राजशाही से लोकशाही तक शक्ति का केंद्र ग्वालियर-चंबल …!
ज्योतिरादित्य ने कांग्रेस का हाथ छोड़ भाजपा का दामन थामा
पार्टी छोड़ने की परंपरा को दादी और पिता के बाद बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी बरकरार रखी। 18 साल बाद मध्यप्रदेश में सत्ता में आई कांग्रेस पार्टी को जीत दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले ज्योतिरादित्य ने कांग्रेस सरकार को गिराया। ज्योतिरादित्य ने अपने विधायकों के साथ भाजपा का दामन थामा और भाजपा को चौथी बार सत्ता में लाए। कांग्रेस की गुना-अशोकनगर सीट से ज्योतिरादित्य ने लोकसभा का चुनाव लड़े, लेकिन उनको हार का सामना करना पड़ा। हालांकि भाजपा की सरकार में उनको राज्यसभा से सांसद बनाया और केन्द्रीय नागरिक उड्डयन और इस्पात मंत्रालय की जिम्मेदारी दी गई।
हमेशा से अपनी संपन्नता के साथ सामरिक शक्ति के कारण यह भारत पर शासन की मंशा रखने वालों की निगाह में रहा। मुगलों का आक्रमण झेला, तब भी मध्यभारत में शक्ति का केंद्र बना रहा। एक दौर यह आया कि मराठा संघ में ग्वालियर रियासत सबसे मजबूत हो गई। अंग्रेज भी ग्वालियर के वैभव से खींचे आए। इतिहासकारों की मानें तो ब्र्रिटिश हुकूमत ने अपना वर्चस्व कायम होने के बाद भी ग्वालियर को सीधे अपने अधीन नहीं किया बल्कि यहां राजनीतिक सलाहकार के रूप में अपना रेजीडेंट नियुक्त किया। ग्वालियर तब देश की उन पांच रियासतों में से एक था जहां के राजा को 21 तोपों की सलामी की परंपरा बरकरार रखी थी। ग्वालियर के अलावा मैसूर, बड़ौदा, हैदाराबाद और जम्मू-कश्मीर को ही इसका हकदार माना गया था। स्वाधीनता के पहले संग्राम का राजनीतिक इतिहास भी ग्वालियर के बिना अधूरा है। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों को खदेड़ते हुए ग्वालियर आ पहुंची थीं। यहीं उनकी शहादत हुई। इस शहादत को लेकर ग्वालियर रियासत की निष्ठा पर प्रश्नचिन्ह लगा। तब भी ग्वालियर रियासत और बाद में यहां की राजनीति का कद शीर्ष पर ही रहा।
जनसंघ को आर्थिक शक्ति मिली, राजनीतिक कद बढ़ा
● विजयाराजे का जनसंघ में आना उस दौर में हुआ जब वह बड़े आर्थिक संकट से जूझ रहा था। कहते हैं विजयाराजे के रूप में जनसंघ को आर्थिक शक्ति मिली और जनसंघ में आकर विजयाराजे का राजनीतिक कद शिखर पर आ गया।
● राजमाता विजयाराजे के बाद बेटे माधवराव सिंधिया ने भी राजनीति में आए। माधवराव ने 1971 में जनसंघ के टिकट पर गुना से लोकसभा चुनाव लड़ा और कांग्रेस के प्रत्याशी को डेढ़ लाख वोटों से जीते। 1977 के आम चुनाव में ग्वालियर लोकसभा सीट से निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ा और ऐतिहासिक जीत दर्ज की।
● 80 के दशक में जब जनसंघ से अलग होकर भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ तो उसमें विजयाराजे संस्थापक सदस्य बन गईं। 1979 में मोरारजी देसाई की सरकार गिर गई और जनवरी 1980 में देश में आम चुनाव का ऐलान हुआ।
साथ-साथ कांग्रेस
माधवराव सिंधिया और दिग्विजय सिंह साथ-साथ रहे। ग्वालियर में सिंधिया ने माला पहनाई तोे यूं झुककर दिग्विजय ने अभिभावदन किया।
● माधवराव
