नई भाजपा को राजनीतिक लाभ के लिए समझौते और बदलाव करने से संकोच नहीं है
देश के दूरस्थ कोने में भाजपा एक पुरानी बाधा को लांघने की कोशिश में जुटी है। शिलॉन्ग के सबसे पुराने गिरजाघरों में से एक में रविवार को हुई प्रार्थना के दौरान अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय मंत्री जॉन बरला भी मौजूद हुए। ईसाई-बहुल राज्य मेघालय में जल्द चुनाव होने जा रहे हैं और केंद्रीय मंत्री की उस कार्यक्रम में मौजूदगी ईसाइयों को यह आश्वासन देने के प्रयोजन से थी कि भाजपा उनकी विरोधी नहीं है।
मेघालय और नगालैंड में भाजपा के 80 प्रत्याशियों में से 75 ईसाई समुदाय के हैं और भाजपा अब खुद को इस वर्ग के प्रति ज्यादा सदाशय दिखाने की कोशिश कर रही है। भाजपा कह सकती है कि वह गोवा में पहले ही एक दशक से भी अधिक समय से सत्ता में है, जहां बड़ी तादाद में ईसाई हैं। मेघालय और नगालैंड में वह विगत पांच वर्षों से सरकार में गठबंधन सहयोगी है।
भाजपा ने वहां की क्षेत्रीय पार्टियों से गठजोड़ किया है और दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री ईसाई हैं। लेकिन चुनाव-पूर्व करारनामों के आधार पर सत्ता में साझेदारी की कोशिशें एक तरफ और एक ऐसे समुदाय का दिल जीतने के जतन दूसरी तरफ, जो हिंदुत्व की राजनीति के प्रति परम्परागत रूप से संशयग्रस्त रहा आया है।
पिछले महीने जब कुछ असामाजिक तत्वों ने छत्तीसगढ़ में एक चर्च में तोड़फोड़ की थी तो मेघालय के ईसाई संगठनों ने इसके विरोध में आवाज उठाते हुए प्रधानमंत्री से आग्रह किया था कि वे हस्तक्षेप करें। उनका कहना था कि ईसाई समुदाय के साथ हिंसक वारदातें बढ़ रही हैं।
जब एक वयोवृद्ध जेसुइट पादरी फादर स्टान को यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया गया था और अस्पताल में कथित रूप से दुर्व्यवहार के बाद उनकी मृत्यु हो गई थी तो ईसाई समुदाय की ओर से विरोध में तीखी प्रतिक्रियाएं आई थीं। जब कर्नाटक की विधानसभा ने धर्मांतरण-विरोधी विधेयक पारित किया, तब भी ईसाई समुदाय के नेताओं ने आपत्ति जताई थी। इससे पूर्वोत्तर के राज्यों में अपना आधार बढ़ाने की भाजपा की कोशिशों में बाधा उत्पन्न होती रही हैं।
भाजपा की नीति रही है हिंदी पट्टी के राज्यों में हिंदुत्व की राजनीति करना और सीमांत पर मौजूद राज्यों में स्थानीय संवेदनाओं और जनसांख्यिकी का ख्याल रखते हुए लचीले रवैए का परिचय देना। पुराने जमाने में भाजपा अपनी बुनियादी विचारधारागत निष्ठाओं पर अडिग बनी रहती, लेकिन यह नई भाजपा है, जिसे राजनीतिक लाभ के लिए समझौते और बदलाव करने से संकोच नहीं है।
भाजपा मुस्लिमों और ईसाइयों के बीच के अंतर को भी प्रकट करना चाहती है। आज देश में मुस्लिमों की बड़ी आबादी है, जिसके बरक्स हिंदुत्ववादी वोटों को एकजुट किया जा सकता है। इसकी तुलना में ईसाइयों की तादाद बहुत कम है। 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में 2.8 करोड़ ईसाई हैं, जो कुल आबादी का 2.3 प्रतिशत हैं।
दूसरी तरफ, ईसाई समूहों के बारे में यह धारणा है कि वे मुस्लिम नेतृत्व की तुलना में भाजपा से संवाद करने के लिए अधिक तत्पर हैं। गत वर्ष गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा ने एक ईसाई आदिवासी नेता को टिकट दिया था, जो चुनाव जीतने में सफल रहे। इसकी तुलना में भाजपा ने एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया।
केरल में ईसाई बिशपों से भाजपा का संवाद भी गौरतलब है। गोवा में भी, विशेषकर मनोहर पर्रिकर के मुख्यमंत्रित्वकाल में भाजपा ने कई कैथोलिक विधायकों को बढ़ावा दिया था। भाजपा को यह भी लगता है कि ईसाई समुदाय के साथ किसी भी तरह के दुर्व्यवहार पर पश्चिमी जगत से कड़ी प्रतिक्रियाएं आएंगी।
याद करें 2021 में नरेंद्र मोदी ने किस तरह से पोप फ्रांसिस को गले लगाकर उन्हें भारत आने का न्योता दिया था। वैसे शिलॉन्ग के चर्च में केंद्रीय मंत्री जॉन बरला द्वारा प्रार्थना-सभा में सम्मिलित होने से पहले टीएमसी के डेरेक ओ ब्रायन और एक अन्य स्थानीय कांग्रेस नेता भी चर्च-प्रतिनिधियों से मिलकर संवाद कर चुके थे। यानी ईसाई वोटों के लिए कशमकश अभी शुरू ही हुई है!
पुनश्च : संघ परिवार भले ईसाई मिशनरी स्कूलों की आलोचना करता हो और उस पर शिक्षा की आड़ में धर्मांतरण का आरोप लगाता हो, भाजपा के कई अग्रणी नेता- आडवाणी से लेकर अरुण जेटली और पीयूष गोयल से लेकर जेपी नड्डा तक क्रिश्चियनों के द्वारा संचालित स्कूलों में ही शिक्षित हुए हैं!
भाजपा की नीति रही है हिंदी पट्टी के राज्यों में हिंदुत्व की राजनीति करना और सीमांत पर मौजूद राज्यों में स्थानीय संवेदनाओं और जनसांख्यिकी का ख्याल रखते हुए लचीले रवैए का परिचय देना।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)