मतदाता चाहते हैं कि विपक्ष सरकार को विकास, महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दे पर घेरे
2007 में सोनिया गांधी मोदी को ‘मौत का सौदागर’ कहकर इसका खामियाजा भुगत चुकी हैं। उसी साल हुए गुजरात विधानसभा चुनावों में मोदी ने शानदार जीत दर्ज की थी। लेकिन कांग्रेस अपनी गलतियों से सीखने को तैयार नहीं है। 2014 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने मोदी को ‘चायवाला’ कहा था। नतीजा, मोदी राजीव गांधी के बाद सबसे बड़ा बहुमत लाकर प्रधानमंत्री बन गए।
2019 में मोदी ने कहा कि भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए वे भारत के चौकीदार की तरह हैं। इसके बाद राहुल गांधी अपनी हर चुनावी सभा में दोहराते रहे- ‘चौकदार चोर है!’ परिणाम, मोदी लगातार दूसरी बार प्रधानमंत्री चुने गए, इस बार पहले से भी अधिक बड़े बहुमत से!
तो क्या अब जाकर कांग्रेस अतीत की गलतियों से सबक लेकर उनमें सुधार करेगी? लगता तो नहीं। दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के सहयोगी रहे पवन खेड़ा ने मोदी के पिता का नाम बदलकर उन्हें दामोदरदास के बजाय ‘गौतमदास’ कहकर पुकारा। वे गौतम अदाणी की ओर इशारा कर रहे थे। खेड़ा ने सीमाएं लांघ दीं। इससे तीन बातें स्पष्ट हुई हैं।
एक, कांग्रेस सुधरने को तैयार नहीं है और मोदी को कोसकर अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने की भूल करती है। दो, भाजपा भी ओवर-रिएक्ट करने की दोषी है। खेड़ा को गिरफ्तार करने की कोई जरूरत नहीं थी, क्योंकि इससे कांग्रेस को विक्टिम कार्ड खेलने का मौका मिल गया। तीन, सर्वोच्च अदालत ने निरंतरता का परिचय नहीं दिया है। उसने अभिषेक मनु सिंघवी और कपिल सिब्बल जैसे वरिष्ठों के मामलों में सुनवाई की जैसी तत्परता दिखाई थी, वैसी दूसरों के लिए नहीं दिखाई।
कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों को यह बात समझ लेना चाहिए कि जिस वर्ग को ‘साइलेंट मेजोरिटी’ कहा जाता है, उसमें गुस्सा बढ़ता जा रहा है। यह वर्ग भले सोशल मीडिया पर या सार्वजनिक विमर्श में दिखलाई न दे, लेकिन वह चीजों पर पैनी नजर बनाए रखता है। भाजपा भी निश्चिंत होने की भूल नहीं कर सकती। एंटी-इंकम्बेंसी एक ऐसा फॉर्मूला है, जो देर-सबेर चलता ही है।
यही कारण था कि मोदी और अमित शाह ने मेघालय, त्रिपुरा और नगालैंड में जमकर चुनाव-प्रचार किया। अब उन्होंने अपना ध्यान कर्नाटक पर केंद्रित कर दिया है, जहां इस साल होने जा रहे विधानसभा चुनावों में भाजपा को कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ेगा।
‘साइलेंट मेजोरिटी’ बहुत कुछ माफ करती है लेकिन इस बात के लिए नहीं बख्शती कि उन्हें हलके में लिया जा रहा है या नीचा दिखाया जा रहा है। मोदी ने बहुत पहले ही यह सबक सीख लिया था। अतीत में उन्होंने भी एक कांग्रेस नेता की दिवंगत पत्नी पर अशालीन टिप्पणी की थी, लेकिन हाल के सालों में उन्होंने अपने वक्तव्यों को संयमित बना लिया।
वे अब भी वंशवाद और भ्रष्टाचार पर जमकर प्रहार करते हैं, लेकिन व्यक्तिगत टीका-टिप्पणियों से उन्होंने परहेज कर लिया है। जब सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा था कि सार्वजनिक विमर्श की एक मर्यादा होनी चाहिए, तो वे एक चेतावनी ही दे रहे थे। क्योंकि भाषा का संयम नहीं रखने वालों को ‘साइलेंट मेजोरिटी’ अवश्य दंडित करती है।
मतदाता चाहते हैं कि विपक्षी दल मोदी सरकार को विकास, महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दे पर घेरें। लेकिन मोदी पर लगाया जाने वाला साम्प्रदायिकता का आरोप तब स्वत: ही निर्मूल सिद्ध हो जाता है, जब वोटर पाते हैं कि बिजली, पानी, टॉयलेट्स, रसोई गैस, स्वास्थ्य बीमा, खाद्य सबसिडी, डिजिटलीकरण आदि की सुविधाएं किसी का धर्म या जाति पूछकर नहीं दी जाती हैं। सड़कें, पुल, हवाई अड्डे, पॉवर प्लांट्स सभी के लिए समान रूप से उपयोगी हैं।
वैसे यह भाजपा के लिए अच्छी ही बात है कि विपक्षी दल विभाजित और लक्ष्य से भटके हुए हैं। भारत जोड़ो यात्रा के बाद कांग्रेस को लगा था कि राहुल गांधी अब स्थापित हो चुके हैं, लेकिन हाल के कुछ इवेंट्स ने राहुल 2.0 की चमक थोड़ी धुंधली की है। अगर राहुल निजी छींटाकशियों के विरुद्ध स्टैंड नहीं लेंगे तो 2024 में कांग्रेस की सम्भावनाओं को ही क्षति पहुंचाएंगे।
जब सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा था कि सार्वजनिक विमर्श की एक मर्यादा होनी चाहिए, तो वे एक चेतावनी ही दे रहे थे। क्योंकि भाषा का संयम नहीं रखने वालों को ‘साइलेंट मेजोरिटी’ दंडित करती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)