सरकारों में आपसी विश्वास की खाई बढ़ने का एक कारण केंद्रीय प्रवर्तन एजेंसियों की सक्रियता भी
केंद्र और राज्य प्रतिकार की राजनीति में उलझे हैं और आरोप-प्रत्यारोपों का दौर चलता रहता है। पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री तमिलनाडु में थे। यह देश के उन कुछ चुनिंदा राज्यों में से है, जहां अभी तक भाजपा का विजयरथ नहीं पहुंचा है। वास्तव में जब भी प्रधानमंत्री तमिलनाडु जाते हैं तो सोशल मीडिया में उनके विरुद्ध गो-बैक का अभियान चलने लगता है।
यही कारण था कि जब मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने प्रधानमंत्री की मौजूदगी में केंद्र को चेताया कि उनके राज्य पर हिंदी थोपने की कोशिश न की जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। वैसे भी तमिल भाषा द्रविड़ पहचान के मूल में है और उसके महत्व को रेखांकित करते हुए द्रमुक नेता दिल्ली और चेन्नई के बीच लम्बे समय से चले आ रहे टकराव की एक सुनिश्चित लक्ष्मणरेखा ही खींच रहे थे। इस भाषाई-टकराव का रोचक इतिहास है।
दक्षिण के राज्य एक अरसे से हिंदी के वर्चस्व का विरोध करते आ रहे हैं। वहीं भाजपा को आज भी हिंदी-पट्टी की पार्टी माना जाता है। भाजपा भले ही हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान के अपने नैरेटिव पर समय के साथ कम बल देना चाहे, लेकिन विन्ध्य पर्वतमाला के नीचे स्थित दक्षिणी-राज्यों की लम्बे समय से यही धारणा रही है कि वह उत्तर-भारतीयों की पार्टी है।
तमिलनाडु जैसे राज्य के एक आर्थिक ताकत के रूप में उभरने से उसमें अपनी विशिष्ट क्षेत्रीय अस्मिता के प्रति एक आत्मविश्वास पैदा हुआ है। लेकिन यहां हम चिर-परिचित उत्तर बनाम दक्षिण की बात नहीं कर रहे, यहां केंद्र बनाम राज्यों के टकराव को रेखांकित किया जा रहा है। इस टकराव के अनेक रूप हैं- राजस्व साझा करने के फॉर्मूले से लेकर प्रशासनिक नियंत्रण और ऑल इंडिया नीट मेडिकल एग्जाम पर हुए विवाद तक।
हाल ही में जब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अनेक करों में छूट की घोषणा की और राज्यों से भी ऐसा करने का आग्रह किया तो अनेक राज्य सरकारों ने इससे इनकार कर दिया। राज्य सरकारें नहीं चाहती थीं कि केंद्र सार्वजनिक एडवाइजरी जारी करके उन्हें उनकी कर-संरचनाओं के बारे में दिशानिर्देश दे। वे जीएसटी से पहले ही नाराज हैं, जिसने उनकी वित्तीय-स्वायत्तता को बाधित कर दिया है और राजस्व-संग्रह के अपने संवैधानिक अधिकार से वंचित कर दिया है।
राज्यों को लगता है कि यह संघीय ढांचे के अनुरूप नहीं था। इस केंद्र बनाम राज्य संघर्ष का एक और आयाम है भाजपा बनाम गैर-भाजपा शासित राज्य। चुनावों के दौरान भाजपा नेताओं द्वारा अकसर ‘डबल-इंजिन’ की सरकार के लिए वोट देने की मांग की जाती है। इससे अपने आप भाजपा और विपक्षी सरकारों वाले राज्यों के बीच एक अंतर्विरोध की स्थिति निर्मित हो जाती है। कोविड-कंट्रोल के लिए मुख्यमंत्रियों के साथ हुई बैठकों के दौरान ‘हम बनाम वो’ की यह भावना गहराती देखी गई।
वैक्सीन सर्टिफिकेट पर प्रधानमंत्री की छवि देखकर भी ताकतवर मुख्यमंत्री नाराज होते हैं। केंद्र-राज्यों के बीच बढ़ते टकराव से केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग के आरोप से लेकर अधिकारियों की नियुक्तियों और तबादलों में मतभेद तक की स्थितियां निर्मित होती रहती हैं। बंगाल इसका क्लासिक उदाहरण है, जहां मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बीच रोज होने वाला टकराव इस सीमा तक पहुंच गया है कि अब वहां शक्तियों के संवैधानिक विभाजन का भी सम्मान नहीं किया जाता।
दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की सरकार को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। हाल ही में जब प्रधानमंत्री ने महाराष्ट्र और तेलंगाना की यात्राएं की तो उनके मुख्यमंत्रियों उद्धव ठाकरे और केसीआर ने उनसे दूरी बनाए रखी। आपसी विश्वास की खाई बढ़ने का एक कारण केंद्रीय प्रवर्तन एजेंसियों की विपक्षी राज्यों में अति-सक्रियता भी है। लगभग सभी विपक्षी मुख्यमंत्री और उनके सहयोगी आज ईडी की निगरानी में हैं। झारखंड के हेमंत सोरेन इसमें सबसे नया नाम हैं।
केंद्र और राज्यों के बीच चल रहे शक्ति-प्रदर्शन से देश को नुकसान हो रहा है। यह भारत जैसे बहुदलीय और संघीय ढांचे वाले देश के लिए ठीक नहीं है। राज्यों के मुख्यमंत्री दिल्ली के साथ समन्वय में नहीं हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)