ठोस और निश्चित कानूनों से ही बनेगा एक नया भारत
केंद्र सरकार ने दिसंबर 2016 में पत्र और अप्रैल 2017 में गाइडलाइन जारी करके होटल और रेस्तरां में सर्विस चार्ज वसूली को अवैध बताया था। तत्कालीन मंत्री रामविलास पासवान ने एयरपोर्ट और मॉल जैसी जगहों पर पानी की बोतल को एमआरपी से ज्यादा दाम पर बेचे जाने को गलत बताया था। लेकिन आज छह साल के बाद भी सरकारी महकमा इस अवैध वसूली को रोकने में विफल साबित हो रहा है।
कानून की भूलभुलैया में घुसने से पहले इस मामले में जनता से जुड़े पक्ष को समझना जरूरी है। बड़े होटल या रेस्तरां में खाने-पीने के बिल में जीएसटी के सरकारी टैक्स के साथ 10 से 20% का प्राइवेट सर्विस चार्ज मनमाने तरीके से जोड़ा जा रहा है। इस बारे में ग्राहकों को ज्यादा जानकारी नहीं है। कुछ लोग गलतफहमी में सरकारी सर्विस टैक्स समझकर इसका भुगतान कर देते हैं।
आलीशान होटलों के वैभव से आतंकित ग्राहक कई बार सर्विस चार्ज के साथ एक्स्ट्रा टिप भी दे देते हैं। धोखे से वसूले जा रहे इस सर्विस चार्ज पर जीएसटी की रकम भी जोड़ी जाती है। यह सरकारी खजाने में जाती है या मालिकों के खजाने में, यह एक अलग जांच का विषय है। केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल का कहना है कि मेनू में दिए गए खाने-पीने के सामान के दाम बढ़ाकर होटल वाले उस रकम से स्टाफ-कल्याण कर सकते हैं। लेकिन रेस्तरां संगठनों का कहना है कि सर्विस चार्ज लगाना कानून के तहत अवैध नहीं है।
इसका मतलब यह है कि वे लोग सरकारी गाइडलाइंस मानने को तैयार नहीं हैं। इस विवाद की तह में जाने पर देश में कानून की दोहरी व्यवस्था उजागर होती है, जो असंवैधानिक होने के साथ आमजन के लिए यातनापूर्ण भी है। अंग्रेजों ने ब्रिटिश-राज और औपनिवेशिक मुनाफे को कायम रखने के लिए हिंदुस्तानियों को कानून के मकड़जाल और कठोर दंड की दहशत में फंसाया था।
पिछले 30 सालों से चल रहे उदारीकरण के बाद बड़े व्यापार, उद्योग-धंधे आदि लाइसेंस के साथ कानून के दायरे से मुक्त हो गए, लेकिन आम जनता को परंपरागत कानूनों की बेड़ियों से मुक्त करने के नाम पर थोथे आश्वासन ही मिले। छोटी-छोटी बातों पर बुलडोजर, राजद्रोह की एफआईआर, फर्जी एनकाउंटर आदि से जाहिर है आम जनता के लिए ब्रिटिश कानूनी सिस्टम बेखौफ जारी है।
सरकारी अधिकारी, विदेशी निवेशक और बड़ी कंपनियों को एडवाइजरी की आड़ में कानून के दायरे के बाहर रखने का यत्न हो रहा है। डेटा सुरक्षा के बारे में सरकार ने कानून नहीं बनाया, लेकिन उसकी बिक्री और वितरण को आसान बनाने के लिए गाइडलाइंस जारी कर दीं। कानूनी बंदिशें नहीं होने से फंतासी गेम और ऑनलाइन सट्टेबाजी का बाजार दिन दूना रात चौगुना बढ़ रहा है।
देश की एक तिहाई अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाले ई-कॉमर्स, ई-वेस्ट, फैंटेसी गेम, क्रिप्टो करेंसी, सोशल मीडिया, ड्रोन, स्टार्टअप आदि की फंडिंग के बारे में ठोस कानूनों के बजाय सिर्फ एडवाइजरी, प्रेस नोट या एफएक्यू के जुगाड़ से काम चलाने की कोशिश हो रही है। महत्वपूर्ण क्षेत्रों में एडवाइजरी से बड़े खिलाड़ी अपराध और सजा के दायरे में आने से बच जाते हैं। कानून को ऐसे समझें, जैसे कि मास्टर प्लान के माध्यम से किसी शहर का सुनियोजित विकास।
जबकि एडवाइजरी और गाइडलाइन पोटा सिस्टम की तरह अराजक और जुगाड़ू होते हैं। कानून का सही राज नहीं होने की वजह से गरीबी, असमानता, लालफीताशाही, भ्रष्टाचार के साथ बेरोजगारी बढ़ रही है। एडवाइजरी के सिस्टम में अफसरों की मनमाफिक व्याख्या से ईज ऑफ डुइंग का माहौल गड़बड़ाता है। नतीजतन रईसों के साथ युवा टैलेंट देश से बाहर पलायन कर रहा है।
मानवाधिकार आयोग के हालिया नोटिस से मिलेनियम सिटी गुरुग्राम के अरावली क्षेत्र में कचरे के नए पहाड़ के बारे में लोगों को पता चला है। ऐसे जानलेवा मामलों पर जवाबदेही से बचने के लिए एडवाइजरी और गाइडलाइंस जारी हो जाती हैं। दूसरी तरफ दिल्ली में मच्छर का लार्वा मिलने पर पुराने कानूनों की आड़ में लोगों को मजिस्ट्रेट के सामने पेश होना पड़ता है।
सतही मामलों पर एक तरफ आम जनता के लिए कानून की बेड़ियां हैं। दूसरी तरफ धनाढ्य और शासक वर्ग के लिए एडवाइजरी की मनमौजी व्याख्या का स्कोप। इससे लोकहित के साथ कानून के शासन की अनदेखी होती है। एडवाइजरी के तदर्थवाद और उससे उपजे विरोधाभासों को खत्म करने के लिए सरकार के साथ विधायिका को भी बड़े कदम उठाने होंगे।
हेट स्पीच, एससी-एसटी, महिला सुरक्षा आदि पर कानून हैं और क्रियान्वयन हेतु सरकारें एडवाइजरी जारी करती हैं। पर जिन विषयों पर कानून ही नहीं, उन पर एडवाइजरी जारी करने से क्या होगा?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)