दिल्ली और करौली में हुए दंगों के लिए जिम्मेदार कौन? गृह मंत्रालय की चिट्ठी में छिपा है इसका जवाब
पहले हिंदू नववर्ष फिर रामनवमी और फिर हनुमान जयंती, देश में 3 बड़े त्योहारों का जश्न दंगों और हिंसा की भेंट चढ़ गया। 15 दिनों के अंदर 9 राज्यों में एक के बाद एक हुई सांप्रदायिक हिंसा की खबरों ने पूरे देश का माहौल खराब किया। जिसके बाद प्रशासन ने कथित आरोपियों के घर पर बुलडोजर चलाकर ऑनस्पॉट न्याय देने का रास्ता अपनाया है, जिसको लेकर अब सवाल खड़े हो रहे हैं।
……में जानते हैं कि किसी क्षेत्र में दंगा रोकने की जिम्मेदारी किसकी होती है? क्या कहती है गृह मंत्रालय की पुरानी चिट्ठी और अधिकारियों के अनुभव?
दंगा क्या है और रोकने की जिम्मेदारी किसकी है?
भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 146 में दंगा को परिभाषित किया गया है। इसमें बताया गया है कि-
- दो या दो से ज्यादा व्यक्तियों के बीच होने वाली लड़ाई ,जिससे समाज में शांति भंग हो रही हो वह दंगा कहलाता है। इस तरह की कोई लड़ाई जिसमें बल प्रयोग हुआ हो तो चाहे वह जाति अधारित हो या धर्म अधारित हो या फिर समुदाय आधारित वह ‘दंगा’ कहलाता है।
- देश में दंगा या सांप्रदायिक हिंसा होने की स्थिति में ‘राज्य सरकार’ के पास अधिकार है कि वह उस क्षेत्र को ‘सांप्रदायिक रूप से अशांत’ घोषित कर वहां शांति बहाल करने की कोशिश करे। इसके लिए स्थानीय स्तर पर तैनात मजिस्ट्रेट जरूरत के हिसाब से फैसला लेते हैं।
आखिर ऐसा क्या हुआ कि गृह मंत्रालय को लिखनी पड़ी चिट्ठी?
गृह मंत्रालय ने चिट्ठी में क्या और क्यों लिखा इसे जानने से पहले 2002 के गुजरात दंगे के बैकग्राउंड को थोड़ा जान लेना जरूरी है। दरअसल, 27 फरवरी 2002 के दिन सुबह 7 बजकर 43 मिनट पर साबरमती एक्सप्रेस गुजरात के गोधरा स्टेशन पर पहुंची थी। इस ट्रेन की S6 बोगी अयोध्या से लौट रहे श्रद्धालुओं से भरी थी।
तभी कुछ दंगाइयों ने इस बोगी के दरवाजे बंद कर उसमें आग लगा दी। इस घटना में 23 पुरुष, 15 महिलाएं और 20 बच्चों सहित 58 लोगों की मौत हुई थी। घटना के बाद गुजरात के कई हिस्सों में दंगा भड़का, जिसमें करीब 1200 लोग मारे गए। इस दंगे के बाद 2002 में ही गृह मंत्रालय ने सभी राज्यों को एक चिट्ठी लिखी।
गृह मंत्रालय ने चिट्ठी में बताया दंगों के लिए कौन जवाबदेह?