90 के दशक में माधव राव ने कांग्रेस छोड़ दिया था। उन्होंने अपनी पार्टी बना ली थी। हालांकि बाद में वो कांग्रेस में वापस लौट गए थे। 1 जनवरी 1996 को माधवराव ने कुख्यात जैन-हवाला डायरी में नाम आने पर पद से इस्तीफा दिया।
● विजयाराजे
माधव राव सिंधिया की मां विजया राजे सिंधिया भी पहले कांग्रेस में ही थी। लेकिन 1969 में जब इंदिरा सरकार ने प्रिंसली स्टेट्स की सारी सुविधाएं छीन लीं तो गुस्से में आकर विजया राजे सिंधिया जनसंघ में आ गईं।
फिर छोड़ी कांग्रेस
90 के दशक में एक ऐसा भी दौर आया था जब माधव राव ने कांग्रेस से खिन्न होकर उसका दामन छोड़ दिया था। उन्होंने अपनी पार्टी बना ली थी।
राष्ट्र स्वाधीनता के 15 दिन बाद ग्वालियर रियासत का अखंड भारत में विलय हो गया। इसके साथ ही राजनीति के एक और अध्याय आरंभ हुआ। यहां कांग्रेस जितनी ताकत से अपनी जड़ें जमा रही थी उतनी ही संघ विचारधारा भी गहरी होती जा रही थी।
भारत में विलय
तब जनसंघ का दामन थाम राजमाता ने गिराई सरकार
राजनीतिक अतीत में विजयाराजे सिंधिया की राजनीति ने साठ के दशक में न केवल मध्यप्रदेश बल्कि देश की तत्कालीन सत्ता के सामने पेश की थी चुनौती
तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र से मनभेद से जो राजनीतिक टकराव हुआ, उसने विजयाराजे को जनसंघ की ओर मोड़ दिया। मुख्यमंत्री द्वारा सभा में प्रतीक्षा कराना उन्हें इस कदर नागवार गुजरा कि उन्होंने अपमान का बदला लेने की ठान ली। राजनीतिक जानकारों के अनुसार मध्यप्रदेश विधानसभा में उस वक्त बजट सत्र चल रहा था। शिक्षा की अनुदान मांगों पर चर्चा के बीच जब मतदान की स्थिति बनी तो सदन से 36 विधायक नदारद थे। इन विधायकों की खरीद-फरोख्त और अपहरण के आरोप लगे। विजयाराजे सिंधिया इन विधायकों को अपने साथ ले गईं। आखिरकार द्वारका प्रसाद मिश्र को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने पड़ा। इसके बाद वे अपनी पसंद का मुख्यमंत्री बनवाने में कामयाब हो गईं, लेकिन सरकार दो साल ही चल पाई। वर्ष 1967 में उन्होंने जनसंघ का दामन थाम लिया।
ग्वालियर का गौरव अटल बिहारी वाजपेयी जनसंघ से जुड़े रहे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचाराधारा से प्रभावित वाजपेयी राजनीति में ध्रुव तारे की तरह चमकते रहे। ग्वालियर में जन्मे वाजपेयी ने अपनी समान विचारधारा के राजनीतिक साथियों के साथ भारतीय जनता पार्टी का गठन किया था।
विपक्ष के नेता रहते सबके प्रिय अटल
संयुक्त राष्ट्र संघ में अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा हिन्दी में दिया गया भाषण राष्ट्र गौरव का प्रतीक माना जाता है। संसद में विपक्ष में रहते हुए भी वे सबके प्रिय रहे। कहते हैं एक बार जब वे गंभीर रूप से बीमार थे तब राजीव गांधी ने उपचार के लिए उनको विदेश भेजने का प्रबंध कराया था। मोरारजी देसाई सरकार में विदेश मंत्री रहे वाजपेयी गठबंधन सरकार में प्रधानमंत्री बने। उनके प्रधानमंत्री रहते हुए देश परमाणु शक्ति बना।
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आमने
1984 लोकसभा चुनाव
माधवराव सिंधिया से हारे थे अटल बिहारी
