डिग्रियों का पर्वत खड़ा करना नहीं है शिक्षा
सुस्वास्थ्य का साहस से और सुशिक्षा का संस्कार से सीधा संबंध है। सुस्वास्थ्य, साहस का सेतु है तो सुशिक्षा, सुसंस्कार की सड़क है। सेतु जोड़ने का कार्य करता है तो सड़क मंजिल पर पहुंचाने का कार्य करती है। जबकि ‘कार्य’ न तो सेतु करता है न सड़क। दरअसल, यह तो व्यक्ति का पौरुष या पराक्रम होगा जो गतिशील होकर उसे सेतु के इस छोर से उस छोर तक पहुंचा देगा। इसी तरह व्यक्ति की सुसंस्कारी चेतना ही उसे क्रियाशील रखती है। स्वामी विवेकानंद का दर्शन दरअसल सुस्वास्थ्य के सेतु से सुशिक्षा की सड़क को जोड़कर मानवता की मंजिल तक पहुंचाने का दर्शन है।
12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में जन्मे नरेन्द्रनाथ ही आगे चलकर स्वामी विवेकानंद कहलाए। उन्होंने अज्ञान और अंधविश्वास के विरुद्ध विवेक और विचार का बिगुल बजाया, कुरीतियों और कुप्रथाओं को चुनौती दी तथा वेदांत व विज्ञान में समन्वय स्थापित किया। वह वास्तव में विवेक के अग्रदूत थे। उन्होंने उपनिषदों की उज्ज्वलता को रेखांकित किया तथा वेदांत का वास्तविक अर्थ समझाया।
स्वामी विवेकानंद की दृष्टि में सुस्वास्थ्य की नींव पर ही सुशिक्षा का भवन निर्मित हो सकता है। बल्कि, सही तो यह है कि सही शिक्षा का सही स्वास्थ्य से चोली-दामन का रिश्ता है। स्वामी विवेकानंद बचपन से ही बहुत साहसी थे। सांप की मौजूदगी में भी उनके ध्यानमग्न रहने की कथा तथा पेड़ पर प्रेत यानी ब्रह्मराक्षस से लड़ने (जो उनकी दृष्टि में अंधविश्वास था) का उनका किस्सा, दरअसल, उनके सुस्वास्थ्य से उपजे साहस तथा सुशिक्षा से जन्मे विवेक और संस्कार का ही उदाहरण है।
स्वामी विवेकानंद के शब्दों में, ‘कमजोर दिमाग कुछ भी नहीं कर सकता। अब हमें ऐसा रद्दी दिमाग बदल डालना होगा। तुम लोग बलवान बनो। गीता का पाठ करने की अपेक्षा तुम फुटबॉल खेलो तो स्वर्ग के बहुत नजदीक पहुंच सकते हो। तुम्हारा शरीर जब तगड़ा हो जाएगा तो तुम पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा गीता को समझ सकोगे।’ सुशिक्षा के बारे में उनके विचार हैं, ‘जिसकी सहायता से इच्छाशक्ति का वेग और स्फूर्ति अपने वश में हो जाए, जिससे वास्तविक मनुष्यत्व, चरित्र और जीवन बन सके, जिससे मनोरथ सफल हो सके, वही शिक्षा है।’
स्वामी विवेकानंद के मत में मानवीय मूल्यों के संरक्षण और संवर्धन में शिक्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। शिक्षा का कार्य डिग्रियों का पर्वत खड़ा करना या ‘उपाधिधारकों की फौज’ तैयार करना नहीं है। सुशिक्षा वही है जो सुसंस्कारों का सौरभ फैलाए। सुशिक्षा का कार्य सृजन करना है, विध्वंस करना नहीं। स्वामी विवेकानंद के शब्दों में, ‘जो शिक्षा प्रणाली मनुष्यत्व की शिक्षा नहीं देती, गठन नहीं करती और एक बनी-बनाई चीज को तोड़ना-फोड़ना ही जानती है, वैसी अवस्थामूलक या अस्थिरता का प्रचार करने वाली शिक्षा या वह शिक्षा जो केवल ‘नेति’ भाव ही फैलाती है, किसी काम की नहीं है। वह तो मौत से भी भयंकर है।’
एक अन्य स्थल पर स्वामी विवेकानंद ने कहा है, ‘कुछ परीक्षाएं पास कर लेना अथवा धुआंधार व्याख्यान देने की शक्ति प्राप्त कर लेना शिक्षित हो जाना नहीं कहलाता। जिस विद्या के बल से जनता को जीवन-संग्राम के लिए समर्थ नहीं किया जा सकता, जिसकी सहायता से मनुष्य का चरित्र-बल परोपकार में तत्पर और सिंह-सा साहसी नहीं हो सकता, क्या वह शिक्षा है? शिक्षा तो वही है जो मनुष्य को अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाती है।’