2024 के चुनावों में ‘कौन बनेगा चैलेंजर?
2024 के चुनावों में ‘कौन बनेगा चैलेंजर?’, ‘अच्छे दिनों’ का विपक्षी वर्शन …
बीते कुछ सालों से भारतीय राजनीति में एक धारावाहिक चल रहा है : केबीसी यानी ‘कौन बनेगा चैलेंजर?’ हर साल एक नया दावेदार उभरकर सामने आ जाता है। लेकिन अब जब आम चुनावों को मात्र 12 महीने शेष रह गए हैं तो यह केबीसी फैक्टर अपने सबसे दिलचस्प दौर में प्रवेश कर चुका है। क्या हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मुकाबला करने वाले किसी एक चैलेंजर को उभरता हुआ देखेंगे और विपक्षी दल तमाम संदेहों को झुठलाते हुए एकजुट होकर किला भिड़ा सकेंगे?
2021 में ममता बनर्जी को केबीसी की फाइनलिस्ट के तौर पर देखा जा रहा था। उन्होंने गजब के जुझारूपन का परिचय देते हुए बंगाल में सर्वशक्तिमान भाजपा को परास्त किया था। लेकिन जैसे ही उन्होंने बंगाल से बाहर अपना दायरा बढ़ाना चाहा, वे लड़खड़ा गईं।
गोवा एक जटिल और अत्यंत लोकलाइज्ड राज्य है, जहां टीएमसी आउटसाइडर के तमगे से मुक्त नहीं हो पाई। ममता की सबसे बड़ी ताकत ‘बंगाल की बेटी’ की छवि की है, लेकिन बंगाल से बाहर यही उनकी कमजोरी बन गई। जैसे ही भाजपा ने उनके परिवार को निशाना बनाया और उनके बड़े मंत्रियों के भ्रष्टाचार को उजागर किया, ममता की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाएं क्षीण हो गईं और वे बंगाल के अपने किले को बचाने पर ज्यादा ध्यान देने लगीं।
2022 का साल अरविंद केजरीवाल के नाम था। उन्हें पंजाब में बड़ी सफलता मिली थी और उससे साबित हो गया था कि वे केवल एक राज्य के नेता नहीं हैं। इससे एक राष्ट्रीय नेता बनने के केजरीवाल के अरमानों को भी पर लगे और उन्होंने गुजरात में नरेंद्र मोदी को चुनौती देने का फैसला कर लिया।
वहां ‘आप’ ने जोशो-खरोश से प्रचार-अभियान चलाया। भाजपा ने तुरंत इसकी प्रतिक्रिया की और केजरीवाल के करीबियों ने खुद को दिल्ली शराब घोटाले में लिप्त पाया। भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई ‘आप’ की यूएसपी थी, लेकिन अब उसमें दाग लग गया है।
2023 में केबीसी ड्रामा में नया ट्विस्ट आया। बीते कुछ महीनों में राहुल गांधी ने खुद को री-इन्वेंट किया और एक बार फिर से खुद को प्रधानमंत्री को चुनौती देने वाले नेता के रूप में प्रस्तुत कर दिया। भारत जोड़ो यात्रा को जिस तरह से लोगों का समर्थन मिला, उसने लस्त-पस्त हो चुके कांग्रेस के संगठन में जान डाल दी।
मानहानि के मामले में सांसदी गंवाने के बाद राहुल के पास खुद को विक्टिम दिखाने का भी अवसर है। आज जब विपक्ष के नेतागण कम से कम प्रतिकार की रणनीति का पालन कर रहे हैं, तब सरकार पर राहुल के नि:संकोच प्रहार उनकी ताकत बन चुके हैं। लेकिन उनके नेतृत्व में कांग्रेस दो बार लोकसभा चुनाव बुरी तरह से हार चुकी है और विपक्षी नेता इस पर विश्वास नहीं कर पा रहे हैं कि वे एक मजबूत विकल्प बन सकेंगे।
सच्चाई यह है कि आज जब समान अवसरों के सिद्धांत को तिलांजलि दे दी गई है, तब विपक्षी दल बार-बार अलग-अलग नेताओं पर भाग्य आजमाकर संतुष्ट नहीं हो सकते। संस्थाओं की निष्ठा कुछ इस कदर सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में हो चुकी है कि मोदी जैसे लार्जर-दैन-लाइफ व्यक्तित्व को चुनौती देना विपक्ष के लिए मुश्किल साबित होता जा रहा है।
जब प्रवर्तन एजेंसियों के 95 प्रतिशत मामले विपक्षी नेताओं पर दर्ज हों, जब इलेक्टोरल बॉन्ड्स ने एक पार्टी को असीमित संसाधन मुहैया करा दिए हों, जब चुनाव आयोग से सूचना आयोग तक संवैधानिक संस्थाएं सरकार पर अंकुश लगाने से झिझकती हों, जब न्यायपालिका की कथनी उसकी करनी से अधिक मुखर हो, जब संसद को ठप कर दिया जाए और मीडिया की लगाम कस दी जाए, तो मुखालफत का झंडा भला कौन बुलंद कर सकेगा?