ग्वालियर के सपूत अटल बिहारी वाजपेयी जैसी शख्सियत भी चुनाव हार चुके हैं। 1984 में अटलजी ने मध्य प्रदेश के ग्वालियर से लोकसभा चुनाव का पर्चा दाखिल कर दिया और उनके खिलाफ अचानक कांग्रेस ने माधवराव सिंधिया को खड़ा कर दिया, जबकि माधवराव गुना संसदीय क्षेत्र से चुनकर आते थे। सिंधिया से वाजपेयी पौने दो लाख वोटों से हार गए। हालांकि फिर वे कभी आमने-सामने चुनाव नहीं लड़े।
● जनता पार्टी ने इंदिरा गांधी के खिलाफ राजमाता विजयाराजे को रायबरेली से चुनाव लड़वाने का ऐलान किया। माधवराव के कांग्रेस पार्टी के साथ रिश्ते बेहतर हो रहे थे, तो उन्होंने मां से अपना फैसला बदलने के लिए कहा, लेकिन विजयाराजे नहीं मानी और यहीं से मां-बेटे के रिश्ते में दरार आ गई।
● 1980 तक माधवराव ने कांग्रेस का दामन थाम लिया और कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़कर उन्होंने जीत दर्ज की, लेकिन इंदिरा गांधी से विजयाराजे चुनाव हार गईं। इस हार ने स्थितियों को बदला और राजनीति में एक नया मोड़ आया। यहां से मां-बेटे के रिश्ते में जो कड़वाहट पैदा हुई वो आजीवन बनी रही।
एक नजर… ग्वालियर-चंबल की अनुसूचित जाति सीट पर
ग्वालियर-चंबल अंचल में विधानसभा की 34 सीटें हैं, जिनमें से 7 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 34 में से 26 सीटें जीती थी। अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 7 सीटों में 6 सीटों पर कांग्रेस व भाजपा को केवल एक ही सीट मिली थी।
तब बदले समीकरण
● सिंधिया के भाजपा में शामिल होने के बाद समीकरण बदल गए। उपचुनाव के बाद अजा के लिए आरक्षित 7 सीटों में 5 सीटों पर भाजपा और 3 सीटों पर कांग्रेस का कब्जा है।
● लेकिन फिर भी ग्वालियर चंबल की 34 सीटों में से कई सीटों पर दलित वोटबैंक सबसे अहम माना जाता है। ऐसे में इस इलाके के जातीय समीकरण के कारण पार्टी यहां कोई रिस्क नहीं लेना चाहती है।
अंबेडकर जयंती पर भाजपा राज्य स्तरीय आयोजन कर अनुसूचित जाति के लोगों को साधने की कोशिश करने में लगी है।
सिंधिया और कमलनाथ में वर्चस्व की लड़ाई की शुरुआत टीकमगढ़ में अतिथि विद्वान की सभा को माना जाता है। सिंधिया ने कहा था कि अगर अतिथि शिक्षकों की मांगे पूरी नहीं हुई तो वह उनके साथ सड़कों पर उतरेंगे। प्रदेश में कांग्रेस सरकार बनने के बाद यह पहला मौका था जब ज्योतिरादित्य सिंधिया अपनी ही सरकार के खिलाफ कोई बयान दिया था। बस यही से प्रदेश की सियासत गरमाने लगी। जब कमलनाथ ने कहा कि सिंधिया उतर जाए सड़क पर। इस बयान के बाद सियासी रस्साकस्सी तेज हो गई थी और आखिरकार 20 मार्च को कांग्रेस की सरकार गिर गई।
जानकारों के अनुसार, 1948 में जब जवाहरलाल नेहरू ने मध्य भारत का गठन किया था, उस समय सिंधिया और होलकर राजघराने के संबंध अच्छे नहीं थे। यही कारण है कि दोनों मध्य भारत के राज्य प्रमुख बनना चाहते थे। जिसके इंदौर को ग्रीष्मकालीन और ग्वालियर को शीतकालीन राजधानी बनाया गया। बाद में मध्यप्रदेश का गठन हुआ और भोपाल को राजधानी बनाया गया। लेकिन ग्वालियर ही प्रमुख था। पूरे प्रदेश के कार्यालय ग्वालियर में ही हुआ करते थे। सिंधिया परिवार के मुखिया जीवाजी राव सिंधिया को मध्य भारत के राज्य प्रमुख का दर्जा मिला था। उस वक्त तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू खुद जीवाजी राव सिंधिया को शपथ दिलाने ग्वालियर आये थे।