आखिर क्या करें जो लकीर पीटना बंद करे तंत्र ..!

गवर्नेंस: व्यवस्था के उस हिस्से की जिम्मेदारी तय होनी चाहिए जिस पर सिस्टम को चलाने का दायित्व रहता है

दिल्ली का पुराना लोहे का पुल व कोलकाता के हावड़ा पुल जैसे कितने ही निर्माण हैं जो आज के तंत्र की कल्पनाशील योजनाओं पर सवाल उठाने के लिए काफी हैं।

प्राकृतिक आपदाओं पर किसी का वश नहीं होता। फिर भी मानव की महारत इसी में हैं कि वह समय रहते बचाव उपाय तलाशे या फिर उससे होने वाले नुकसान को कम से कम करे। हाल ही में कुछ आपदाएं तो ऐसी घटित हुईं जिनसे पूरी तरह से बचा जा सकता था। याद कीजिए, मेरठ से दिल्ली को जोड़ने वाले एक्सप्रेस-वे पर हुए उस हादसे को जिसमें गलत दिशा से आ रही बस सही दिशा में जा रही कार से जा टकराई। हादसे में कार में सवार हंसता-खेलता परिवार खत्म हो गया। दिल्ली से लेकर हिमाचल तक में अतिवृष्टि ने काफी नुकसान पहुंचाया। दिल्ली तो दरिया में तब्दील हो गई। छोटे-बड़े शहर मामूली बरसात में ही झील बने नजर आते हैं। इन घटनाओं में यह समानता है कि सजग रहकर हादसों से बचा या उन्हें कम किया जा सकता था।

लोकतंत्र में कोई भी हादसा हो या फिर अशांति का कोई माहौल, पहला सवाल राजनीतिक तंत्र पर उठता है। सवालों के घेरे में भी इस तंत्र को ही ज्यादा लिया जाता है। पर सवाल यह भी है कि आखिर ऐसे मामलों में नौकरशाही को क्यों अलग रखा जाना चाहिए? जर्मन समाजशास्त्री मैक्स वेबर ने लोकतांत्रिक व्यवस्था में निरंतरता का प्रतीक प्रशासनिक तंत्र को ही बताया है। वेबर के अनुसार लोकतांत्रिक व्यवस्था में नौकरशाही नियमों और उसकी प्रक्रिया को ही लक्ष्य मान लेती है। चाहे मेरठ एक्सप्रेस-वे पर हुआ हादसा हो या दिल्ली हो या जयपुर, मामूली बरसात में इनके जलमग्न हो जाने की कहानी या फिर ऐसी ही कोई आपदा। साफ नजर आएगा कि प्रशासनिक तंत्र की लापरवाही ज्यादा जिम्मेदार होती है। व्यवस्था के उस हिस्से को जिम्मेदार जरूर माना जाना चाहिए जिस पर सिस्टम को चलाने का दायित्व रहता है। कुछ साल पहले अगर पटना डूब रहा था, अगर हिमाचल प्रदेश की मंडी की गलियों में पानी के साथ मलबा बह रहा था तो इसका बड़ा कारण यह है कि हमारे तंत्र को हादसों के बाद ही चेतने की आदत पड़ गई है। समुचित कदम समय रहते उठाए ही नहीं जाते। पुरानी पीढ़ी के अनुभवों को समझें तो वह दौर था जब कार्यपालिका के जिम्मेदार लोग अपनी हर योजना भावी अनुमानों और परिणामों को ध्यान में रखकर बनाते थे। आजादी के पहले की आइसीएस यानी इंपीरियल सिविल सर्विस ही आज की भारतीय नौकरशाही का मूल है। हमारी नौकरशाही ने अंग्रेजों के दौर की ठसक तो अपना ली लेकिन उस चिंतन को खत्म-सा कर दिया जिसमें जनता से जुड़े मसलों पर व्यापक चिंतन की जरूरत है।

आजादी के पहले नौकरशाहों ने सुनियोजित आधार पर निर्माण कार्य किए जो अरसे बाद भी जस के तस हैं। दिल्ली का पुराना लोहे का पुल व कोलकाता के हावड़ा पुल जैसे कितने ही निर्माण हैं जो आज के तंत्र की कल्पनाशील योजनाओं पर सवाल उठाने के लिए काफी हैं। एक सामान्य व्यक्ति भी समझ रखता है कि जून का महीना मानसून के दस्तक देने का वक्त होता है। लिहाजा दिल्ली हो या जयपुर या फिर कोई और शहर, ड्रेनेज सिस्टम यानी नालों की सफाई का काम मई में हर हालत में पूरा हो ही जाना चाहिए। यहां तक कि सड़कों का निर्माण और मरम्मत का काम भी मई या अधिकतम जून के मध्य तक हो जाना चाहिए। लेकिन हकीकत यह है कि सीवर लाइनें बिछाने से लेकर सड़क निर्माण तक का काम बरसात के ठीक पहले होता रहता है। भारी बरसात को एक बार प्राकृतिक आपदा कहा जा सकता है लेकिन एक्सप्रेस-वे पर आठ किलोमीटर तक गलत दिशा में कोई बस दौड़ती रहे और तंत्र बेखबर और निर्दोष रहे यह कैसे हो सकता है? ट्रैफिक पुलिस को देखिए। इनका काम जुर्माना वसूली में लगे रहना ही नजर आता है। कभी अपनी जेब तो कभी सरकारी खजाने को भरने का काम होता रहता है। शहरी निकायों में अधिकारियों की कार्यप्रणाली भी ऐसी ही होती है। गलियां अतिक्रमण से संकरी होती रहे, अवैध निर्माण होता रहे इनकी बला से। अपराधों पर काबू पाना हो या फिर कहीं आग बुझाने के लिए अग्निशमन वाहनों को पहुंचाना हो अतिक्रमण बाधक बन ही जाता है। सोया तंत्र आपदा सामने देखकर ही जागता है। फिर लकीर पीटने का काम होता है और हादसे के जख्म खत्म होने से पहले ही अगले हादसे तक समूचा तंत्र फिर लम्बी तानकर सो जाता है।

हादसों से नुकसान कम से कम करना तभी संभव होगा, जब हमारा तंत्र कल्पनाशील बने, अपने दफ्तरी खांचे, नियम-कायदे और प्रक्रिया के घेरे से बाहर निकले। तब जाकर ही हमारी नौकरशाही ज्यादा कल्पनाशील होगी। जवाबदेही राजनीतिक नेतृत्व की भी कम नहीं होने वाली, जिसे नौकरशाही से काम लेना है। दोनों का सामंजस्य ही बेहतर बदलाव का औजार बन सकेगा।

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