1977 में इंदिरा गांधी को हार का सामना करना पड़ा था। इसका कारण यह नहीं था कि रातोंरात राजनीतिक विपक्ष की विश्वसनीयता बहाल हो गई थी। क्योंकि उस समय बहुतेरे विपक्षी नेता अपने करियर की संध्यावेला में थे। न ही जनता पार्टी के बीच किसी तरह का विचारधारागत सामंजस्य था।
अनेक मसलों पर समाजवादी और जनसंघी एक-दूसरे के खिलाफ थे। लेकिन इसके बावजूद वे इसलिए एक हो गए थे, क्योंकि इंदिरा गांधी द्वारा अलोकतांत्रिक ढंग से लगाए आपातकाल के कारण उनके अस्तित्व पर संकट उत्पन्न हो गया था। जनता की नजर में विपक्षी दल न्याय की लड़ाई लड़ रहे थे और इस आम धारणा ने उनका बेड़ा पार लगाया था।
आज के विपक्ष के सामने भी अस्तित्व का संकट है, लेकिन जब वे ‘लोकतंत्र खतरे में है’ का नारा बुलंद करते हैं तो यह भावना जनता तक नहीं पहुंचती। देश में औपचारिक रूप से तो आपातकाल नहीं है, लेकिन ईडी के डर से विरोधी आवाजें धीरे-धीरे एक हो रही हैं।
वरना क्या कारण हो सकता है कि केसीआर अचानक तेलंगाना में उनकी प्रमुख प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस से बातचीत करने में रुचि लेने लगे हैं? क्योंकि उनकी बेटी शराब घोटाले में फंस गई हैं। दूसरी तरफ दिल्ली में उपमुख्यमंत्री के जेल जाने के बाद ‘आप’ भी संसद में कांग्रेस से सहभागिता करने में इच्छुक हो गई है। लेकिन डर के माहौल भर से तो नैरेटिव नहीं बदल जाता।
2014 में मोदी ने ‘अच्छे दिन’ का नारा दिया था। अब वे ‘अमृत काल’ की बात कर रहे हैं और आने वाले 25 सालों का रोड-मैप सामने रख रहे हैं। क्या विपक्षी नेता अच्छे दिनों का अपना कोई वर्जन पेश कर सकते हैं? जो ऐसा करेगा, वही कौन बनेगा चैलेंजर का विजेता घोषित किया जाएगा!
‘अच्छे दिनों’ का विपक्षी वर्शन
विपक्षी दलों को देश की जनता को भरोसा दिलाना होगा कि वे एक विश्वसनीय राजनीतिक विकल्प की तलाश कर रहे हैं और यह तभी सम्भव है, जब वे साझा मंच पर आकर एक लोकप्रिय एक्शन-प्लान पर काम करें। क्या विपक्षी दल लोगों को यकीन नहीं दिला सकते कि वे एक बेहतर भारत के निर्माण की कोशिशों में लगे हैं? क्या वे ‘अच्छे दिन’ का अपना वर्जन पेश कर सकते हैं?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)