मुफ्त की ‘रेवड़ी’ खराब तो मुफ्त की ‘गजक’ अच्छी कैसे?

सामयिक: बैंकों के बट्टे खाते में डाले गए ऋणों पर कब होगी चर्चा
मुफ्त की ‘रेवड़ी’ खराब तो मुफ्त की ‘गजक’ अच्छी कैसे?

जुलाई की 16 तारीख को प्रधानमंत्री ने युवाओं को मुफ्त की ‘रेवड़ी कल्चर’ से सतर्क रहने का आह्वान किया। यही नहीं, उन्होंने कहा कि यह देश के विकास के लिए हानिकारक है। अब सवाल यह उठता है कि मुफ्त की ‘रेवड़ी’ खराब तो मुफ्त की ‘गजक’ अच्छी कैसे? रेवड़ी बनाने के लिए तिल, गुड़, चाशनी और घी के रोल के छोटे-छोटे टुकड़े काटे जाते हैं। गजक बनाने की भी प्रक्रिया यही है पर फर्क सिर्फ इतना है कि गजक बनाने के लिए तेल, गुड़, चाशनी और घी के मिश्रण के बड़े-बड़े टुकड़े काटे जाते हैं अर्थात गजक के बड़े टुकड़े के मिश्रण में सैकड़ों रेवड़ियां बनाई जा सकती हैं।

2013 में सर्वसम्मति से संसद में खाद्य सुरक्षा कानून पारित किया गया था। यह इस बात को दर्शाता है कि 2009 के आम चुनावों में लगभग सभी मुख्य राजनीतिक दलों ने इसे अपने चुनावी वादों में सम्मिलित किया था। खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 का ही आधार था कि मौजूदा सरकार ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत 80 करोड़ देशवासियों को कोरोना महामारी के दौरान मुफ्त राशन वितरित किया। अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून सरकार को किसानों से खाद्यान्न न्यूनतम समर्थन मू्ल्य (एमएसपी) पर खरीदने के लिए भी बाध्य करता है। तो यदि 80 करोड़ देशवासियों (लगभग 60% जनसंख्या) को महामारी के दौरान खाद्यान्न वितरण व किसानों से वही खाद्यान्न एमएसपी पर खरीदना मुफ्त की ‘रेवड़ी कल्चर’ है तो पिछले 5 वर्षों में बैंकों द्वारा 9.92 लाख करोड़ रुपए (लगभग 10 लाख करोड़ रुपए) बट्टे खाते में डालना मुफ्त की ‘गजक कल्चर’ क्यों नहीं? इस ‘गजक कल्चर’ पर देश में विमर्श क्यों नहीं होता?

पिछले 5 वर्षों में बैंकों द्वारा जो 9.92 लाख करोड़ रुपए के ऋण को बट्टे खाते में डाला गया उसमें से 7.27 लाख करोड़ रुपए सरकारी बैंकों का हिस्सा है। समझना होगा कि ऋण को बट्टे खाते में डालना (राइट ऑफ) व ऋण माफी (वेवर) में फर्क होता है। बट्टे खाते में ऋण को डालने के बाद भी बैंक वसूली का प्रयास करते रहते हैं और ऐसे ऋणों को उधार लेने वाला चुकाने के लिए उत्तरदायी रहता है पर ऋण माफी में बैंक अपने वसूली संबंधी सभी अधिकारों का त्याग कर देते हैं। संसद में दिए गए जवाब में सरकार ने माना कि पिछले 5 वर्षों में सरकारी बैंकों ने बट्टे खाते में डाली गई राशि में से मात्र 1.03 लाख करोड़ रुपए वसूले यानी पिछले 5 सालों में सरकारी बैंकों ने जितने रुपए बट्टे खाते में डाले, वसूली मात्र उसकी 14% हुई। यदि हम यह भी मान लें कि आने वाले समय में बट्टे खाते में डाले गए ऋण से वसूली बढ़कर 20% हो जाएगी तब भी 5.8 लाख करोड़ रुपए का ऋण तो सरकारी बैंकों का डूब ही गया। यहां यह बात महत्त्वपूर्ण है कि यदि सरकारी बैंकों का ऋण डूबता है तो देश के करदाताओं का पैसा डूबता है। तो 5.8 लाख करोड़ रुपए के रूप में बांटी गई ‘गजक’ की चर्चा कब होगी?

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा), 2005 हर ग्रामीण परिवार को एक वित्तीय वर्ष में न्यूनतम 100 दिनों के रोजगार की गारंटी देता है। लॉकडाउन के दौरान जब करोड़ों लोग शहरों से अपने गांवों की तरफ पलायन के लिए बाध्य हुए, तब मनरेगा से ही लोगों को रोज़गार मिला। मई 2022 में भी 3.07 करोड़ परिवारों ने मनरेगा के तहत रोजगार की मांग की थी। यह कानून ग्रामीण भारत में गरीबी और भुखमरी को दूर करने में मदद करता है। इसके बावजूद सरकार ने मौजूदा वित्तीय वर्ष में मनरेगा के लिए आवंटन को घटाकर 73,000 करोड़ रुपए कर दिया। यदि यह मुफ्त की ‘रेवड़ी’ है तो 2019 में सरकार द्वारा दी गई कॉरपोरेट टैक्स दरों में कटौती मुफ्त की ‘गजक’ क्यों नहीं? 2019 की इन कॉरपोरेट आयकर दरों में कमी से सरकार को प्रति वर्ष लगभग 1.45 लाख करोड़ रुपए का कर कम मिलता है। यह मौजूदा वित्तीय वर्ष में मनरेगा बजट का दो गुना है। यदि खाद्य सुरक्षा कानून, किसानों को एमएसपी, मनरेगा जैसी योजनाएं मुफ्त की ‘रेवड़ी’ में आती हैं और देश में उस पर व्यापक चर्चा हो रही है तो पिछले 5 वर्षों में सरकारी बैंकों को ऋणों को बट्टे खाते में डालने से 5.8 लाख करोड़ रुपए का नुकसान और सरकार को कॉरपोरेट टैक्स दरों में कटौती से प्रति वर्ष 1.45 लाख करोड़ रुपए के नुकसान रूपी ‘गजक’ पर चर्चा व विमर्श कब होगा?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *