राजशाही से लोकशाही तक शक्ति का केंद्र ग्वालियर-चंबल …!

राजशाही से लोकशाही तक शक्ति का केंद्र ग्वालियर-चंबल मध्यप्रदेश में राजनीति की बात हो तो ग्वालियर के बिना पूरी नहीं हो सकती है। यह अंचल देश-प्रदेश की राजनीतिक धुरी के केंद्र में रहा है। रियासत काल में शक्ति का केंद्र रहा ग्वालियर आजादी के बाद देश को प्रधानमंत्री और अनेक मंत्री देने वाली राजनीति का आधार बना।
ग्वालियर के महाराज बाड़े पर सभा को संबोधित करती राजामाता विजयाराजे सिंधिया साथ में माननीय अटल विहारी वाजपेयी, माधवराव सिंधिया और शेजवलकर।

भाजपा में शामिल होने के बाद सिंधिया को राज्यसभा से सांसद बनाया

स्वाधीनता के 15 दिन बाद ग्वालियर रियासत का अखंड भारत में विलय

ज्योतिरादित्य ने कांग्रेस का हाथ छोड़ भाजपा का दामन थामा

पार्टी छोड़ने की परंपरा को दादी और पिता के बाद बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी बरकरार रखी। 18 साल बाद मध्यप्रदेश में सत्ता में आई कांग्रेस पार्टी को जीत दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले ज्योतिरादित्य ने कांग्रेस सरकार को गिराया। ज्योतिरादित्य ने अपने विधायकों के साथ भाजपा का दामन थामा और भाजपा को चौथी बार सत्ता में लाए। कांग्रेस की गुना-अशोकनगर सीट से ज्योतिरादित्य ने लोकसभा का चुनाव लड़े, लेकिन उनको हार का सामना करना पड़ा। हालांकि भाजपा की सरकार में उनको राज्यसभा से सांसद बनाया और केन्द्रीय नागरिक उड्डयन और इस्पात मंत्रालय की जिम्मेदारी दी गई।

हमेशा से अपनी संपन्नता के साथ सामरिक शक्ति के कारण यह भारत पर शासन की मंशा रखने वालों की निगाह में रहा। मुगलों का आक्रमण झेला, तब भी मध्यभारत में शक्ति का केंद्र बना रहा। एक दौर यह आया कि मराठा संघ में ग्वालियर रियासत सबसे मजबूत हो गई। अंग्रेज भी ग्वालियर के वैभव से खींचे आए। इतिहासकारों की मानें तो ब्र्रिटिश हुकूमत ने अपना वर्चस्व कायम होने के बाद भी ग्वालियर को सीधे अपने अधीन नहीं किया बल्कि यहां राजनीतिक सलाहकार के रूप में अपना रेजीडेंट नियुक्त किया। ग्वालियर तब देश की उन पांच रियासतों में से एक था जहां के राजा को 21 तोपों की सलामी की परंपरा बरकरार रखी थी। ग्वालियर के अलावा मैसूर, बड़ौदा, हैदाराबाद और जम्मू-कश्मीर को ही इसका हकदार माना गया था। स्वाधीनता के पहले संग्राम का राजनीतिक इतिहास भी ग्वालियर के बिना अधूरा है। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों को खदेड़ते हुए ग्वालियर आ पहुंची थीं। यहीं उनकी शहादत हुई। इस शहादत को लेकर ग्वालियर रियासत की निष्ठा पर प्रश्नचिन्ह लगा। तब भी ग्वालियर रियासत और बाद में यहां की राजनीति का कद शीर्ष पर ही रहा।

जनसंघ को आर्थिक शक्ति मिली, राजनीतिक कद बढ़ा

● विजयाराजे का जनसंघ में आना उस दौर में हुआ जब वह बड़े आर्थिक संकट से जूझ रहा था। कहते हैं विजयाराजे के रूप में जनसंघ को आर्थिक शक्ति मिली और जनसंघ में आकर विजयाराजे का राजनीतिक कद शिखर पर आ गया।

