जोशीमठ त्रासदी हमारे लिए खतरे की घंटी है …!
लेखक होने के नाते मुझसे अकसर कहा जाता है कि पहाड़ों पर जाइए और लिखिए। लेखकों के बारे में यह एक रूमानी धारणा बनी हुई है कि वे सुंदर हिल स्टेशनों पर जाकर आरामदेह कॉटेज में रहते हैं और लिखते हैं। यह सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन सच यह है कि आज भारत में ऐसे कोई हिल स्टेशन नहीं हैं, जिन्हें सुंदर कहा जाए।
इसके बजाय आपको मिलेंगे ट्रैफिक जाम से त्रस्त पहाड़ी रास्ते, अनापशनाप तरीके से पार्क की गई गाड़ियों से घिरा टाउन सेंटर, कुरकुरे, चिप्स और बिस्किट के पैकेट से भरे साइडवॉक। यहां टिन की छतों वाली दुकानों पर हर चीज बिकती है- छोले-भटूरे से लेकर बच्चों के खिलौने और पश्मीना शॉल से लेकर हाजमे के चूरन तक। यहां वीडियो गेम आर्केड्स और स्नूकर रूम्स भी मिलेंगे।
रोडसाइड स्टॉल्स पर तरह-तरह की मैगी और चाइना में निर्मित सस्ते ब्लूटुथ ईयरफोन बेचने वाले पाए जाते हैं। होटलों में इस बात की प्रतिस्पर्धा है कि किसका साइनबोर्ड सबसे गंदा है और किसके यहां सबसे बुरी लाइटिंग व्यवस्था है। इनके यहां बल्ब के सॉकेट खुले पड़े रहते हैं और भारत की सबसे चहेती प्रकाश-व्यवस्था यानी ट्यूबलाइट से रोशनी का इंतजाम किया जाता है।
अगर आप कोई दु:खदायी कहानी सुनाना चाहते हैं या इस विषय पर किताब लिखना चाहते हैं कि किसी अच्छी-खासी जगह को बरबाद कैसे किया जाए, तो जरूर आप हिल स्टेशनों की सैर पर जा सकते हैं। भारत के हिल स्टेशन अब सामान्य पर्यटन के उपयुक्त नहीं रह गए हैं। कुछ उद्यमशील इंस्टाग्राम इंफ्लूएंसर्स इन जगहों पर फोन से अच्छी फ्रेम बनाकर तस्वीरें खींच लेते हैं, जिसमें वे दूर बर्फ से लदे पहाड़ों को हाईलाइट करते हैं लेकिन फर्श पर बिखरे कुरकुरे-चिप्स के पैकेट्स को छुपा लेते हैं।
वे इन तस्वीरों को इंस्टाग्राम पर उन पंक्तियों के साथ लगाते हैं, जो सुनने में अच्छी लगती हैं, पर जिनका कोई मतलब नहीं होता- जैसे कि ‘माई सोल बिलॉन्ग्स टु द हिल्स’ या ‘वांडरलस्ट इज़ माय स्पिरिट एनिमल।’ ये तस्वीरें आपके फीड में पॉप-अप होती हैं तो आप उत्साहित हो जाते हैं, परिवार सहित वहां छुटि्टयां बिताने चले जाते हैं, इस उम्मीद में कि आपकी आत्मा को पोषण मिलेगा। जबकि आपका सामना ट्रैफिक जाम और कूड़े-करकट से भरे एक कस्बे से होता है।
इसलिए मैं तो कहूंगा कि अगर आप पहाड़ों और प्रकृति पर कृपा करना चाहते हैं तो प्रसिद्ध हिल स्टेशनों पर यात्रा करने न जाएं। वहां आपको राहत नहीं मिलने वाली। इन पहाड़ी कस्बों को हमने जो नुकसान पहुंचाया है, वह अब खतरनाक स्तर पर पहुंच गया है। बात केवल आंखों को खूबसूरत लगने वाली जगहों की बरबादी तक ही सीमित नहीं रह गई है। ये कस्बे अब धीरे-धीरे मरने लगे हैं। उत्तराखंड का जोशीमठ दरक रहा है और वहां बसे लोगों को सुरक्षित दूसरी जगहों पर ले जाकर बसाने की नौबत आ गई है।
