विश्व बैंक के लिए जनस्वास्थ्य हो सर्वोच्च प्राथमिकता
विश्व बैंक के लिए जनस्वास्थ्य हो सर्वोच्च प्राथमिकता
जलवायु परिवर्तन के मुद्दे अमीर और मध्यम आय वाले देशों से अधिक संबद्ध हैं बजाय गरीबतम देशों के
विश्व बैंक के अगले प्रमुख के रूप में मास्टर कार्ड के प्रमुख रह चुके अजय बंगा के नाम पर अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन सहमति जता चुके हैं। नामांकन प्रक्रिया जब तक पूरी नहीं होती, तब तक अगले कुछ महीनों के दौरान बंगा को कई तरह के सलाह-मशविरे मिलेंगे। जैसा कि राष्ट्रपति स्वयं कह चुके हैं कि बैंक इस वक्त ‘निर्णायक दौर’ से गुजर रहा है। मेरे विचार से विश्व बैंक को बेहतर बनाने के लिए इसे इस प्रकार पुनर्गठित किया जा सकता है —
पहला, प्रचलित कथ्य के विपरीत विश्व बैंक को जलवायु परिवर्तन को अत्यधिक प्राथमिकता नहीं देनी चाहिए। जलवायु परिवर्तन के मुद्दे अमीर और मध्यम आय वाले देशों से अधिक संबद्ध हैं बजाय गरीबतम देशों के। चूंकि गरीब देशों की अर्थव्यवस्था तुलनात्मक दृष्टि से काफी छोटी होती है, इसलिए उन देशों में नियमानुसार कार्बन उत्सर्जन भी कम है। वहां अंदरूनी वायु प्रदूषण जैसे भोजन पकाने के लिए लकड़ी या ईंधन जलाना ही आम तौर पर बड़ी समस्या माना जाता है। ये उत्सर्जन विषाक्त हो सकते हैं और विश्व बैंक को इन्हें कम करने के प्रयास करने चाहिए। पर इससे कार्बन उत्सर्जन में कोई खास कटौती नहीं होगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, वायु प्रदूषण के कारण हर साल करीब 70 लाख लोगों की मौत हो जाती है। गरीब देशों के लिए, जलवायु परिवर्तन की बजाय चिकित्सीय सुविधाओं की समस्या से निपटना बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए।
सच्चाई यह है कि अगर विश्व बैंक कुछ गरीब देशों की सहायता कर उनका स्तर गरीब से मध्यम आयवर्ग वाले देशों तक का कर दे तो जलवायु परिवर्तन समस्याएं अधिक विकट हो जाएंगी, कम से कम कुछ वक्त के लिए। ‘जलवायु परिवर्तन से जुड़ी समस्याओं को हम ही और विकट बनाते हैं’, यह कोई प्रचार लायक नारा नहीं है। लेकिन यह स्वार्थी होने को दर्शाता है ताकि विश्व बैंक पहले से समृद्ध देशों के लिए और अधिक काम करे जबकि गरीब देशों के लिए और कम। निश्चित तौर पर यदि जलवायु परिवर्तन प्राथमिकता में होगा तो यही होगा। और संयोग से विश्व के यही समृद्ध राष्ट्र विश्व बैंक के बड़े शेयरधारक भी हैं। जाहिर है, जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के लिए संपूर्ण विश्व को बहुत कुछ करने की जरूरत है। इसका आर्थिक भार समृद्ध राष्ट्रों पर होना चाहिए, खास तौर पर उनके अनुसंधान एवं विकास व्यय व उपभोग ढांचे को देखते हुए। गरीब देशों में आजीविका के मौजूदा हालात को देखते हुए जलवायु परिवर्तन से मुकाबला जैसी बातें ऐसी विलासिता है, जिसे वे वहन नहीं कर सकते।
अगर कोई क्षेत्र है, जहां विश्व बैंक को ध्यान देना चाहिए तो वह है जनस्वास्थ्य। पिछले कई दशकों से इसमें असाधारण सफलता मिली है। उदाहरण के लिए, अफ्रीका में शिशु मृत्यु दर में तेजी से गिरावट आई है और जनस्वास्थ्य संबंधी कई सूचकांकों में उल्लेखनीय सुधार देखा गया, खास तौर पर बड़े संघर्ष वाले क्षेत्रों के बाहर। तो जहां कारगर साबित हो रहा है, वहां निवेश क्यों न किया जाए?
इसके विपरीत, वैश्विक संस्थानों को अफ्रीका को सौर शक्ति बनाने या वहां छोटे स्तर पर परमाणु संयंत्र विकसित करने में काफी कम सफलता मिली थी। सर्वाधिक लाभकारी व दीर्घकालिक सोच होगी समृद्ध देशों में अनुसंधान एवं विकास पर खर्च करना। इससे ये तकनीक दुनिया के मध्यम आय वाले देशों के लिए इतनी सस्ती पड़ेगी कि वे इसे वित्तीय स्थिरता के साथ अपना सकें। कुछ और नई सौर ऊर्जा सेवाओं के लिए विश्व बैंक से अतिरिक्त वित्तीय सहायता पर्याप्त नहीं होगी। गौरतलब है कि जनस्वास्थ्य संबंधी कार्य आम तौर पर छोटे पैमाने पर किए जाते हैं और इनमें बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार की गुंजाइश कम ही रहती है।
अंतत: विश्व बैंक को अधिक जोखिम लेने पर विचार करना चाहिए। गठन के समय से ही इसकी क्रेडिट रेटिंग शीर्ष पर रही है, इसे शीर्ष पर बनाए रखना तर्कसंगत है। पर क्या बैंक अपना ‘ट्रिपल ए’ क्रेडिट रेटिंग स्तर खोने वाला है? मुश्किल लगता है। अगर किसी कारणवश विश्व बैंक वित्तीय मुश्किल में फंस भी जाता है तो समृद्ध देश उसे पुन: पूंजी दे सकते हैं; राजनीतिक तौर पर यह शर्मिंदगी का कारण हो सकता है पर मौजूदा हालात में ऐसा जोखिम लिया जा सकता है।
1944 में इसकी स्थापना से लेकर जून 2021 तक बैंक के शेयरधारक देशों ने बैंक की मुख्य ऋणदाता इकाई को कुल 19.2 बिलियन डॉलर की पूंजी दी है। इससे ऋण एवं बैंक की अन्य सेवाओं को 750 बिलियन डॉलर से अधिक की सहायता मिली है (बैंक के अधिकतर लोन स्ववित्तपोषित होते हैं)। अगर यह अच्छा निवेश है तो क्यों न इस मार्जिन पर अधिक निवेश किया जाए? विश्व बैंक के निर्णय अब तक किसी बड़े, या छोटे वित्तीय संकट की वजह नहीं बने हैं। विश्व बैंक का यथावत बने रहना कोई मायने नहीं रखता। जी-20 की एक समीक्षा, जिसे स्वतंत्र विशेषज्ञों ने अंजाम दिया, में पाया गया कि ऋणदायी गतिविधियों का विस्तार कर बैंक के संसाधनों व इसकी विशिष्ट स्थिति का बेहतर इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके प्रति बैंक की सामान्य प्रतिक्रिया एक तरह से घबराहट भरी रही। बैंक को डर था कि उसका स्तर कुछ घट जाएगा; पर यहां यह सवाल जरूरी है कि वैश्विक समस्याओं के सामने इन चिंताओं का महत्त्व कितना है। बंगा को हिम्मत के साथ इस सवालों और मसलों का सामना करना होगा।