यूं तो लखनऊ के कई सांसद हुए, नहीं मिला अटल जैसा कोई दूसरा …
अटल की चौथी पुण्यतिथि विशेष …?
तीन बार भारत के प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी का 16 अगस्त 2018 को निधन हो गया था। आज उनकी चौथी पुण्यतिथि है। इस मौके पर दैनिक भास्कर ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को बेहद नजदीक से जानने वाले 2 लोगों से बात की।
उनमें से एक हैं लखनऊ के जाने माने राजनीतिक विश्लेषक रतन मणिलाल और दूसरे हैं अटल के पुराने सहयोगी और 94 वर्षीय लाटबक्श सिंह। दोनों ने अटल जी के विराट व्यक्तित्व के अनछुए पहलुओं के बारे में बताया, आप भी पढ़िए…
व्यक्तित्व का सार ही उनकी सहजता थी
रतन मणिलाल कहते हैं, “उन्हें पूर्व प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी का तीन बार साक्षात्कार करने का अवसर मिला। इन मौकों पर अटलजी के व्यक्तित्व को बहुत नजदीक से देखा। उनके व्यक्तित्व का सार ही उनकी सहजता थी। कभी उनसे बातचीत में यह नहीं लगा कि वो किसी बात पर असहज हो रहे हैं या निरुत्तर हो गए हों। यही उनमें सबसे विलक्षण बात थी।”
सांसद बनकर अटल ने बढ़ाया लखनऊ का रुतबा
रतन मणिलाल कहते हैं कि अटल से पहले भी लखनऊ के कई सांसद हुए। तमाम ऐसे भी नेता रहे, जिनका राष्ट्रीय राजनीति में वजूद था। मगर, अटल के व्यक्तित्व के आगे बाकी कोई भी कहीं भी ठहरते नहीं थे। लखनऊ सही मायनों में अटल के सांसद चुनने के बाद ही राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बना सका। यही कारण है कि लखनऊ का राजनीतिक रुतबा उनके सांसद बनने के बाद ही बढ़ा। अटल के कारण ही लखनऊ भाजपा का गढ़ भी बना।
रतन मणिलाल कहते हैं, “90 के दशक में जब अटल ने लखनऊ का रुख किया, तो राजधानी होने के बावजूद यहां के हालात बहुत खराब थे। जनता मूलभूत सुविधाओं से कोसों दूर थी। इस बात से अटल बखूबी वाकिफ थे। यही कारण था कि संसदीय चुनाव में जब यहां आए, तो उन्होंने यहां के विकास का खाका खिंचा होने की बात कही। केंद्र और राज्य में अलग-अलग सरकार होने के बावजूद उनके द्वारा लखनऊ के प्रोजेक्ट्स को मंजूरी मिलती थी। यह सब अटल के व्यक्तित्व का ही कमाल था। विपक्षी दल के नेता पार्टी लाइन से ऊपर उठकर उनके प्रोजेक्ट्स पर सहमति देते थे।”
दूरदर्शिता से लखनऊ के विकास को दिया नया आयाम
रतन मणिलाल कहते हैं, “लखनऊ को लेकर अटल की विशेष योजना थी। लखनऊ में उनके द्वारा किए जा रहे बदलावों का असर कुछ साल बाद से ही देखने को मिलने लगा। हम 90 के दशक से आज के दौर को देखेंगे, तो जरूर 30 साल गुजर गए। मगर, अटल की दूरदर्शिता ही थी जो 30 साल बाद के रेलेवेंट चीजों की प्लानिंग उस दौर में कर दी थी।”
अटल के दौर में कभी हावी नहीं दिखी अफसरशाही
यूपी में अफसरशाही का अलग रुतबा और दबदबा रहता है। अटल के दौर में अफसरशाही कभी हावी हुई हो, ऐसा मौका नहीं देखने को मिला। अटल का कभी किसी अफसर से कोई विवाद भी सामने नहीं आया। एक जनप्रतिनिधि के तौर पर उनका यह व्यवहार ही उनको विशेष बनाता था। हां, किसी अफसर की सोच से कभी उनके निर्णय प्रभावित हुए हों, ऐसा भी नहीं देखा गया।
चौक की तंग गलियों को नया रूप देने में निभाई अहम भूमिका
रतन मणिलाल कहते हैं, “आज के दौर के लखनऊ के तमाम अहम ठिकानों को अटल बिहारी वाजपेई ने साकार रूप दिया। आमतौर पर लोग शहीद पथ, रिंग रोड प्रोजेक्ट या फिर कन्वेंशन सेंटर जैसे बड़ी सौगातों के लिए उन्हें जानते हैं। मगर, पुराने लखनऊ के चौक और उससे सटे इलाकों को नया लुक देने में भी उनकी अहम भूमिका रही।”
उन्होंने बताया, “लखनऊ का यह इलाका बेहद पुराना होने के कारण संकरी गलियों और घनी आबादी के लिए जाना जाता था। इस बीच कई ऐसे इलाके में थे जहां कट्टरपंथियों का भी दबदबा रहता था। इन इलाकों में कोई भी फेरबदल करना न तो आसान था और न ही स्थानीय लोगों की सहमति की बगैर संभव हो पाता।”
रतन कहते हैं, “यह अटल बिहारी वाजपेयी ही थे कि लोग बिना किसी विवाद के खुद की जमीन देकर रोड के विस्तार देने के लिए राजी हुए। इस काम में लखनऊ के बड़े नेता और अटल के करीबी रहे लालजी टंडन ने भी अहम किरदार निभाया।”
बलरामपुर से भी रहा गहरा नाता, 3 बार लड़ा थे चुनाव
लखनऊ के अलावा यूपी के बलरामपुर से भी अटल बिहारी वाजपेई का गहरा नाता रहा है। 1957, 1962 और 1967 में वह बलरामपुर से चुनाव लड़ चुके हैं। चुनाव के दौरान खगईजोत में पुराने सहयोगी और 94 वर्षीय लाटबक्श सिंह के घर पर रुकते थे।
वह बताते हैं, “दीनदयाल उपाध्याय से अटल बिहारी वाजपेयी को मांग कर बलरामपुर लाने वाले संघ के इस क्षेत्र में सूत्रधार प्रताप नारायण तिवारी थे। घर मे रहने के दौरान अटलजी खीर बड़े चाव से खाते थे। वह कभी भी निराश नहीं होते थे।”
कुश्ती के थे शौकीन और मुगदर चलाने में थे पारंगत
लाटबक्श सिंह कहते हैं, “बलरामपुर में रहने के दौरान अटल जी वर्जिश जरूर करते थे। उन्हें कुश्ती का शौक था। वह मुगदर भी बखूबी चलाना जानते थे। इसके अलावा बलरामपुर में उनके प्रवास के दौरान फागू नाम का शिल्पकार उनकी मालिश करता था। बाद में अटल जी उसकी सेवा से बहुत खुश हुए और उसे भी अपने साथ लेकर दिल्ली गए।”