बेतहाशा निर्माण, पर्यावरण के प्रति चिंता का घोर अभाव और पहाड़ों पर सैर के लिए नॉन-स्टॉप आने वाले लोगों के चलते यह हालत हो गई है। बहुत सम्भव है कि जल्द ही दूसरे कस्बों की भी यही हालत हो जाए। ये पहाड़ी कस्बे हमारा गौरव हैं और पारिस्थितिकी संतुलन के लिए जरूरी हैं, हमें उन्हें नष्ट करने से खुद को रोकना होगा। जिन जगहों को हम पवित्र समझते हैं, उनका ऐसा विनाश कैसे कर सकते हैं? ये बात सच है कि टूरिज्म इन कस्बों की इकोनॉमी के लिए जरूरी है।
होटलें, दुकानें, ट्रैवल एजेंसियां, कारें- इन सबसे पैसा आता है। लेकिन किस कीमत पर? क्या हम जंगलों के सभी पेड़ काटने की इजाजत दे सकते हैं? या बाघों का शिकार करने की? अगर इन चीजों पर रोक है तो पूरे के पूरे कस्बों और पर्वत-शृंखलाओं को नष्ट करने की अनुमति कैसे दी जा सकती है? ठीक है कि भारतीयों को छुटि्टयां बिताने के लिए पर्यटनस्थलों की दरकार है, खासतौर पर गर्मियों के मौसम में।
बढ़ती प्रतिव्यक्ति आय के चलते अब ज्यादा से ज्यादा लोग हिल स्टेशनों की यात्रा करने में सक्षम हो गए हैं। लेकिन इन हिल टाउंस की यह क्षमता नहीं है कि इतनी बड़ी संख्या में पर्यटकों को समायोजित कर सकें। इनमें से अधिकतर का निर्माण ब्रिटिश राज में किया गया था, कुछ का तो कुछ ही सौ साल पहले। वे हरगिज इस बात के लिए डिजाइन नहीं किए गए थे कि लाखों पर्यटक कारें लेकर वहां आ धमकें।
हमें और हिल स्टेशन विकसित करने चाहिए। अगर ब्रिटिश लोग आज से एक सदी पहले वह सब कर सकते थे तो हम आज बेहतर तकनीक के साथ वैसा क्यों नहीं कर सकते? हमें आने वाले दशकों में पर्यटकों के बढ़ते दबाव के मद्देनजर अगर पचास नहीं तो कम से कम बीस नए हिल टाउंस की दरकार है, जहां बेहतरीन इंफ्रास्ट्रक्चर हो।
हालांकि इन तमाम कस्बों पर मर्यादाएं निर्धारित करना होंगी- सीमित संख्या में निर्माण हो, निश्चित मात्रा में भूमि खाली छोड़ी जाए, पर्यटकों की संख्या तय हो आदि। कूड़ा-प्रबंधन के बारे में पहले ही सोचना होगा। अगर भूटान जैसा देश इतने कम संसाधनों के बावजूद यह कर सकता है तो हम क्यों नहीं?
भूटान में विदेशियों से प्रवेश-शुल्क लिया जाता है। शायद हमें भी अब हिल टाउंस में आने वाले पर्यटकों से शुल्क लेने के बारे में सोचना होगा। साथ ही वहां प्लास्टिक बैग्स और पैकेट्स के इस्तेमाल पर भी पूर्णतया रोक लगानी होगी। जोशीमठ में हो रही घटनाएं हम सबके खतरे की घंटी होनी चाहिए। महज चंद रुपए कमाने के लिए प्रकृति का विनाश कर देना तो बड़ा ही महंगा सौदा होगा।
कहीं दूसरे कस्बों की भी ये हालत न हो
जोशीमठ दरक रहा है और वहां बसे लोगों को सुरक्षित दूसरी जगहों पर ले जाकर बसाने की नौबत आ गई है। बेतहाशा निर्माण, पर्यावरण के प्रति चिंता का घोर अभाव और पहाड़ों पर सैर के लिए नॉन-स्टॉप आने वाले लोगों के चलते यह हालत हुई है। बहुत सम्भव है दूसरे कस्बों की भी यही हालत हो जाए। जिन जगहों को हम पवित्र समझते हैं, उनका विनाश कैसे कर सकते हैं?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)