उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार का क्या हो आधार

सामयिक: देश में विदेशी विश्वविद्यालय परिसर क्या एक नए सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभु वर्ग को पोषित नहीं करेंगे …

यदि भारतीय उच्च शिक्षा की गुणवत्ता दोयम दर्जे की है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है जो व्यापक जवाबदेही की मांग करती है।

ती न दशक से अधिक के लंबे अंतराल के बाद देश ने शिक्षा के माध्यम से ‘सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक परिवर्तन से आत्म-निर्भर राष्ट्र’ बनाने की वैचारिक परियोजना के रूप में राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 को अंगीकार किया है। इसमें भारत को विश्वगुरु की ‘भावनात्मक अभिव्यक्ति’ पर पुन: प्रतिष्ठित करने का वैचारिक एवं सांस्कृतिक आग्रह विद्यमान है।

इसमें कोई संशय नहीं है कि इस शिक्षा नीति के निर्माताओं के समक्ष ऐसी कई चुनौतियां थी, जिनका सामना संभवतया पूर्ववर्ती नीति निर्माताओं को नहीं करना पड़ा। मसलन, इस शिक्षा नीति को जहां एक ओर नवाचारी पहल करते हुए देशज ज्ञान परम्पराओं में अंतर्निहित जीवन आदर्शों को पुन: सृजित करना था, वहीं दूसरी ओर 21वीं सदी के लिए अद्यतन ज्ञानात्मक कौशल से परिपूर्ण नई पीढ़ी का निर्माण भी करना था। इसका उद्देश्य पश्चिमी विचार के बरक्स भारतीय ज्ञान-विज्ञान-सामाजिकी को एक रणनीतिक विकल्प के रूप में स्थापित करना था। इसकी पृष्ठभूमि में वे सभी उच्च शिक्षा आदर्श एवं मानक रहे हैं जिनसे तक्षशिला, नालंदा और विक्रमशिला जैसे वैश्विक संस्थान निसृत हुए। इसी के बरक्स एक विरोधाभास यह है कि जहां एक ओर जन-आकांक्षाएं देशज प्रयासों को एक ‘वैचारिक-सांस्कृतिक रणनीति’ के रूप में उपयोग करते हुए भारतीय बोध से अनुप्राणित शैक्षिक उन्नयन का मार्ग तलाश रही हैं, वहीं दूसरी ओर भारतीय उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में व्यापक सुधार के लिए विदेशी विश्वविद्यालयों के कैम्पस या उनके केंद्र भारत में खोलने को एक जरूरी विकल्प के रूप में रेखांकित किया जा रहा है। देखा जाए तो इसकी नीतिगत तैयारी पिछली सदी के आखिरी दशक से ही की जा रही थी। पिछली सरकार में विदेशी विश्वविद्यालय नियामक बिल संसद में प्रस्तुत किया गया था, जिसे तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों में उच्च शिक्षा में विदेशी प्रत्यक्ष विनिवेश के विरोध के कारण अमल में नहीं लाया जा सका था। हाल ही में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की पहल ने एक बार फिर देश में विदेशी विश्वविद्यालय कैम्पस खोलने को चर्चा में ला दिया है। भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों को आमंत्रित करने को एक नवाचारी पहल के रूप में स्वीकार करते हुए इसे भारतीय उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक प्रगतिगामी और परिवर्तनकारी परिघटना बताया जा रहा है कि इससे न केवल उच्च शिक्षा में गुणात्मक सुधार होगा बल्कि स्थानीय विद्यार्थियों को देश में ही अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप अध्ययन एवं शोध करने के अवसर मिलेंगे। लेकिन ‘विदेशी और आयातित’ ज्ञान-समझ-वैचारिकी के भरोसे देश को ‘विश्वगुरु एवं आत्मनिर्भर राष्ट्र’ बनाने की कवायद क्या स्वयं में राष्ट्रीय शिक्षा नीति की मूल भावना के विरुद्ध नहीं है? यदि भारतीय उच्च शिक्षा की गुणवत्ता दोयम दर्जे की है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है जो व्यापक जवाबदेही की मांग करती है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 की मूल आत्मा को राष्ट्रीय जनचेतना ने इस रूप में भी स्वीकार किया था कि प्राचीन भारतीय ज्ञान-विरासत को संदर्भित एवं देशज प्रयासों से कार्य करते हुए ज्ञान-समाज के निर्माण का वैश्विक विकल्प बनना चाहिए । इस हेतु भारतीय विद्या और प्रज्ञा की वैश्विक स्वीकारोक्ति के लिए प्रयास किए जाने चाहिए। जहां एक ओर दुनिया के साभ्यतिक विमर्श को प्राचीन भारतीय मीमांसा ने सतत संपोषित किया, वहीं दूसरी ओर उत्तर-आधुनिक पश्चिमी व्यवस्था के वशीभूत होकर विदेशी विश्वविद्यालय परिसर खोलने को गौरवबोध के रूप में महिमामंडित आखिर कैसे किया जा सकता है? ऐसे में कई सवाल उभरते हैं जिन्हें समझना जरूरी है, मसलन विदेशी परिसरों की आवश्यकता किसको है? इनमें अध्ययन-अध्यापन की विषयवस्तु और शिक्षणशास्त्र का स्वरूप क्या होगा? क्या अब लोक-कल्याणकारी देश में बहु-परती गुणवत्ता की शिक्षा को वैधीकृत किया जाएगा? विदेशी परिसर देश में विद्यमान अभिजात्यता को किस तरह अप्रभावी बना पाएंगे या फिर विदेशी शिक्षा के रास्ते एक नए सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभु वर्ग को पोषित किया जाएगा? क्या यह परिसर देश के उन हिस्सों में खोले जाएंगे जहां आजादी के अमृतकाल की बूंदें पहुंचना अभी शेष है? विज्ञान, तकनीकी और उद्योग समर्थित विषयों के बरक्स भाषा, कला, समाजविज्ञान और मानविकी विषयों की भागीदारी का स्वरूप इन विदेशी परिसरों में किस प्रकार होगा? ऐसे कई सवाल हैं, जिनका समाधान किए बिना आगे बढ़ना सत्ता-प्रतिष्ठानों को गैर-लोकतांत्रिक एवं निरंकुश बनाएगा। देश के दूर-दराज के पिछड़े क्षेत्रों या आर्थिक एवं भाषायी रूप से वंचित और दलित वर्गों के लिए इन परिसरों में ‘अवसरों की समानता एवं समतामूलक भागीदारी’ को सुनिश्चित किए बिना किए जाने वाला कोई भी प्रयास वस्तुत: अमानवीय और बौद्धिक रूप से हिंसक ही होगा। ऐसे में शिक्षा के माध्यम से ‘विश्वगुरु एवं आत्मनिर्भर राष्ट्र’ बनने का साभ्यतिक प्रयास और सांस्कृतिक आयोजना ‘वैश्विक पूंजी एवं बाजार’ के समक्ष विफल ही रहेगा।

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