चुनाव सुधार की दिशा में मील का पत्थर
हो सकता है मैं आपके विचारों से सहमत न हो पाऊं फिर भी विचार प्रकट करने के आपके अधिकारों की रक्षा करूंगा। द्गवाल्तेयर …
पिछले कुछ सालों में चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर लगातार सवाल उठते रहे हैं। आरोप लगता रहा है कि सरकारों द्वारा अपने पसंदीदा अफसरों को चुनाव आयुक्त नियुक्त करते समय उनके रिटायरमेंट को भी ध्यान में नहीं रखा जाता। क्योंकि इस पद के लिए अधिकतम आयु सीमा 65 साल है इसलिए वर्ष 2007 के बाद से कोई भी सीईसी अपना छह साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया। पिछले साल 19 नवंबर को जब अरुण गोयल को चुनाव आयुक्त नियुक्त किया गया तब सुप्रीम कोर्ट ने खासी नाराजगी जताई थी। गोयल के वीआरएस लेने के 24 घंटे के भीतर हुई इस नियुक्ति की प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने संबंधित दस्तावेज तलब किए थे और जानना चाहा था कि इतनी हड़बड़ी में नियुक्ति क्यों हुई? सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला संसद में इससे संबधित कानून बनाए जाने तक तुरंत प्रभाव से लागू हो गया है। चूंकि संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से फैसला सुनाया है, इसलिए इस बात की संभावना काफी कम है कि यदि इसे चुनौती दी गई तो कोई बदलाव होगा। इस फैसले से चुनाव आयोग के कामकाज में क्रांतिकारी बदलाव आने की उम्मीद है। चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति सरकार करती रही है, इसलिए आयोग विपक्ष के निशाने पर आता रहा है। अब नियुक्ति प्रक्रिया में नेता प्रतिपक्ष या लोकसभा में सबसे बड़े विरोधी दल के नेता की भागीदारी होने पर आयोग की निष्पक्षता पर सवाल शायद ही खड़े हों।
मामले की सुनवाई के दौरान पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की थी कि हमें ऐसा सीईसी चाहिए जो प्रधानमंत्री के खिलाफ भी फैसला ले सके। लोकतंत्र की मजबूती चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता पर निर्भर करती है और चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता चुनाव आयुक्तों की बेदाग और पारदर्शी नियुक्ति पर। इसलिए आने वाले समय में देश की चुनाव प्रक्रिया में कई और अहम सुधार देखने को मिल सकते हैैं।