इस चिट्ठी में गृह मंत्रालय ने राज्य सरकार और अधिकारियों से एक सवाल पूछा था कि आखिर क्यों पुलिस-प्रशासन दंगों को रोकने में फेल हो रहा है? इसके साथ ही चिट्ठी में मंत्रालय ने साफ कर दिया कि हर जिले के जिलाधिकारी और SSP दंगों के लिए जवाबदेह होंगे।
इस चिट्ठी में साफ किया गया कि जिले में तैनात ये दो अधिकारी दंगे को बढ़ने से रोकने में विफल रहने, लापरवाह बरतने या किसी धर्म का पक्ष लेने के आरोप में पकड़े जाते हैं तो उन्हें दंड का सामना करना पड़ेगा। उनके खिलाफ विभागीय और अनुशासनात्मक कार्रवाई भी की जाएगी।
2 घटनाएं जब जिलाधिकारी ने शहर को दंगों की आग में जलने से रोक दिया
अब दो ऐसी घटनाओं की बात जब जिलाधिकारी ने अपनी सूझबूझ और कानून को आधार बनाकर शहर को दंगों की आग में जलने से बचा लिया था।
पहली घटना- 1990 में राममंदिर आंदोलन के दौरान देश भर में दंगे हो रहे थे। इस वक्त UP के लखीमपुर खीरी में अनिल स्वरूप बतौर जिलाधिकारी तैनात थे। इस दौरान जिले में धारा 144 लागू थी। आपसी दुश्मनी में एक शख्स के मर्डर की घटना के बाद राजनीतिक दल इसे धार्मिक रंग देना चाहते थे।
पूर्व जिला अधिकारी अनिल स्वरूप बताते हैं कि जैसे ही उन्हें इसका पता चला, वह मौके पर पहुंचे। इसके बाद उन्होंने शवयात्रा निकालने की जिद पर अड़े नेता को गिरफ्तार कर पूरे शहर में कर्फ्यू लगा दिया। इस तरह शहर को दंगों की आग में जलने से बचा लिया।
दूसरी घटना- 30 सितंबर 1989 को खरगोन में राम मंदिर आंदोलन से जुड़े एक कार्यक्रम का आयोजन होना था। बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद ने इस कार्यक्रम का आयोजन किया था। इस मौके पर हजारों की संख्या में लोग हाथ में झंडा लिए नारा लगाते हुए शहर में घूम रहे थे। तभी मास्क पहने बाइक सवार 2 लड़कों ने चाकू से हमला कर दो हिंदू लड़कों को घायल कर दिया।
इसकी सूचना मिलते ही तब के जिलाधिकारी हर्ष मंदर ने एसपी राम निवास के साथ मिलकर पूरे क्षेत्र में कैंप किया। रातों-रात चाकू मारने वाले दोनों आरोपियों के अलावा सैकड़ों लोगों को पुलिस ने हिरासत में लिया। इसके बाद दोनों धर्मों और सभी राजनीतिक दल के लोगों के साथ प्रशासन ने बातचीत की।
सुबह होते ही 25 हजार हिंदुओं की भीड़ शहर में जमा होकर एक मार्च निकालने की मांग प्रशासन से कर रही थी। हर्ष मंदर लिखते हैं कि इस भीड़ को रोकना बारूद में चिंगारी मारने जैसा हो सकता था, इसलिए दूसरे जिलों से पुलिस फोर्स की मदद लेकर मार्च निकालने की अनुमति दी गई। सबकुछ ठीक-ठाक रहा। इस तरह शहर को दंगे की आग में जलने से बचा लिया गया।
राजस्थान, MP से दिल्ली तक क्या प्रशासन से हुई एक जैसी चूक?
2 अप्रैल को राजस्थान के करौली में हिंदू नववर्ष के मौके पर दो समुदायों के बीच हिंसा की घटना घटी। इसके बाद एक-एक कर 15 दिनों के अंदर देश के 9 राज्यों में 10 अलग-अलग मौकों पर सांप्रदायिक हिंसा हुई। इन घटनाओं की क्रोनोलॉजी को देखें सभी घटनाएं एक तरह से हुई हैं। 10 में से 8 घटनाएं धार्मिक जुलूस या रैली निकालते समय हुई है। इन सभी घटनाओं की जानकारी पुलिस को थी लेकिन सतर्कता के अभाव में घटना अनकंट्रोल हो गई।
तीन बड़ी घटनाओं में इस तरह की समानता रही-
करौली: करौली में ‘फूटा कोट’ और ‘हटवाड़ा’ बाजार मुस्लिम बहुल इलाका है। जिला प्रशासन को 250 बाइकों के साथ इस इलाके में रैली निकाले जाने की पहले से जानकारी थी। इसके बावजूद रैली की जगहों पर शुरुआत में केवल 50 से 60 पुलिस वालों को तैनात किया गया था। रैली शाम 4 बजे शुरू हुई और माहौल तब बिगड़ना शुरू हुआ जब कुछ लोगों ने भड़काऊ गाने चलाए। इसके बदले में छतों से पथराव शुरू हुआ। जिसके बाद आगजनी हुई और दंगा शुरू हो गया। कम पुलिस फोर्स होने की वजह से हालात हाथ से निकले।