● राजमाता विजयाराजे के बाद बेटे माधवराव सिंधिया ने भी राजनीति में आए। माधवराव ने 1971 में जनसंघ के टिकट पर गुना से लोकसभा चुनाव लड़ा और कांग्रेस के प्रत्याशी को डेढ़ लाख वोटों से जीते। 1977 के आम चुनाव में ग्वालियर लोकसभा सीट से निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ा और ऐतिहासिक जीत दर्ज की।

● 80 के दशक में जब जनसंघ से अलग होकर भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ तो उसमें विजयाराजे संस्थापक सदस्य बन गईं। 1979 में मोरारजी देसाई की सरकार गिर गई और जनवरी 1980 में देश में आम चुनाव का ऐलान हुआ।

साथ-साथ कांग्रेस

माधवराव सिंधिया और दिग्विजय सिंह साथ-साथ रहे। ग्वालियर में सिंधिया ने माला पहनाई तोे यूं झुककर दिग्विजय ने अभिभावदन किया।

● माधवराव

90 के दशक में माधव राव ने कांग्रेस छोड़ दिया था। उन्होंने अपनी पार्टी बना ली थी। हालांकि बाद में वो कांग्रेस में वापस लौट गए थे। 1 जनवरी 1996 को माधवराव ने कुख्यात जैन-हवाला डायरी में नाम आने पर पद से इस्तीफा दिया।

● विजयाराजे

माधव राव सिंधिया की मां विजया राजे सिंधिया भी पहले कांग्रेस में ही थी। लेकिन 1969 में जब इंदिरा सरकार ने प्रिंसली स्टेट्स की सारी सुविधाएं छीन लीं तो गुस्से में आकर विजया राजे सिंधिया जनसंघ में आ गईं।

फिर छोड़ी कांग्रेस

90 के दशक में एक ऐसा भी दौर आया था जब माधव राव ने कांग्रेस से खिन्न होकर उसका दामन छोड़ दिया था। उन्होंने अपनी पार्टी बना ली थी।

राष्ट्र स्वाधीनता के 15 दिन बाद ग्वालियर रियासत का अखंड भारत में विलय हो गया। इसके साथ ही राजनीति के एक और अध्याय आरंभ हुआ। यहां कांग्रेस जितनी ताकत से अपनी जड़ें जमा रही थी उतनी ही संघ विचारधारा भी गहरी होती जा रही थी।

भारत में विलय

तब जनसंघ का दामन थाम राजमाता ने गिराई सरकार

राजनीतिक अतीत में विजयाराजे सिंधिया की राजनीति ने साठ के दशक में न केवल मध्यप्रदेश बल्कि देश की तत्कालीन सत्ता के सामने पेश की थी चुनौती

तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र से मनभेद से जो राजनीतिक टकराव हुआ, उसने विजयाराजे को जनसंघ की ओर मोड़ दिया। मुख्यमंत्री द्वारा सभा में प्रतीक्षा कराना उन्हें इस कदर नागवार गुजरा कि उन्होंने अपमान का बदला लेने की ठान ली। राजनीतिक जानकारों के अनुसार मध्यप्रदेश विधानसभा में उस वक्त बजट सत्र चल रहा था। शिक्षा की अनुदान मांगों पर चर्चा के बीच जब मतदान की स्थिति बनी तो सदन से 36 विधायक नदारद थे। इन विधायकों की खरीद-फरोख्त और अपहरण के आरोप लगे। विजयाराजे सिंधिया इन विधायकों को अपने साथ ले गईं। आखिरकार द्वारका प्रसाद मिश्र को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने पड़ा। इसके बाद वे अपनी पसंद का मुख्यमंत्री बनवाने में कामयाब हो गईं, लेकिन सरकार दो साल ही चल पाई। वर्ष 1967 में उन्होंने जनसंघ का दामन थाम लिया।

ग्वालियर का गौरवविपक्ष के नेता अटल ने बढ़ाया राष्ट्र का मान, प्रधानमंत्री भी बनेस्वयंसेवक संघ की विचार धारा से प्रभावित रहे वाजपेयी

ग्वालियर का गौरव अटल बिहारी वाजपेयी जनसंघ से जुड़े रहे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचाराधारा से प्रभावित वाजपेयी राजनीति में ध्रुव तारे की तरह चमकते रहे। ग्वालियर में जन्मे वाजपेयी ने अपनी समान विचारधारा के राजनीतिक साथियों के साथ भारतीय जनता पार्टी का गठन किया था।

