हर जगह फैले टिटेनस के जर्म्स ..!

आज भी न टेस्ट-न इलाज, इन्फेक्शन लेता 90% बच्चों की जान, हर 5 साल में टीका जरूरी ….

टिटेनस ऐसी जानलेवा बीमारी है, जिससे हर साल हजारों जानें जाती हैं, लेकिन आजतक इसका कोई इलाज नहीं मिल पाया। यह बीमारी नर्वस सिस्टम पर अटैक करती है। जबड़े जकड़ जाते हैं और इतना कसकर जकड़ते हैं कि जैसे किसी ने मुंह पर ताला लगा दिया हो, इसीलिए टिटेनस को ‘लॉकजॉ’ भी कहते हैं।

बदन अकड़ कर धनुष की तरह मुड़ जाता है। इसी वजह से आयुर्वेद में इस बीमारी को ‘धनुस्तंभ’ भी कहा जाता है। इसमें शरीर की मांसपेशियां सिकुड़ने, ऐंठने लगती हैं, जिससे शरीर की हड्डियां तक टूट जाती हैं। हार्ट और किडनी फेल हो जाते हैं।

हर जगह फैले टिटेनस के ‘बीज’, हाई टेम्प्रेचर पर भी नहीं मरते …

टिटेनस इन्फेक्शन ‘क्लॉस्ट्रिडियम टेटानी’ नाम के बैक्टीरिया से होता है। ये बैक्टीरिया ऑक्सीजन की मौजूदगी में जिंदा नहीं रह पाता। इसके बैक्टीरिया धूल, मिट्‌टी, गोबर और जानवरों के मल में मौजूद रहते हैं। जिसे मेडिकल भाषा में स्पोर (spore) कहते हैं, यानी बीजाणु, जो पौधे के बीज की तरह काम करता है। यह 40 से 60 साल तक जिंदा रह सकता है। ऑक्सीजन न होने पर यह बैक्टीरिया से तेजी से बढ़ता है।

जब इसका इंफेक्शन शरीर के चोट लगे हिस्से या घाव में पहुंचता है, तो बैक्टीरिया वहां से शरीर के अंदर चला जाता है। टिटेनस का बैक्टीरिया इतना मजबूत होता है कि एंटीसेप्टिक से भी नहीं मरता। अधिकतर दवाइयां भी उसपर असर नहीं करतीं। पानी में उबालने और बर्फ में जमाने से भी जर्म्स नहीं मरते। टिटेनस के बैक्टीरिया को हाई प्रेशर और 121 डिग्री टेम्प्रेचर पर मारने में भी 15 से 20 मिनट लग जाते हैं।

इसलिए चोट लगते ही तुरंत फर्स्ट ऐड जरूरी है, ताकि टिटेनस का इंफेक्शन न हो…

टिटेनस और जंग लगे लोहे में क्या है रिलेशन

आप सोच रहे होंगे कि टिटेनस तो जंग लगी लोहे की चीज से चोट पहुंचने और कटने से होता है। लेकिन, अरसे से धूल-मिट्टी और गर्द में पड़ी लकड़ी, प्लास्टिक या कोई भी ऐसी चीज, जिसमें बैक्टीरिया है, अगर उससे चोट लगती है, तो भी टिटेनस हो सकता है।

और, जंग से लोहे से बचने के लिए इसलिए कहा जाता है, क्योंकि जंग से लोहा खुरदुरा हो जाता है। जिससे बैक्टीरिया आसानी से उसमें चिपक जाते हैं। फिर जब ऐसी जंग लगी चीज से चोट लगती है, तो बैक्टीरिया घाव में पहुंच जाते हैं।

मणिपाल हॉस्पिटल, जयपुर में सीनियर कंसल्टेंट डॉ. रविकांत पोरवाल बताते हैं कि टिटेनस का इन्फेक्शन सिर्फ तभी होता है, जब स्किन पर किसी भी तरह का कोई कट लग जाए और उस घाव के जरिए बैक्टीरिया टिश्यूज तक पहुंच जाता है।

लोग आज भी जले या कटे घाव पर गोबर लगा लेते हैं, ऐसा करना टिटेनस को न्योता देना है…

