न्यायपालिका:क़ानून मंत्री को जजों के भीतर की राजनीति से ऐतराज
कानून मंत्री किरेन रिजिजू मंगलवार को जजों पर बरस पड़े। कहते हैं ये न्याय देने के बजाय बाक़ी चीज़ों में उलझे रहते हैं। इनके लिए कोई रेगुलेटरी अथॉरिटी होनी चाहिए। पहले सरकार जजों की नियुक्ति करती थी। 1998 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा कॉलेजियम सिस्टम शुरू कर दिया गया। अब वही जजों की नियुक्ति करता है। यहाँ क़ानून मंत्री का दर्द समझ में आता है। दरअसल, जजों की नियुक्ति वे करना चाह रहे हैं, ऐसा लगता है।
हो सकता है कुछ गड़बड़ियाँ हों। जो कहीं भी हो सकती हैं। कभी भी हो सकती हैं। अवश्य ही उन्हें सुधारने की ज़रूरत भी होगी। तो सुधारिए। आप सरकार में बैठे हैं। भीतर ही भीतर कुछ करिए। सुधार लाइए। जजों और न्यायपालिका के बारे में इस तरह सार्वजनिक बयानबाज़ी करके आप क्या जताना या बताना चाहते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के किसी कार्यक्रम में इस तरह न्यायपालिका के धुर्रे आप क़ानून मंत्री होते हुए क्यों बिखेर रहे हैं?
क़ानून मंत्री इतने पर ही नहीं रुके। उनका कहना है कि बाहर से आप को कुछ नहीं दिखेगा, लेकिन भीतर ही भीतर जजों में बड़ी राजनीति चल रही है।
कहते हैं संसद में कोड ऑफ़ एथिक्स है, लेकिन न्यायपालिका में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। होनी चाहिए। अब क़ानून मंत्री ये बताने की कृपा करेंगे कि संसद में बेवजह का हंगामा, काग़ज़, दस्तावेज फाड़-फाड़ कर उछालना, धक्का- मुक्की करना और स्पीकर को बोलने तक नहीं देना भी क्या कोड ऑफ़ एथिक्स के तहत आता है? क्या सभी सांसद एथिक्स का पालन करते रहे हैं?
सांसद निधि के कैसे- कैसे उपयोग- दुरुपयोग होते हैं यह किसी से छिपा नहीं है। किसे देना है, किसे नहीं देना है, किन शर्तों पर देना है, क्या यह सब जनता नहीं देखती? इस पर भी तो कभी बोलिए!
जजों के भीतर अगर राजनीति चल रही है तो इसे चलने देने के लिए ज़िम्मेदार कौन है? क़ानून मंत्री का आख़िर क्या काम है? …और जो आपके पास कोई अधिकार नहीं है तो अधिकार जुटाइए। किसने रोका है? कम से कम न्यायपालिका की इस तरह सार्वजनिक तौर पर हंसी तो मत उड़ाइए!
खैर आप बोल रहे हैं तो कुछ न कुछ तो होगा। वर्ना कैसे कोई रिटायर्ड चीफ़ जस्टिस बड़े-बड़े पद पा जाता है? आख़िर कुछ न कुछ विचार तो सत्ता से मिलते ही होंगे। वर्ना रिटायर होने के बाद इतना बड़ा इनाम किस बात का?