विपक्ष के नेता रहते सबके प्रिय अटल

संयुक्त राष्ट्र संघ में अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा हिन्दी में दिया गया भाषण राष्ट्र गौरव का प्रतीक माना जाता है। संसद में विपक्ष में रहते हुए भी वे सबके प्रिय रहे। कहते हैं एक बार जब वे गंभीर रूप से बीमार थे तब राजीव गांधी ने उपचार के लिए उनको विदेश भेजने का प्रबंध कराया था। मोरारजी देसाई सरकार में विदेश मंत्री रहे वाजपेयी गठबंधन सरकार में प्रधानमंत्री बने। उनके प्रधानमंत्री रहते हुए देश परमाणु शक्ति बना।

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1980 लोकसभा चुनाव

इंदिरा से पराजित हुईं विजयाराजे …

आमने

1984 लोकसभा चुनाव

माधवराव सिंधिया से हारे थे अटल बिहारी

ग्वालियर के सपूत अटल बिहारी वाजपेयी जैसी शख्सियत भी चुनाव हार चुके हैं। 1984 में अटलजी ने मध्य प्रदेश के ग्वालियर से लोकसभा चुनाव का पर्चा दाखिल कर दिया और उनके खिलाफ अचानक कांग्रेस ने माधवराव सिंधिया को खड़ा कर दिया, जबकि माधवराव गुना संसदीय क्षेत्र से चुनकर आते थे। सिंधिया से वाजपेयी पौने दो लाख वोटों से हार गए। हालांकि फिर वे कभी आमने-सामने चुनाव नहीं लड़े।

● जनता पार्टी ने इंदिरा गांधी के खिलाफ राजमाता विजयाराजे को रायबरेली से चुनाव लड़वाने का ऐलान किया। माधवराव के कांग्रेस पार्टी के साथ रिश्ते बेहतर हो रहे थे, तो उन्होंने मां से अपना फैसला बदलने के लिए कहा, लेकिन विजयाराजे नहीं मानी और यहीं से मां-बेटे के रिश्ते में दरार आ गई।

● 1980 तक माधवराव ने कांग्रेस का दामन थाम लिया और कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़कर उन्होंने जीत दर्ज की, लेकिन इंदिरा गांधी से विजयाराजे चुनाव हार गईं। इस हार ने स्थितियों को बदला और राजनीति में एक नया मोड़ आया। यहां से मां-बेटे के रिश्ते में जो कड़वाहट पैदा हुई वो आजीवन बनी रही।

ग्वालियर-चंबल ही तय करेगा प्रदेश सरकार का भविष्य ग्वालियर-चंबल में कांग्रेस के पास एक मात्र चेहरा हैं डॉ. गोविंद सिंह
2023 का मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियों के लिए आसान नहीं होगा। सिंधिया के गढ़ माने जाने वाले ग्वालियर-चंबल संभाग में 2018 में कांग्रेस ने 27 सीटों पर जीत हासिल की थी। इन विधायकों के दम पर सिंधिया ने कांग्रेस की सरकार को गिराया था। उपचुनाव में कांग्रेस को जनाधार कम हुआ और 17 सीटों पर ही जीत हासिल हुई और सरकार नहीं बन सकी। अब आगामी चुनाव में कांग्रेस वापसी कर सिंधिया को उनके गढ़ में हराना चाहती है। लेकिन यह लड़ाई आसान नहीं होगी। ग्वालियर-चंबल में कांग्रेस के पास डॉ. गोविंद सिंह एक मात्र चेहरा है, जबकि भाजपा के पास नरेन्द्र सिंह तोमर, ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे कद्दावर नेता है, इसके अलावा यशोधरा राजे, अरविंद भदौरिया, नरोत्तम मिश्रा, प्रद्युम्न सिंह तोमर, भारत सिंह कुशवाह जैसे मंत्री हैं। कांग्रेस ने सिंधिया का गढ़ भेदने के लिए राज्यसभा सांसद दिग्विजय सिंह को जिम्मेदारी दी है। वे नाराज नेताओं को मनाने में अंदरूनी तौर से लगे हुए है और पार्टी में जान फूंकने को कोशिश कर रहे हैं। भाजपा विकास कार्यों पर की दम पर ग्वालियर-चंबल में दावेदारी करेगी, जबकि कांग्रेस महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टचार मुद्दे के साथ मैदान में होगी।

