चुनी हुई सरकारों को ठीक से काम करने देना चाहिए …?

नजरिया-दिल्ली के निर्णय का सम्मान जरूरी है

वर्ष 1803 की बात है। नेत्रहीन मुगल बादशाह शाह आलम दिल्ली में लाल किले की प्राचीर में बैठे थे। वे यमुना पार पटपड़गंज में मराठों और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के बीच हुई लड़ाई के नतीजों का इंतजार कर रहे थे। लड़ाई में फिरंगियों की जीत हुई और दिल्ली उनके नियंत्रण में आ गई। एक ब्रिटिश रेजिडेंट को नियुक्त किया गया, जो दिल्ली का अघोषित शासक बन गया।

दिल्ली के चतुर नागरिकों ने तब एक कहावत गढ़ी, जो सत्ता-परिवर्तन की इस विसंगति के बारे में थी- ‘अज दिल्ली ता पालम, सल्तनत-ए-शाह आलम’ यानी दिल्ली से पालम तक ही शाह आलम की सल्तनत है। दिल्ली की चुनी गई सरकार के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है।

मैं न तो आम आदमी पार्टी (आप) का सदस्य हूं, न ही उसके क्रियाकलापों का समर्थक हूं, लेकिन मैं यह जानता हूं कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने दो लोकतांत्रिक चुनाव जीते हैं। 2015 में उनकी पार्टी ने 70 में से 67 और 2020 में 70 में से 62 सीटें जीती थीं। ये सच है कि दिल्ली एक पूर्ण राज्य नहीं है।

चूंकि वह राष्ट्रीय राजधानी है, इसलिए केंद्र के द्वारा वहां एलजी की नियुक्ति की जाती है। एलजी के नियंत्रण में भूमि, लोक-व्यवस्था और पुलिस से जुड़े मसले होते हैं। लेकिन दूसरी तमाम चीजों पर तो लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार का ही नियंत्रण है।

वर्ष 2015 में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने एक अधिसूचना जारी की थी, जिसके चलते भूमि, लोक-व्यवस्था और पुलिस के अलावा कुछ और सेवाओं का नियंत्रण एलजी के अधीन कर दिया था। दूसरे शब्दों में एक कार्यकारी आदेश के चलते निर्वाचित मुख्यमंत्री को उनके तहत सेवाएं देने वाले अधिकारियों की भर्ती और तबादले के अधिकार से वंचित करके इन अधिकारों को एलजी में निहित कर दिया गया था। जैसी कि अपेक्षा की जा सकती है, आम आदमी पार्टी सरकार ने इसका विरोध किया।

मामला आखिरकार सर्वोच्च अदालत की पांच सदस्यीय संविधान-पीठ के सामने पहुंचा। इसके अध्यक्ष भारत के मुख्य न्यायाधीश हैं। 11 मई 2023 को अदालत ने एक ऐतिहासिक फैसले में सेवाओं के विभाग को पुन: दिल्ली की निर्वाचित सरकार के अधीन कर दिया।

चूंकि दिल्ली एक पूर्ण राज्य होने के बजाय एक स्पेशल स्टेटस वाला राज्य है, इसलिए अदालत ने संविधान में वर्णित संघीय-व्यवस्था के सिद्धांतों का हवाला देते हुए कहा कि एलजी का अधिकार-क्षेत्र केवल भूमि, लोक-व्यवस्था और पुलिस तक सीमित है। दूसरे मामलों में उसे निर्वाचित सरकार की मंत्रिपरिषद के परामर्श से ही काम करना होगा।

फैसले में यह भी कहा गया कि एलजी को दिल्ली सरकार के विरोधी के बजाय उसके सहयोगी की भूमिका निभानी चाहिए, ताकि सरकार सुप्रशासन के अपने वैध एजेंडा को लागू कर सके, जिसके लिए लोगों ने उसे चुनकर सत्ता में भेजा है।

दिल्ली के लोगों का लोकतांत्रिक चयन एक गैरजरूरी मसला नहीं है। वर्ष 1803 में जब ब्रिटिश रेजिडेंट ने दिल्ली के शासक की शक्तियों पर अतिक्रमण कर लिया था, तब दिल्ली की आबादी एक लाख के करीब थी। 1947 में वह सात लाख के आसपास थी। लेकिन आज दिल्ली मेट्रो एरिया की आबादी 3.3 करोड़ के आसपास आंकी जाती है! यह दुनिया के अनेक मंझोले आकार के देशों की कुल आबादी से भी अधिक है।

वर्ष 2020 में दिल्ली के पात्र मतदाताओं की संख्या 1.46 करोड़ थी, जिनमें से 62.2 प्रतिशत ने अपने मताधिकार का उपयोग किया था। प्रतिशत के मामले में यह 2019 के आम चुनावों से भी 2.2% अधिक है। जब इतनी बड़ी संख्या में लोग वोट देते हैं तो वो चाहते हैं कि उनके द्वारा चुनी गई सरकार उनसे किए गए वादों को पूरा करे। लेकिन अगर सरकार का अपने ही अधिकारियों पर नियंत्रण नहीं होगा या एलजी उसका सहयोग नहीं करेंगे, तब तो वह ऐसा करने में असहाय हो जाएगी।

सर्वोच्च अदालत की संविधान-पीठ के निर्णय को एक अध्यादेश के माध्यम से रद्द करने का केंद्र सरकार का फैसला अविवेकपूर्ण और अलोकतांत्रिक है। भाजपा और आम आदमी पार्टी भले ही राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी हों, लेकिन आपस में संघर्ष करने का उचित माध्यम चुनाव हैं, मनमानीपूर्वक लाए गए अध्यादेश नहीं।

इस तरह के कदमों से दिल्ली के लोगों के लोकतांत्रिक चयन की अवमानना होती है, इससे देश के संघीय-ढांचे को ठेस पहुंचती है, यह सर्वोच्च अदालत के विवेकशील निर्णय की उपेक्षा करता है, और यह कांग्रेस सरकारों के द्वारा अतीत में किए गए राज्यपाल की शक्तियों के दुरुपयोग के समान है, जिसकी भाजपा खुद नियमित आलोचना करती है। केंद्र सरकार को अपने इस निर्णय पर पुनर्विचार करना चाहिए।

  • एलजी को दिल्ली सरकार के विरोधी के बजाय उसके सहयोगी की भूमिका निभानी चाहिए, ताकि सरकार सुप्रशासन के अपने वैध एजेंडा को लागू कर सके। आखिर दिल्ली के लोगों ने इसी के लिए उसे चुनकर सत्ता में भेजा है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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