युद्ध (Third World War) की शुरुआत बता रहे हैं. कई यूक्रेन के रूस को कड़ा जवाब देने की तारीफ़ कर रहे हैं, तो कुछ को लगता है कि अखंड रूस का सपना पूरा कर रहे पुतिन कोई महान काम कर रहे हैं.
युद्ध भारत की ज़मीन पर नहीं है, इसलिए यहां से राय देना आसान है कि विश्वयुद्ध हो जाए, लेकिन विश्व युद्ध कितनी बड़ी त्रासदी है इसे समझने के लिए उन खाद्य सामग्रियों के बारे में जानते हैं जिनके ज़रिए लोगों ने युद्ध के दौरान पेट भरा. क्या आप स्पिट सूप (थूकते रहने का सूप) या सॉ डस्ट केक (लकड़ी के बुरादे का केक) खाकर ज़िंदा रहना चाहेंगे.
नूडल्स का सूप और गांधी का ज़िंदा रहना
मेरा एक रूसी सहकर्मी रहा है. हमारे दफ़्तर में दोपहर के खाने में रोज़ अलग-अलग तरह के सूप मिलते थे. इसमें से एक होता था नूडल्स का सूप. मैंने एक दिन खाना परोसते समय उस दोस्त से पूछा कि क्या उसे भी ये सूप चाहिए. उसने तुरंत मना कर दिया और कहा कि दोबारा कभी इस सूप के लिए न पूछें. इसका कारण था कि द्वितीय विश्व युद्ध के समय लेनिनग्राद पर जर्मन सेना ने घेरा बंदी की थी. ये घेराबंदी 872 दिन तक चली थी. जर्मन हुक्मरानों का मानना था कि लेनिनग्राद के लोग एक दूसरे को मारकर खाने लगेंगे. ऐसा बड़े पैमाने पर तो नहीं हुआ, लेकिन राशन कार्ड के लिए हत्याएं हुईं. अभिवावक डरते थे कि अंधेरे में उनके छोटे बच्चों को लोग मारकर खा जाएंगे.
लेनिनग्राद में फंसे लोगों ने उबले पानी में नूडल डालकर सूप बनाकर अपने बच्चों को खिलाया, क्योंकि एक दिन में एक साबुन की टिक्की के बराबर के ब्रेड के राशन से किसी का भी पेट नहीं भरता था. पहले चिड़िया का दाना इस्तेमाल हुआ फिर चिड़िया भी इस्तेमाल हो गई. दीवारों के वॉलपेपर, किताबों की जिल्द उचेलकर गोंद निकालकर खाया गया, क्योंकि इसकी लेई आलू से बनती थी. उबली हुई बेल्ट और लिप्स्टिक तक खानी पड़ी. इस तीन साल की घेराबंदी में 15 लाख लोग मारे गए. यह संख्या हिरोशिमा, नागासाकी और टोक्यो को मिलाकर मारे गए लोगों से कहीं ज़्यादा है. अमेरिका और यूनाइटेड किंग्डम को मिलाकर मारे गए लोगों से भी बहुत ज़्यादा है.
हो सकता है कि आपको ये सारी बातें सुनकर लगे कि ये रूस में हुआ था, तो भारत में इसका क्या लेना देना. इसी 1943 में भारत में भी सूखा पड़ा. फसल कम हुई. जितना अनाज था वो सब अंग्रेज़ों ने अपने कब्ज़े में ले लिया था, क्योंकि युद्ध लड़ रहे जवानों के लिए कमी नहीं होनी चाहिए थी. लोग सड़कों पर गिरकर मर जाते थे, लाशें पड़ी रहती थीं, लेकिन कोई देखने वाला नहीं था. ब्रिटेन के प्रधानमंत्री चर्चिल से अपील की गई कि लोगों को राशन मुहैया कराया जाए. चर्चिल ने कहा कि हिंदुस्तानियों की आबादी खरगोशों की तरह बढ़ती है. अगर अनाज की सच में इतनी कमी है, तो गांधी अब तक कैसे ज़िंदा है. बंगाल में इस अकाल से करीब 30 लाख मौते हुईं. हिरोशिमा, नागासाकी, पर्लहार्बर, और लेनिनग्राद की कुल मौतों से कहीं ज़्यादा.
अमेरिकी राशन के टोकन और आलू और चिकन
ऐसा नहीं है कि युद्ध की आग अमेरिका तक नहीं पहुंची. युद्ध उनकी ज़मीन पर नहीं लड़ा जा रहा था, लेकिन राशनिंग वहां भी थी. उस ज़माने में कई चीज़ों को राशन की सूची में डाल दिया गया था. इसमें गाड़ियों के टायर से लेकर अंडे तक हर वो चीज़ मौजूद थी, जिसे सैनिकों के लिए भेजा जाता था. लोगों को लाल नीले टोकन जारी किए जाते. जब आपको इस सूची में दी गई कोई चीज़ खरीदनी होती, तो आपको पैसों के साथ-साथ वे टोकन देने पड़ते. यानि, अगर आपके पास पैसे हैं, लेकिन टोकन नहीं हैं, तो आप अंडे नहीं खरीद सकते. ये टोकन डाक टिकट जैसे थे और निश्चित संख्या में ही जारी होते थे. राशन की यह व्यवस्था काफ़ी कारगर थी इसलिए अमेरिका के मित्र राष्ट्रों ने भी इसे अपनाया. चीनी, दूध, ब्रेड, मांस, मछली ब्रेड और मक्खन पर राशनिंग सबसे ज़्यादा थी.
