बहुभाषी शिक्षा से बचेगी समृद्ध ज्ञान की परंपरा …

अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस संयुक्त राष्ट्र द्वारा उपलब्ध कराया गया एक ऐसा अवसर है, जिसके बहाने दुनियाभर के लोग अपनी मातृभाषाओं के महत्त्व पर बात कर सकते हैं, विभिन्न भाषा-समूहों के लोग एकजुट हो सकते हैं तथा तमाम मातृभाषाओं के संरक्षण और संवर्द्धन की योजनाएं बना सकते हैं। अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के अवसर पर इस बार संयुक्त राष्ट्र की थीम है – ‘बहुभाषी शिक्षा: शिक्षा में आमूलचूल बदलाव की एक जरूरत’। विभिन्न शिक्षा शास्त्रीय, भाषाविज्ञानी और समाजशास्त्रीय अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि दुनिया के करीब 40 फीसदी विद्यार्थी अपनी मातृभाषा से इतर भाषाओं में शिक्षा लेने के लिए मजबूर हैं। कुछ वर्ष पहले भारत के छत्तीसगढ़ राज्य से एक रिपोर्ट सामने आई थी, जिसके अनुसार राज्य के 5 लाख से अधिक बच्चे हिंदी नहीं समझते। इसलिए राज्य सरकार की एक समिति ने सिफारिश की कि राज्य में प्राथमिक शिक्षा को बहुभाषी किया जाना चाहिए। स्थानीय सरकार ने इस दिशा में काम भी शुरू कर दिया।

संयुक्त राष्ट्र का स्पष्ट सोचना है कि बहुभाषी शिक्षा से हम न केवल शिक्षा के क्षेत्र में अपने लक्ष्यों को पूरा कर पाएंगे, बल्कि इससे समावेशीपन और सतत विकास की प्रक्रिया को भी मदद मिलेगी। यूनेस्को अपनी विभिन्न योजनाओं द्वारा हमेशा बच्चों को उनकी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा देने का हिमायती रहा है। शिक्षाशास्त्रियों का भी सोचना है कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देने के बाद ही विद्यार्थियों को अन्य भाषाएं सिखानी चाहिए, जिससे वे सहजता से शिक्षा के नए सोपान चढ़ सकें और अपनी शिक्षा और परिवेश के बीच सामंजस्य बना सकें।

अब तक बहुत सारे समूहों तक शिक्षा का प्रकाश नहीं पहुंच पाया है। इनमें मूल निवासी और आदिवासी समूह प्रमुख हैं। इन समूहों तक शिक्षा को पहुंचाने में बहुभाषी शिक्षा की प्रविधि महत्त्वपूर्ण साबित हो सकती है। इससे इन छोटे समूहों की भाषाओं को बचाने में भी मदद मिलेगी। बहुभाषी शिक्षा समय की एक ऐसी जरूरत है, जो एक साथ कई महत्त्वपूर्ण लक्ष्यों को साधने में मददगार हो सकती है। संयुक्त राष्ट्र का इस दिशा में चिंतन संकेत करता है कि हमें इस तरह की जड़ धारणाओं से निकलना चाहिए कि किसी भाषा विशेष में ही सारा ज्ञान सिमटा हुआ है। भारतीय संदर्भ में एक बड़ा तबका अंग्रेजी को ज्ञान का पर्याय मानता है। फलत: स्थानीय भाषाओं और आदिवासी भाषाओं को उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है।

भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में छोटी भाषाओं पर खतरा लगातार बढ़ रहा है। भाषाओं का खतरे में आना दुनिया की सांस्कृतिक विविधता का खतरे में आना है। हर भाषा के साथ असंख्य स्मृतियां और ज्ञान परंपराएं होती हैं। यानी भाषा का मरना उन स्मृतियों और ज्ञान परंपराओं का मरना भी है, जिन्हें उस भाषा के पुरखे हजारों वर्षों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी संरक्षित करते आगे बढ़ा रहे थे। स्मृतियां, ज्ञान परंपराएं, सोचने और अभिव्यक्ति के अनूठे तरीके बेहतर भविष्य सुनिश्चित करने के मूल्यवान संसाधन हैं। प्रकारान्तर से भाषाओं के प्रति संवेदनशील होकर हम भावी पीढ़ियों का बेहतर भविष्य भी सुनिश्चित कर सकते हैं।

विभिन्न भाषा-वैज्ञानिक अध्ययनों से निकला यह तथ्य चिंताजनक है कि हर दो हफ्ते में दुनिया से एक भाषा अपनी पूरी सांस्कृतिक व बौद्धिक विरासत के साथ नष्ट हो जाती है। दुनियाभर की 6000 से अधिक भाषाओं में से शिक्षा प्रणाली में कुछ सौ भाषाओं को ही जगह मिल पाई है और डिजिटल दुनिया में तो सौ से भी कम भाषाओं का उपयोग किया जाता है। बहुभाषी शिक्षा हमें इस संकट से निकलने में मदद कर सकती है। दुनियाभर के देशों में शिक्षा के क्षेत्र में तकनीक का प्रवेश हमारे समय का सच है। कोविड के दौरान तकनीक पर हमारी निर्भरता और बढ़ी है। शिक्षा के क्षेत्र में तकनीक के उपयोग को भी बहुभाषिकता से जोड़ना होगा। यह सुखद है कि छोटे भाषिक समूह अपनी भाषाओं व साहित्य का संरक्षण करने के लिए सूचना तकनीक का उपयोग कर रहे हैं। तमाम अध्ययनों से स्पष्ट हो चुका है कि भाषाई वर्चस्व की बजाय बहुभाषिकता का मंत्र न केवल तमाम भाषाओं और उनकी ज्ञान परंपराओं को बचाने के लिए उपयोगी होगा, बल्कि यह पूरी दुनिया को खूबसूरत और बेहतर बनाने में भी सार्थक भूमिका निभाएगा।

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