किस अंजाम तक पहुंचेगा विपक्षी मोर्चेबंदी का सफर

सामयिक: जहां सरकार को घेरने के लिए मुद्दे हैं, तो कांग्रेस को घेरने के लिए भी मुद्दों की कमी नहीं …

देखना है कि इस बार कौन-सा मुद्दा चुुनाव के केन्द्र बिन्दु में रहता है? देखना यह भी दिलचस्प होगा कि विपक्षी मोर्चेबंदी का यह सफर अंजाम तक पहुंचता है या नहीं। अभी राजनीति की गंगा में बहुत पानी बहना बाकी है।

चु नावों का साल होने के कारण देश का राजनीतिक मौसम भी तेजी से बदल रहा है। लोकसभा चुनाव में यों तो एक साल से भी ज्यादा का समय है, लेकिन केन्द्र में सत्ता की सवारी को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष में चुनावी मोर्चेबंदी शुरू हो गई है। एक तरह से अनायास हाथ लगे मुद्दों से समय से पहले ही चुनावी माहौल गरमाने लगा है। इसमें भूमिका इस साल होने वाले कर्नाटक समेत अन्य राज्यों के विधानसभा चुनावों की भी है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी को मानहानि मामले में दो साल की सजा और फिर लोकसभा सदस्यता की समाप्ति ने माहौल गरमाने में बड़ी भूमिका निभाई है।

देखा जाए तो सीबीआइ और ईडी जैसी केंद्रीय जांच एजेंसियों पर अतीत में भी विपक्षी नेताओं के खिलाफ राजनीति प्रेरित अति सक्रियता के आरोप लगते रहे हैं। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्रित्वकाल में विपक्ष के ऐसे आरोप ज्यादा लगे हैं। दिल्ली के उप मुख्यमंत्री रहे मनीष सिसोदिया की शराब नीति घोटाले में गिरफ्तारी के बाद नौ प्रमुख विपक्षी नेताओं ने प्रधानमंत्री को इसे लेकर लंबा पत्र भी लिखा। विपक्ष का आरोप है कि देश में लोकतंत्र को तानाशाही में बदला जा रहा है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी को मानहानि के मामले में दो साल की सजा सुनाने और परिणामस्वरूप उनकी सांसदी चले जाने के बाद कमोबेश समूचा विपक्ष ही संसद से सड़क तक एकजुट नजर आ रहा है। कांग्रेस से दूर-दूर रहने वाले दल जैसे तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, समाजवादी पार्टी और बीआरएस भी आज उसके साथ खड़े नजर आते हैं।

विपक्ष की एकजुटता और यह आक्रामकता ऐसे ही नहीं हुई है। पिछले साढ़े आठ साल तक विपक्ष महंगाई, बेरोजगारी, आर्थिक विषमता जैसे तमाम मुद्दों पर केंद्र की मोदी सरकार को घेरने की कोशिश करता रहा, लेकिन न तो एकजुट होने में मदद मिली और न ही खास चुनावी कामयाबी मिल पाई। हालांकि पिछले साल हिमाचल प्रदेश की सत्ता भाजपा के हाथ से फिसल जाना झटका था, लेकिन देश के एकतरफा राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव की शुरुआत हुई अडानी समूह की कथित कारगुजारियों का खुलासा करने वाली अमरीकी कंपनी हिंडनबर्ग की रिपोर्ट से। अडानी औद्योगिक घराने को कथित फायदा पहुंचाने के आरोपों से ऐसा लगा मानो विपक्ष के तरकश में मनोवांछित तीर आ गया हो। अडानी प्रकरण की जांच के लिए अब विपक्ष जेपीसी गठित करने की मांग पर अड़ा है, जिसे सत्तापक्ष सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस बाबत गठित जांच कमेटी के तर्क के सहारे नकार रहा है।

बेशक बजट सत्र में अवकाश के दौरान विदेश गए कांग्रेस नेता राहुल गांधी द्वारा वहां देश में लोकतंत्र के हाल पर चिंता जताने से सत्तापक्ष को भी आक्रामक होने का मुद्दा मिल गया। सत्तापक्ष ने राहुल गांधी के आचरण को राष्ट्रविरोधी करार देते हुए उनसे माफी की मांग की। राहुल ने इस मामले में चार केंद्रीय मंत्रियों द्वारा संसद में लगाए गए आरोपों पर अपना पक्ष रखने के लिए स्पीकर से बोलने का समय भी मांगा। इस बीच अदालत ने मानहानि के मामले में कांग्रेस नेता राहुल गांधी को दो साल की सजा सुना दी। सजा के फैसले के परिणामस्वरूप लोकसभा की सदस्यता समाप्ति का फरमान जारी हुआ, जिसे लोकतंत्र और जनता की आवाज कुचलने की कोशिश करार देते हुए पूरा विपक्ष लामबंद हो गया है।

जाहिर है, दोनों पक्षों के पास अपने-अपने मुद्दे हैं। सत्तापक्ष के पास राहुल द्वारा देश में लोकतंत्र पर विदेश में चिंता जताने का मुद्दा तो है ही, मानहानि मामले को भी उसने ओबीसी के अपमान का मुद्दा बना दिया है। लोकसभा चुनावों में अभी साल भर का समय है। ये मुद्दे तो राजनीतिक फिजा में तैरते ही रहेंगे। कुछ और मुद्दे सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच आरोप—प्रत्यारोप का कारण बन सकते हैं। देश में हर लोकसभा चुनाव अलग—अलग मुद्दों पर लड़ा भी जाता रहा है और हार-जीत भी उन्हीं मुद्दों के आसपास घूमती नजर आती है। देखना है कि इस बार कौनसा मुद्दा चुुनाव के केन्द्र बिन्दु में रहता है? देखना यह भी दिलचस्प होगा कि विपक्षी मोर्चेबंदी का यह सफर अंजाम तक पहुंचता है या नहीं। अभी राजनीति की गंगा में बहुत पानी बहना बाकी है।

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