जानलेवा जहर शरीर में पहुंचता है

शरीर में जाते ही ये बैक्टीरिया ब्लड में टेटानोस्पास्मिन और टेटानोलीसिन नाम के जहर छोड़ते हैं। यह जहर मसल्स और न्यूरॉन्स पर अटैक करते हैं। टिश्यूज को डैमेज करते हैं। इससे न्यूरॉन्स और मसल्स को एक्टिव रखने वाला सिस्टम पूरी तरह डगमगा जाता है। टिश्यूज इनएक्टिव होते हैं या यूं कहें कि लकवा मार जाता है। मसल्स ऐंठने और सिकुड़ने के कारण फट जाती हैं।

यह जहर सेंट्रल नर्वस सिस्टम में घुसकर न्यूरोट्रांसमीटर को ठप कर देता है। न्यूरोट्रांसमीटर एक तरह से बॉडी का कम्यूनिकेशन सिस्टम है। कब, कहां, क्या करना है, यह बताना उसका काम है। इन्फेक्शन के 2 से 14 दिन बाद सेहत बिगड़ने लगती है।

एक बार टिटेनस का यह जहर दिमाग तक पहुंच जाता है, तो बचने की उम्मीद नहीं रहती। बॉडी वर्क करना छोड़ देती है। पसीना आने लगता है। ब्लड प्रेशर तेजी से घटता-बढ़ता है। हार्ट बीट कभी धीमी, कभी तेज होती है। आखिर में कार्डिएक अरेस्ट से दिल अचानक काम करना बंद कर देता है।

धनुष की तरह क्यों मुड़ जाता है शरीर

डॉ.  … बताते हैं कि टिटेनस का जहर मसल्स और न्यूरॉन्स को प्रभावित करता है और बॉडी की मसल्स अकड़ने लगती हैं। शरीर धनुष की तरह मुड़ जाता है। इसे एडवांस या प्रोग्रेसिव टिटेनस कहते हैं।

इन्फेक्शन जैसे-जैसे बढ़ता है, उसके गंभीर असर नजर आते हैं…

दम घुटना: टिटेनस के इन्फेक्शन से सांस, गले और पेट की मसल्स का सिकुड़कर अकड़ना। सांस लेने में कठिनाई और दम घुटना।

फेफड़ों में ब्लॉकेज: जहर के कारण फेफड़ों में ब्लड क्लॉट्स का पहुंचना। नसों का ब्लॉक होना।

निमोनिया: फेफड़ों में इन्फेक्शन से निमोनिया होना।

हड्डियों में फ्रैक्चर: सिकुड़तीं मांसपेशियां का फटना। शरीर की हड्डियों का टूटना।

जान पर बनना: नर्वस सिस्टम और ब्रीदिंग में मुश्किल। टिटेनस के शिकार 10 में से 2 मरीज बच नहीं पाते।

90 फीसदी मामलों में बच्चे की जान चली जाती है

रोजवॉक हॉस्पिटल, दिल्ली में गाइनेकोलॉजिस्ट डॉ. शैली बताती हैं कि प्रेग्नेंसी के दौरान मां से बच्चे को भी टिटेनस हो सकता है। इसे मैटर्नल टिटेनस कहते हैं। जबकि, जन्म के 28 दिनों के भीतर हुआ इन्फेक्शन ‘नियोनेटल टिटेनस’ कहलाता है। WHO के मुताबिक नियोनेटल टिटेनस में जन्म के बाद 2 दिन तक तो बच्चे रो सकते हैं, स्तनपान कर सकते हैं, लेकिन 3 से 28 दिन के भीतर बच्चे की मसल्स अकड़ने लगती हैं।

डिलीवरी और नाल काटते समय लापरवाही करना मां-बच्चे दोनों के लिए खतरनाक है। इस कारण होने वाले टिटेनस से 90% नवजात बच्चों की जान चली जाती है।

छोटे बच्चे अक्सर मिट्‌टी और आसपास पड़ी चीजें मुंह में डाल लेते हैं। अगर इन चीजों में टिटेनस का बैक्टीरिया मौजूद है और बच्चों के मुंह में बहुत हल्का सा भी घाव है, तो उनकी यह आदत उन्हें टिटेनस का शिकार बना सकती है।

प्रेग्नेंसी के दौरान टिटेनस का टीका क्यों जरूरी

डॉ. शैली के मुताबिक बच्चे को तुरंत पैदा होते ही वैक्सीन नहीं दी जा सकती। उस वक्त मां से मिली इम्यूनिटी ही उसे बचाती है। इसलिए मां को प्रेग्नेंसी की शुरुआत में टिटेनस टॉक्सॉइड (TT) की 2 डोज दी जाती हैं। यह गर्भनाल के जरिए बच्चे को भी सुरक्षित करती है। अगर प्रेग्नेंसी से पहले 3 साल के अंदर टिटेनस का टीका नहीं लगा है, तो तीसरी डोज भी दी जाती है।

सिर्फ बड़ों को ही नहीं, बच्चों को भी नियमित तौर पर टीके लगवाने चाहिए, साथ ही पूरा रिकॉर्ड भी रखना चाहिए कि कौन सा टीका कब लगा..