एक नजर… ग्वालियर-चंबल की अनुसूचित जाति सीट पर

ग्वालियर-चंबल अंचल में विधानसभा की 34 सीटें हैं, जिनमें से 7 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 34 में से 26 सीटें जीती थी। अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 7 सीटों में 6 सीटों पर कांग्रेस व भाजपा को केवल एक ही सीट मिली थी।

तब बदले समीकरण

● सिंधिया के भाजपा में शामिल होने के बाद समीकरण बदल गए। उपचुनाव के बाद अजा के लिए आरक्षित 7 सीटों में 5 सीटों पर भाजपा और 3 सीटों पर कांग्रेस का कब्जा है।

● लेकिन फिर भी ग्वालियर चंबल की 34 सीटों में से कई सीटों पर दलित वोटबैंक सबसे अहम माना जाता है। ऐसे में इस इलाके के जातीय समीकरण के कारण पार्टी यहां कोई रिस्क नहीं लेना चाहती है।

अंबेडकर जयंती पर भाजपा राज्य स्तरीय आयोजन कर अनुसूचित जाति के लोगों को साधने की कोशिश करने में लगी है।

ऐसे हुई टकराव की शुरुआत ..
अंतर्कलह से गिरी मप्र में कांग्रेस सरकार …

कमलनाथ सरकार गिरने की वजह कांग्रेस की आपसी अंतर्कलह मानी जाती है। ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ के बीच सियासी वर्चस्व की लड़ाई को कांग्रेस की सरकार गिरने की बड़ी वजह माना गया

सिंधिया और कमलनाथ में वर्चस्व की लड़ाई की शुरुआत टीकमगढ़ में अतिथि विद्वान की सभा को माना जाता है। सिंधिया ने कहा था कि अगर अतिथि शिक्षकों की मांगे पूरी नहीं हुई तो वह उनके साथ सड़कों पर उतरेंगे। प्रदेश में कांग्रेस सरकार बनने के बाद यह पहला मौका था जब ज्योतिरादित्य सिंधिया अपनी ही सरकार के खिलाफ कोई बयान दिया था। बस यही से प्रदेश की सियासत गरमाने लगी। जब कमलनाथ ने कहा कि सिंधिया उतर जाए सड़क पर। इस बयान के बाद सियासी रस्साकस्सी तेज हो गई थी और आखिरकार 20 मार्च को कांग्रेस की सरकार गिर गई।

शीतकालीन राजधानी

जानकारों के अनुसार, 1948 में जब जवाहरलाल नेहरू ने मध्य भारत का गठन किया था, उस समय सिंधिया और होलकर राजघराने के संबंध अच्छे नहीं थे। यही कारण है कि दोनों मध्य भारत के राज्य प्रमुख बनना चाहते थे। जिसके इंदौर को ग्रीष्मकालीन और ग्वालियर को शीतकालीन राजधानी बनाया गया। बाद में मध्यप्रदेश का गठन हुआ और भोपाल को राजधानी बनाया गया। लेकिन ग्वालियर ही प्रमुख था। पूरे प्रदेश के कार्यालय ग्वालियर में ही हुआ करते थे। सिंधिया परिवार के मुखिया जीवाजी राव सिंधिया को मध्य भारत के राज्य प्रमुख का दर्जा मिला था। उस वक्त तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू खुद जीवाजी राव सिंधिया को शपथ दिलाने ग्वालियर आये थे।

ये रहा खास…मोती महल में विधानसभा
मोती महल एक समय मप्र राजनीति का केन्द्र बिंदु रहा था। सोने की नक्काशी वाले हाल में मध्य भारत के समय विधानसभा लगती थी। विधानसभा के सदस्य इस दरबार हॉल में आते थे। मोती महल के परिसर में लगभग 4000 से अधिक कमरे हैं और इस महल का निर्माण पूना के पेशवा पैलेस की तर्ज पर 1825 में कराया गया था, जिसमें आज भी नक्काशी पर सोने की परत चढ़ी हुई है।

 

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