हम जो भी कहते या करते हैं, उसे पूरी दुनिया में देखा जाता है, इसे ध्यान में रखना चाहिए
राहुल गांधी द्वारा कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी और ब्रिटिश संसद में दिए भाषणों पर खासा विवाद खड़ा हो गया है। भाजपा राहुल गांधी से मांग कर रही है कि वे भारत को बदनाम करने के लिए माफी मांगें। यह तो साफ है कि देश की अंदरूनी समस्याओं के बारे में विदेश में बात करने के लिए बड़ी सूक्ष्मता और परिष्कार की आवश्यकता है।
देश के भीतर राजनीतिक पार्टियां खुलेआम एक-दूसरे की आलोचना कर सकती हैं, लेकिन जब हम विदेश में होते हैं, तो उन्हीं बिंदुओं पर चर्चा करते समय यह खयाल रखते हैं कि हमारी बातों से देश की सार्वजनिक छवि को नुकसान न पहुंचे। इसका यह मतलब नहीं है कि देश के भीतर एक-दूसरे से भिन्न विचारों का दम घोंट दिया जाए। लेकिन विदेश में बोलते समय हमें श्रोताओं को यह बताना चाहिए कि हमारी दृष्टि में भारत का विचार क्या है और वर्तमान भारत उसके अनुरूप है या नहीं।
तब हम यह कह सकते हैं कि हर लोकतंत्र की तरह भारत भी परफेक्ट नहीं है और उसमें सुधार की जरूरत है, लेकिन अतीत में एकाधिक अवसरों पर भारत ने दर्शाया है कि वह अपनी अंदरूनी समस्याओं को लोकतांत्रिक रूप से सुलझाने में सक्षम है। ऐसा कहना व्यावहारिक भी है और विचारधारागत भी।
व्यावहारिक इसलिए, क्योंकि जब हम देश की निंदा करते हैं तो यह आम भारतीय को अच्छा नहीं लगता, फिर वह चाहे भारतवासी हों या प्रवासी भारतीय। वे चाहते हैं कि देश में चाहे जितनी समस्याएं हों लेकिन विदेश में देश की छवि पर बट्टा नहीं लगना चाहिए।
विचारधारागत इसलिए, क्योंकि कुछ भी पूरी तरह से अच्छा और पूरी तरह से बुरा नहीं होता। जब हम देश में हो रही घटनाओं की आलोचना करते हैं तो साथ ही हमें आने वाले कल में देश की क्षमताओं के प्रति आशाएं और विश्वास भी जताना चाहिए, क्योंकि तब वह अधिक विश्वसनीय, परिपक्व और वस्तुनिष्ठ होता है।
यही कारण है कि जब राहुल विदेशी श्रोताओं के सामने कहते हैं कि नरेंद्र मोदी देश के ढांचे को तहस-नहस कर रहे हैं और देश को विखंडन की ओर ले जा रहे हैं, तब वे किसी भी सूक्ष्म आकलन के लिए जगह नहीं छोड़ते। इससे बेहतर तरीका उन मूल्यों और आदर्शों को याद करना होता, जिन्होंने कांग्रेस को प्रेरित किया है, जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन को गति दी थी और जो हमारे संविधान में निहित हैं।
इस संदर्भ में राहुल कह सकते थे कि अगर भारत के संविधान को कोई खतरा उत्पन्न होता है और नागरिकों की स्वतंत्रता का हनन किया जाता है तो कांग्रेस बढ़-चढ़कर इसका प्रतिकार करेगी। आखिर जब आपातकाल लगाया गया था, तब देश की जनता ने ही उसका प्रतिकार करते हुए कांग्रेस को परास्त कर दिया था। लेकिन अगर कोई यह संकेत करता है कि भारत के अंदरूनी मामलों को सुलझाने के लिए विदेशी हस्तक्षेप की जरूरत है, तो उसके लिए यह राजनीतिक आत्मघात से कम नहीं।
साथ ही, यह कहना एक बात है कि कांग्रेस मीडिया और न्यायपालिका जैसी संस्थाओं को पहुंचाई जा रही क्षति के विरुद्ध आंदोलन करेगी- जैसा कि उसने भारत जोड़ो यात्रा के माध्यम से करके दिखाया भी- पर यह कहना दूसरी बात है कि इन संस्थाओं का अस्तित्व ही अब समाप्त हो चुका है। इस तरह से तो आप भारत को एक ‘बनाना-रिपब्लिक’ के रूप में ही चित्रित करेंगे।
मैं खुद एक डिप्लोमैट रहा हूं और देश की छवि की रक्षा करना मेरी पेशेवर जिम्मेदारी रही है। जब मैं राजनीति में आया तो अकसर मेरे श्रोताओं में विदेशी शामिल हुआ करते थे। जब भी मैंने देश की समस्याओं पर बातें रखीं, कभी सरकार को खारिज नहीं किया। हमेशा यही कहा कि भारतीय अपने मतभेदों को सुलझाने में सक्षम हैं और मुझे देश के भविष्य में पूरा भरोसा है।
वैसे भी जब राहुल लोकतंत्र और संवाद की बात करते हैं तो यह इसलिए निष्प्रभावी लगता है, क्योंकि वे लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित किसी पद पर हुए बिना एक ऐसी पार्टी के परोक्ष रूप से प्रमुख बने हुए हैं, जो किसी प्रकार की असहमति या आलोचना को बर्दाश्त नहीं करती।
जब राहुल गांधी खुद कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में पार्टी के जी-23 नेताओं पर प्रहार करते हैं तो लोकतांत्रिक संवाद का कोई बहुत अच्छा उदाहरण नहीं प्रस्तुत कर रहे होते हैं। भाजपा ने भी राहुल की बातों की आलोचना करते हुए राष्ट्रवाद की भावनाओं को भड़काने की कोशिश करके बहुत संतुलित प्रतिक्रिया नहीं दी। आज भारत पर सबकी नजर है और हम अपने देश में जो भी कहते या करते हैं, उसे पूरी दुनिया में देखा जाता है, इसे ध्यान में रखा जाना चाहिए।
जब राहुल गांधी विदेशी श्रोताओं के सामने कहते हैं कि नरेंद्र मोदी देश के ढांचे को तहस-नहस कर रहे हैं और देश को विखंडन की ओर ले जा रहे हैं, तब वे किसी भी सूक्ष्म आकलन के लिए जगह नहीं छोड़ते।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)