राशनिंग का सबसे पहला असर केक और ब्रेड पर पड़ा. जैम बनाना और ब्रेड या केक के बीच लगाना इस समय बहुत तेज़ी से लोकप्रिय हुआ, क्योंकि जैम फलों को प्रिज़र्व करने का तरीका था. इस युद्ध में जो सब्ज़ी सबसे लोकप्रिय हुई वो थी आलू थी. आलू की फसल ज़मीन के अंदर होने के कारण जल्दी खराब नहीं होती, इसे स्टोर करना और पकाना आसान है. इसके चलते दुनिया भर में तमाम चीज़ों में आलू ने अपनी जगह बना ली. उदाहरण के लिए ब्रिटेन में आलू और चावल से टिक्की बनाकर मछली के विकल्प के तौर पर परोसना इसी दौर में चालू हुआ. मांस की जगह पर आलू, मटर और बची हुई सब्ज़ियों को पकाकर विकल्प के तौर पर परोसा गया. इसी तरह विश्व युद्ध से पहले चिकन अमीरों का भोजन था और आम लोगों के लिए बकरा या दूसरे बड़े जानवर होते थे. विश्व युद्ध में मुर्गियों की पैदावार बढ़ाई गई, ताकि ज़्यादा अंडे पैदा हों और 12 हफ़्ते में तैयार मुर्गी से भी पेट भरा जा सके.
आलू और चिकन की ये बढ़ोतरी दुनिया भर के खाने में आज भी शामिल है. लेकिन अमेरिकी खाने में सबसे चर्चित नाम है रूज़वेल्ट कॉफ़ी. रूज़वेल्ट कॉफ़ी का मतलब है कि मशीन से कॉफ़ी बनाने में एक बार इस्तेमाल हो चुके बीज दोबारा इस्तेमाल करना. ज़ाहिर सी बात है कि सैनिकों में सबसे ज़्यादा मांग कॉफ़ी की ही थी, और जनता को हफ़्ते में एक कप कॉफ़ी पीने की इजाज़त थी, तो दोबारा इस्तेमाल किए गए बीजों से बनी पनीली बेस्वाद कॉफ़ी के साथ देश के नेता का नाम जोड़कर लोकप्रिय बनाया गया. लोगों ने इस कॉफ़ी में तमाम दूसरी चीजें भी डालीं, ताकि ये पीने लायक बन सके. इन सबके अलावा अमेरिकन जनता ने गाय और भैंस की जीभ और खुर को भी खाने में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया, क्योंकि बाकी के ‘कट्स’ सेना के लिए रिज़र्व थे.
पोलैंड-जर्मनी और थूक का सूप
पोलैंड उन देशों में से है जिसने युद्ध की विभीषिका को सबसे ज़्यादा झेला. द्वितीय विश्व युद्ध में पोलैंड पर हर तरफ से मार पड़ी. खाने की कमी से बचने के लिए तमाम चीज़ें बनीं. इसमें से एक थी स्पिट सूप. इसके नाम से यह मत सोचिए कि इसे थूक से बनाया जाता था. दरअसल पोलैंड का राशन हर तरफ से रोक दिया गया था और उनके पास बाजरे की बड़ी मात्रा थी. बाजरे को साफ़ करने का समय किसी के पास नहीं था, तो उसका सूप बनाकर दे दिया जाता और खाने वाले को मुंह में आने वाले छिलके वगैरह को थूकते रहना पड़ता. पोलैंड और जर्मनी भले ही दुश्मन रहे हों, लेकिन दोनों की जनता ने युद्ध की मार झेली. जर्मनी में लकड़ी के बुरादे का केक बनाकर खाने की नौबत आई. जर्मन रेसिपी के मुताबिक, मोटे अनाज और चुकंदर से बनी ब्रेड में चौथाई हिस्सा लकड़ी का बुरादा और महीन पिसा भूसा मिलाया जा सकता है.
एक बार कल्पना करके देखिए कि नायकों की कथित महानता को पूरा करने में पीढ़ियों को किस जीवनशैली से गुज़रना पड़ा. कहावत है कि ये दुनिया अराजकता से 2 वक्त के खाने की दूरी पर है. मतलब, दो वक्त तक पूरी दुनिया को खाना न मिले, तो पृथ्वी पर अराजकता फैल जाएगी. इसी तरह जब पूरी दुनिया युद्ध की अराजकता में झुलस रही हो, तो खाना कैसे मिल रहा था. भोजन और रसद युद्ध की खास ज़रूरत है. इतिहास मे पानीपत जैसे युद्ध भी हुए हैं, जहां अब्दाली के सामने मराठों की हार का बड़ा कारण रसद न मिलना भी था. और आधुनिक दुनिया में ताकतवर देश आपूर्ति नियंत्रण के लिए तमाम हथकंडे अपनाते हैं. कोरोना की वैक्सीन को ही देखिए. तमाम ताकतवर देशों ने कई गुना वैक्सीन स्टोर कर ली और अफ़्रीका जैसे देशों को ओमिक्रॉन का सामना करना पड़ा. इसलिए, आराम कुर्सी पर बैठकर मोबाइल ऐप से बर्गर या बिरयानी ऑर्डर करते हुए सोशल मीडिया पर यूक्रेन और रूस का जानकार बनना आसान है, लेकिन समझदारी इसी में है कि दुनिया में कोई युद्ध न हो.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)