जोशीमठ संकट प्राकृतिक कम, मानवजनित ज्यादा
भूकंप, भूस्खलन या बाढ़ के बगैर भी किसी इलाके में आपदा के हालात कैसे पैदा होते हैं, यह इन दिनों देवभूमि उत्तराखंड के जोशीमठ में साक्षात देखा जा रहा है। बद्रीनाथ की शीतकालीन राजधानी जोशीमठ इस शीत काल में आपदा के जिन हालात का सामना कर रही है, वे प्राकृतिक कम, मानवजनित ज्यादा हैं। इसी तरह की मानवजनित आपदा के कारण हमने करीब 17 साल पहले उत्तराखंड के पुराने टिहरी शहर को जल समाधि लेते देखा था। फर्क इतना है कि पुराना टिहरी पानी में डूब गया था, जोशीमठ जमीन में धंस रहा है। इस प्रक्रिया के दौरान वहां 600 से ज्यादा मकानों में दरारें आ चुकी हैं। कुछ मकानों से पानी रिसने लगा है।
बद्रीनाथ, हेमकुंड साहिब और स्कीइंग स्थल औली के प्रवेश द्वार जोशीमठ शहर के करीब 40 फीसदी हिस्से को आपदाग्रस्त क्षेत्र घोषित कर दिया गया है। चिंताजनक पहलू यह है कि जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र के बढ़ते जलस्तर को लेकर वैज्ञानिक समय-समय पर जिस तरह की चेतावनी जारी करते रहे हैं, वैसा पहाड़ी क्षेत्रों को लेकर अपेक्षाकृत कम होता है। अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा से पिछले साल एक रिपोर्ट में बढ़ते समुद्री जलस्तर के कारण इस सदी के आखिर तक मुंबई, चेन्नई, कोच्चि और कांडला समेत भारत के 12 तटवर्ती शहरों के कुछ फीट धंसने की आशंका जताई थी। इसी तरह का खतरा पहाड़ी क्षेत्र के शहरों को भी है, यह संकेत जोशीमठ के मौजूदा हालात से मिल रहे हैं। दरअसल, जोशीमठ अवैज्ञानिक और अनियोजित इंसानी गतिविधियों की मार झेल रहा है। जोशीमठ में 1970 में भी जमीन धंसने की घटनाएं सामने आई थीं। इनकी जांच के बाद गढ़वाल के तत्कालीन आयुक्त महेश मिश्रा की अगुवाई वाली कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि यह इलाका मोरेन यानी ग्लेशियर पिघलने से बने मलबे पर टिका है। यहां बड़ी निर्माण परियोजनाओं से परहेज किया जाना चाहिए। इस सलाह को दरकिनार कर जोशीमठ में ऐसी परियोजनाओं के लिए रास्ते खोले गए। संकट से घिरने के बाद इनमें से एनटीपीसी की तपोवन-विष्णुगढ़ परियोजना और हेलांग-मारवाड़ी बाइपास के निर्माण को अस्थायी रूप से रोक दिया गया है।
धार्मिक, पर्यटन व सांस्कृतिक शहर के अलावा चीन से सटी सीमा के करीब होने के कारण जोशीमठ का सामरिक महत्त्व भी है। इसे बचाने के लिए युद्धस्तर पर अभियान चलाने के साथ बेघर हुए लोगों के पुनर्वास की दिशा में फौरी कदम उठाना जरूरी है। पहाड़ी शहरों को लेकर भविष्य में बरती जाने वाली सावधानियों की रूपरेखा भी अब निश्चित हो जानी चाहिए।