भारत भी मांसाहारी !
भारत को ही देेखें-हमारा समाज चार वर्णों में बंटा हुआ है। आमतौर पर क्षत्रिय समाज मांसाहारी है, वैश्य समाज/ब्राह्मण समाज की युवा पीढ़ी इसमें प्रवेश कर चुकी है। शेष पच्चीस प्रतिशत भारतीय मांसाहारी हैं। शाकाहारी समाज में भी विकासवादी दृष्टिकोण मांसाहार के लिए ही प्रेरित कर रहा है। मेरा तो अनुभव है कि मांसाहार बहुत बड़ा अंग है। ईसाई-इस्लाम-सिख आदि व्यापक तौर पर शुद्ध मांसाहारी समाज है। वे स्वयं आबादी का 25 प्रतिशत तो हैं ही । बौद्ध धर्म के अधिकांश अनुयायी भी कमोबेश ऐसे ही हैं। फिर किस आधार पर भारत को शुद्ध शाकाहारी देश कह सकते हैं। यह एक मिथक ही है। आज देश में जो एक-दूसरे के खिलाफ उग्रता और आक्रामकता दिखाई दे रही है, उसका कारण मांसाहार ही है। भोक्ता के मन में उसी प्रकार के विचार उठेंगे। जिस पशु या पक्षी का मांस खाया जाएगा, वैसा ही स्वभाव भी हो जाएगा।
चारों वर्णों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों के द्वारा विभक्त होते हैं। शाकाहार भी सदा श्रेष्ठ हो यह आवश्यक नहीं है। इसमें भी सात्विक, राजसिक और तामसिक तीन प्रकार के भेद रहते हैं। शास्त्रों ने- गीता ने जिस प्रकार के शाकाहार को उचित बताया है, वह सात्विक आहार है-
अर्थात-आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति बढ़ाने वाले, रसयुक्त , चिकने, स्थायीभाव वाले, मन को प्रिय पदार्थ सात्विक पुरुष को प्रिय होते हैं।
सात्विकता-तामसिकता एक स्थूल दृष्टि भी है। वैज्ञानिक उपकरण प्राण को नहीं पकड़ सकते। स्थूल अर्थ तो इतना ही है कि मांसाहार के द्वारा शरीर और मन में पशु प्राणों की बहुलता बढ़ती जाएगी।
व्यक्ति के चिंतन में पशुभाव-अन्न के अनुरूप-बढ़ता जाएगा। जिस पशु का मांस नियमित खाया जाएगा, उसी पशु का प्रभाव व्यक्तित्व में बढ़ता जाएगा। जलचर, थलचर, नभचर अपने-अपने प्राणों से खाने वाले का पोषण करते हैं, जैसे उनकी स्वयं की संतानों का करते हैं।
भारत में शाकाहार शब्द अन्न पर लागू होता है। अन्न कहते हैं औषधि को। जिसका पौधा फल लगने पर नष्ट हो जाता है, वह अन्न (अनाज) है। अन्न को ब्रह्म कहते हैं। अन्न के माध्यम से ईश्वरीय प्राण शरीर में प्रवेश करते रहते हैं। हमारे प्राणों का पोषण होता रहता है। इसी अन्न के माध्यम से जीव भी शरीर बदलता रहता है। इससे अन्न का महत्व समझ सकते हैं। केवल पेट भरना उद्देश्य नहीं है। मांसाहार पेट के आगे नहीं जा सकता। अत: भोक्ता में पशुत्व का संचय होता रहता है। क्योंकि इसमें प्रसाद भाव नहीं होता। घर में खाना बनता है, वहां पहला भोग अग्नि को ही लगाते हैं। उसको ब्रह्म मानते हैं, उसका प्रसाद ही खाते हैं। घर में प्रत्येक शुभकार्य, पर्व आदि पर पहले देवताओं की थाली निकाली जाती है। होली पर नए अन्न को पहले अग्नि को समर्पित करते हैं। दीपावली पर नए अन्न, अन्नकूट-प्रसाद- रूप में वितरित किया जाता है। शरीर के भीतर भी वैश्वानर आदि देवताओं को समर्पित करते हैं। पक्षियों को दाना, चींटियों/मछलियों को आटा, चीलों को पौष बड़े, कौवों को खीर, गाय/कुत्ते को रोटी और भी न जाने क्या-क्या रिवाज बने हुए हैं। गरीब से गरीब व्यक्ति भी कई सेवा-परिवारों के पालन में भूमिका निभाता है। संपूर्ण संत समाज गृहस्थों पर आश्रित हैं। गीता में अन्न का अलग की स्वरूप है।
अन्न मात्र पेट भरने की चीज नहीं है। वर्षा-अन्न-प्राणी (हम भी) एक ही प्राकृतिक चक्र में पैदा होते हैं। अन्न से हम (प्राणी) पैदा होते हैं, पुन: कर्मानुसार अन्य जीव- प्राणी उत्पन्न होते रहते हैं। पेट भरने का अर्थ है, शरीर की अग्नि को सोम द्वारा बनाए रखना। शरीर में ही तो आत्मा रहता है। यहां अन्न के शाकाहार/मांसाहार को भारतीय वेद-विज्ञान की दृष्टि से देखने की जरूरत है। अन्न का एक ही भाग है, जो शरीर का पोषण करता है। शेष अन्न भीतर अदृश्य भागों का (मन, बुद्धि, आत्मा) का भी पोषण करता है। भीतर भाग में विचारों का स्वरूप, त्रिगुण (सत्वादि), चन्द्रमा और सूर्य के अंशों का प्रभाव काम करता है। यहां कैलोरी/विटामिन/लवण- क्षारादि का प्रभाव किन यंत्रों से माप सकते हैं। अन्त:स्रावी (श्वठ्ठस्रशष्ह्म्द्बठ्ठ—) ग्रन्थियों के स्राव विचारों से प्रभावित होते हैं। वैसा ही अन्न का रस बनता है। वैसा ही शरीर-मन बनते हैं।
आज रासायनिक खाद-कीटनाशक- प्रीजर्वेटर- उन्नत बीज आदि ने भोजन-दूध को विष बना दिया। शाकाहार क्या कर लेगा? अत: पहली आवश्यकता है, बदलते भोजन के साथ, बदलते जीवनक्रम के साथ भोजन के सर्वे भी भिन्न-भिन्न पैमानों पर होने चाहिए। भोजन भारतीय और आंकड़े विदेशी भाषा में भी नहीं होने चाहिए। इसी प्रकार मांसाहार की परिभाषा भी भिन्न- भिन्न देेशों में भिन्न- भिन्न है। भारत में 62 प्रतिशत शाकाहारी कहां है? मांसाहारी ज्यादा हैं। आंकड़ों की आड़ में भ्रामक जानकारी भी देना उचित नहीं है।