राक्षस रूपी भीड़ का प्रसाद भगदड़ है और देव रूपी समूह का प्रसाद शांति
यह आपको तय करना है, दूसरों पर दोष मढ़ने से कुछ होगा नहीं। आप भीड़ का हिस्सा बनना चाहते हैं या समूह का? रावण के पास भीड़ थी, राम समूह में रुचि रखते थे। भीड़ बावली होती है, उसका अपना कोई उसूल नहीं होता। स्वार्थ हावी होता है। जबकि समूह के पास विवेक रहता है। दुर्भाग्य को भी भीड़ में अपना शिकार ढूंढना आसान हो जाता है। इसलिए भीड़ का प्रसाद भगदड़ है और समूह का शांति।
इस समय धर्म के बाजार में भीड़ का ट्रेंड चल रहा है। प्रसिद्ध और सिद्ध होने का मापदंड भी भीड़ हो गया है। लेकिन ईश्वर भीड़ का नहीं, भाव का विषय है। अगर भगवान को भीड़ ही प्यारी होती तो कृष्ण पांडवों की तरफ न होकर कौरवों के साथ होते। अब यह तो हमको तय करना है कि हम कहां रहें। भीड़ का भाग बनें या समूह के साथ रहें। आप तय करें कि प्रसिद्धि पाना है या परमात्मा।
दोनों का रास्ता इस समय तो धर्म के गलियारे से गुजरकर जा रहा है। भीड़ की दुर्गति या समूह की सद्गति, यह आपको तय करना है। दूसरों की व्यवस्था, अव्यवस्था पर रोष न मढ़ें। न इसके लिए भगवंत दोषी है न संत। जनसैलाब में जब हम ही कूद गए तो तैरने-डूबने का पीड़ादायक दृश्य दूसरों के नाम न करें।