संवैधानिक प्रावधानों की तरफ ध्यान देने का समय
एनडीए ने राष्ट्रपति चुनाव के लिए अपना उम्मीदवार आदिवासी महिला द्रोपदी मुर्मू को बनाया है। इसके साथ ही आदिवासियों से जुड़े मुद्दे एक बार फिर से सुर्खियों में आ रहे हैं। भारत के आदिवासियों, जिनकी आबादी देश की कुल जनसंख्या का 8.2 फीसद है, को मुख्यत: तीन समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है। पहले समूह में ऐसे लोग हैं, जो इंडो-आर्यन के आने से पहले यहां रहते थे। कई मानवविज्ञानी इन्हें ऑस्ट्रो-एशियाई भाषा बोलने वाले ऑस्ट्रेलियाड कहते हैं। मध्य भारत में रहने वाले आदिवासी इसी समूह के हैं। इतिहासकार निहार रंजन रे ने मध्य भारतीय आदिवासियों को ‘भारत के मूल निवासियों’ के रूप में वर्णित किया है।
अन्य दो बड़े समूह उत्तर भारत एवं पूर्वोत्तर क्षेत्रों के काकेशोइड (मानव जाति के कथित नस्लीय समूह से संबंधित गहरे रंग की त्वचा, सीधे घुंघराले बाल और बहुत गहरी आंखों वाले) और चीनी-तिब्बती या मंगोल हैं। स्पष्टत: सभी अनुसूचित जनजाति के लोग आदिवासी नहीं हैं। सरकार ने अनुसूचित जनजातियों के रूप में 573 समुदायों को सूची में रखा है और वे विशेष लाभ हासिल करने, विधायिकाओं, सरकार, विश्वविद्यालयों और स्कूलों में आरक्षित सीटों के लिए हकदार हैं। ज्यादातर लाभ गैर-आदिवासियों के हिस्से में गया है। दुर्भाग्य से, पूरी दुनिया में देशज लोगों की तरह ही, भारत के आदिवासियों को भी अधिक ‘सभ्य’ होने का दावा करने वाले लोगों द्वारा तबाह किया गया है। ऐसे लोग अब सर्वाधिक वंचित और उत्पीड़ित हैं। आदिवासी समूहों में सबसे ज्यादा आबादी गोंड लोगों की है। इनकी आबादी लगभग 7.4 मिलियन है। इसके बाद संथालों का नम्बर आता है। उनकी आबादी लगभग 4.2 मिलियन है। जनजातियों की सबसे ज्यादा आबादी मध्य भारत में है। कुल मिलाकर देखा जाए तो कुल जनजातीय जनसंख्या का 75 फीसद से ज्यादा यहां रहता है। ये आदिवासी अपनी गृहभूमि में ही कष्टमय जीवन काट रहे हैं।
परम्परागत आदिवासियों के क्षेत्र में अन्य बाहरी लोगों का आना लगातार जारी है। इसके बावजूद भारत में अभी भी 332 जनजातीय बाहुल्य तहसीलें हैं, जिनमें से 110 पूर्वोत्तर में हैं। इसी तरह से आदिवासी बाहुल्य 222 तहसीलें है जहां की आबादी दो करोड़ से ज्यादा है। दूसरे शब्दों में, मध्य भारतीय आदिवासी आबादी का लगभग एक तिहाई। संविधान के अनुच्छेद 244 के तहत पांचवीं और छठी अनुसूचियों में निर्दिष्ट आदिवासी बहुल क्षेत्रों में स्वशासन का प्रावधान है। पांचवीं अनुसूची में 9 राज्यों- आंध्र प्रदेश, झारखंड, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और राजस्थान के जनजातीय क्षेत्रों को शामिल किया गया है। पांचवीं अनुसूची अनुसूचित क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी लोगों को उनकी भूमि और प्राकृतिक संसाधनों को गैर-आदिवासियों को हस्तांतरित करने के मामले में संरक्षण देती है। इस संवैधानिक संरक्षण पर अब संशोधन के जरिए आदिवासियों की भूमि को गैर-आदिवासियों और कॉर्पोरेट्स को औपचारिक रूप से हस्तांतरित करने का खतरा मंडरा रहा है। यह कदम लाखों जनजातीय लोगों के अस्तित्व और उनकी संस्कृति के लिए गंभीर निहितार्थ लिए है। 1999 में सरकार ने जनजातीय लोगों के विकास के लिए राष्ट्रीय नीति का मसौदा जारी किया। शिक्षा, वानिकी, स्वास्थ्य सेवा, भाषा, पुनर्वास और भूमि अधिकारों पर विशेष बल दिया गया। यह मसौदा अभी मसौदा ही है। यानी इनके लिए कोई नीति ही नहीं है। एनडीए की पहली सरकार ने जनजातीय मामलों के लिए मंत्रालय की स्थापना की। ओडिसा के आदिवासी नेता जोएल ओरम मंत्री बने। भले ही बिहार और मध्य प्रदेश से अलग कर झारखंड और छत्तीसगढ़ को अलग राज्य बना दिया गया है, लेकिन आदिवासियों की संस्कृति, जीवन शैली और उनकी जरूरत के मुद्दों पर खास ध्यान नहीं दिया गया।
संविधान में किए वादों के विफल रहने के बाद भी बहुत कुछ संयोग से मिला है, लेकिन मूल प्रतिज्ञाओं को अभी भी पूरा किया जाना बाकी है। संविधान में प्रावधान है कि सभी आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों को प्रशासनिक विभागों में समेकित किया जाना चाहिए, जिनके अधिकार लोकतांत्रिक रूप से चुने गए संस्थानों में निहित हों। ऐसे में इन निकायों को आदिवासी महा-पंचायत कहा जा सकता है। राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित कानूनों को महा-पंचायत को प्रमाणित करना चाहिए। शिक्षा, स्वास्थ्य, सिंचाई, सड़क और भूमि से सम्बंधित रेकॉर्ड्स स्थानीय सरकारी संरचनाओं को सौंपे जाने चाहिए।
कई विरोधाभास भी हैं, जिनसे निपटने की सबसे पहले जरूरत है। संभवत: अब पहले की इंडियन फ्रंटियर एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस की तरह आदिवासियों की मातृभूमि की सेवा को समर्पित नई अखिल भारतीय सेवा के गठन का वक्त आ गया है।