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कुत्ते-बिल्ली के काटने पर भी टिटेनस का टीका जरूर लगवाएं

किसी जानवर के काटने पर 24 घंटे के भीतर टिटेनस का टीका लगवाना जरूरी है। डॉ. रविकांत इसकी 2 वजहें बताते हैं। पहली, जब कोई जानवर काटता है, तब यह नहीं पता होता कि उस दौरान इन्फेक्शन कितना हुआ है। कुत्ते के मुंह में बैक्टीरिया हो सकता है या फिर उस वक्त जमीन पर गिरने से मिट्‌टी में मौजूद बैक्टीरिया घाव तक पहुंच सकता है।

दूसरी वजह सेफ्टी है। भारत में लोगों को वैक्सीनेशन हिस्ट्री याद नहीं रहती। उन्हें पता नहीं होता कि कौन सा टीका कब लगा है। इसलिए किसी जानवर के काटने पर उन्हें टिटेनस के टीके की बूस्टर डोज दी जाती है, ताकि वे इन्फेक्शन से बच सकें।

टिटेनस से सिर्फ वैक्सीन बचा सकती है, लेकिन हर 5 साल में जरूरी

डॉ. रविकांत कहते हैं कि आमतौर पर एक बार इन्फेक्शन होने के बाद उस व्यक्ति में उस इन्फेक्शन के प्रति इम्यूनिटी डेवलप हो जाती है। लेकिन, टिटेनस बैक्टीरिया का इन्फेक्शन होने पर व्यक्ति को कभी इम्यूनिटी नहीं आती। सिर्फ टीका लगाकर ही इससे बचा जा सकता है। लेकिन, टीके का असर भी ज्यादा समय तक नहीं रहता। इसलिए हर 5 साल में इसकी बूस्टर डोज दी जाती है।

टिटेनस का इन्फेक्शन पता लगाने के लिए कोई टेस्ट नहीं

अमेरिकी हेल्थ एजेंसी CDC के मुताबिक टिटेनस के इन्फेक्शन का पता लगाने के लिए अब तक कोई टेस्ट नहीं बन सका है। इसलिए किसी तरह की पैथोलॉजी जांच से इसके इन्फेक्शन का पता नहीं लगाया जा सकता। ऐसे में डॉक्टर घाव, मरीज की हिस्ट्री, उसकी फिजिकल जांच और लक्षणों के आधार पर तय करते हैं कि टिटेनस हुआ है या नहीं।

3 से 21 दिन में दिखती है बीमारी

हेल्थ जर्नल PMC के मुताबिक इन्फेक्शन के 3 से 21 दिन के भीतर टिटेनस के लक्षण दिखते हैं। 2 हफ्ते के अंदर बीमारी गंभीर हो जाती है। अगर मरीज को पहले से कोई गंभीर बीमारी हो या फिर घाव बहुत गहरा हो, तो बैक्टीरिया उसके शरीर पर तेजी से हावी हो जाते हैं। लेकिन, ऐसे मामले भी सामने आए हैं, जिसमें संक्रमण से उबरने में कई महीने लग गए।

टिटेनस होने पर कैसे बचाते हैं मरीजों की जान

डॉ. पोरवाल बताते हैं कि सबसे पहले मरीज की सांस लेने की नली को कंट्रोल करते हैं, क्योंकि मांसपेशियों की जकड़न से वह सांस नहीं ले पाता। जरूरत पड़ने पर उसे वेंटिलेटर पर रखते हैं। टिटेनस के जहर को बेअसर करने की दवा देते हैं। फिर बीपी नॉर्मल रखने और मसल्स की अकड़न खत्म करने की दवाएं देते हैं। मरीज की इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए वैक्सीन भी दी जाती है।

भले ही वैक्सीन से काफी हद तक टिटेनस को कंट्रोल कर लिया गया हो, लेकिन यह बीमारी आज भी जानलेवा है। इसलिए चोट लगने पर लापरवाही भारी पड़ सकती है। इससे बचाव ही सबसे बेहतर है।

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