खरगोन: खरगोन में तालाब चौक मुस्लिम बहुल इलाका है। इस इलाके में स्थित जामा मस्जिद के सचिव के मुताबिक, प्रशासन को पहले से बताया गया था कि एरिया सेंसेटिव है इसलिए रैली का दूसरा रास्ता रखा जाना चाहिए। माहौल तब खराब होना शुरू हुआ जब यह अफवाह फैली कि पुलिस ने ‘तालाब चौक’ पर हनुमान जयंती पर निकली यात्रा को रोका गया। इसी अफवाह के चलते एक दूसरी यात्रा भी इसी रास्ते पर आ गई। तब तक नमाज का वक्त होने से दोनों समुदायों के लोग आपस में टकरा गए। इसी दौरान माहौल हिंसक हुआ।
जहांगीरपुरी: दिल्ली के जहांगीरपुरी इलाके में हनुमान जयंती के दिन शाम करीब साढ़े 4 बजे शोभा यात्रा निकल रही थी। इस यात्रा को K ब्लॉक तक जाना था, लेकिन सवा 6 बजे जब ये शोभा यात्रा C ब्लॉक में पहुंची। तभी मामूली झड़प हुई और ये झड़प हिंसा में बदल गई। पुलिस के मुताबिक, मस्जिद के पास दो पक्षों में बहस हुई, जिसके बाद मस्जिद से पथराव शुरू हो गया। फिर हिंसा भड़क गई। फायरिंग तक हुई। नकाबपोश आए। शोभा यात्रा के पीछे से अचानक हजारों की संख्या में भीड़ आई। इतने संख्या में भीड़ से निपटने के लिए पुलिस कम पड़ गई।
पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह ने इन घटनाओं को पुलिस की विफलता बताया
यूपी के पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह का कहना है कि इन घटनाओं में पुलिस-प्रशासन पूरी तरह से फेल रही है। जहां-जहां दंगे हुए वहां न सिर्फ पुलिस की संख्या कम थी बल्कि मॉनिटरिंग के लिए टेक्नोलॉजी भी इस्तेमाल नहीं किया गया।
ऐसा लगता है कि पुलिस-प्रशासन दंगाईयों को दावत दे रही थी कि आओ दंगा करो। इन सभी रैलियों के निकलने की जानकारी ऑफिशियल या नॉनऑफिशियल तरीके से प्रशासन के पास थी। इसके बावजूद हिंसा को रोक पाने में प्रशासन पूरी तरह से विफल रही है।
दंगा रोकने में नेताओं और जनप्रतिनिधियों की क्या जिम्मेदारी है?
- 2002 गुजरात दंगा के बाद गृहमंत्रालय के अंदर आने वाली दो संस्था ‘नेशनल इंटीग्रेशन काउंसिल’ और ‘नेशनल फाउंडेशन फॉर कम्युनल हार्मनी’ ने मंत्रालय से अपील की थी कि कहीं दंगा फैलता है तो उसके लिए जवाबदेह सबसे पहले वहां के जनप्रतिनिधियों को माना जाना चाहिए। हालांकि, संस्थाओं की इस अपील को मानने से गृहमंत्रालय ने इनकार कर दिया था।
- इसके बाद 2008 में धार्मिक हिंसा या दंगों के पीछे राजनीति को जिम्मेदार ठहराए जाने की बात को ध्यान में रखकर भारत सरकार ने एक दिशा-निर्देश जारी किया। जून 2008 में दंगों को लेकर जारी इस दिशा-निर्देश में गृहमंत्रालय ने दंगा रोकने के लिए पुलिस को नेता और जनप्रतिनिधि के साथ मिलकर काम करने के लिए कहा।
- मंत्रालय ने प्रशासन को निर्देश देते हुए कहा कि इन सभी जिम्मेदार लोगों के साथ बैठकर शांति बनाए रखने का प्रयास होना चाहिए। यही नहीं मंत्रालय ने यह भी कहा था कि महिलाएं दंगा रोकने में अहम भूमिका निभा सकती हैं। ऐसे में महिला नेताओं का संगठन तैयार कर उन्हें क्षेत्र में शांति बनाए रखने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
दंगों के बाद प्रशासन की भूमिका पर सवाल खड़ा होना नया नहीं
देश में दंगों को रोकने में प्रशासन की विफलता को लेकर सवाल खड़ा होना कोई नई बात नहीं है। देश में पहला बड़ा दंगा अगस्त 1893 में बंबई में हुआ था, जिसमें लगभग सौ लोग मारे गए थे और 800 घायल हुए थे। इसके बाद 1921 से 1940 के बीच देश में कई बड़ी सांप्रदायिक घटनाएं घटी। इनमें बड़ा दंगा मुहर्रम के मौके पर कलकत्ता में 1926 में हुआ, जिसमें 28 लोगों की मौत हुई।
इन घटनाओं को रोकने में पूरी तरह से असफल होने के आरोप ब्रिटिश पुलिस पर लगे थे। हालांकि, 1947 के बाद से भारत का इतिहास हिंदू-मुसलमानों के बीच कई खूनी दंगों से भी प्रभावित हुआ है। 1969 में गुजरात में दंगा, 1979 में जमशेदपुर और अलीगढ़ दंगा, 1980 में मुरादाबाद में हुए दंगे कुछ ऐसे ही उदाहरण हैं। इन तीनों घटनाओं की जांच के बाद आयोग ने राज्य प्रशासन और पुलिस को सांप्रदायिक अशांति फैलने से रोकने में असफल माना था। साथ ही पुलिस और प्रशासन की भूमिका को एक धर्म के पक्ष में बताया था।