सफलता का फॉर्मूला !

सफलता का फॉर्मूला यही है, मेहनत मगर प्यार से ….

हम चांद पर पहुंच गए, दुनिया को आश्चर्य हुआ कि इंडिया ने ये कमाल कैसे कर दिखाया? दूसरी ओर इंडिया में लोगों को आश्चर्य है कि ये कमाल हमारे इंजीनियर्स ने कैसे कर दिखाया? ऐसे इंजीनियर जो आईआईटी नहीं, किसी ‘आम कॉलेज’ से पढ़े हुए हैं। जी हां, इसरो की चंद्रयान टीम में आईआईटी का एक भी ग्रैजुएट नहीं था।

इसकी दो वजह हैं। मान लो बचपन में कोई कहता है- ‘मैं साइंटिस्ट बनना चाहता हूं’, लोग उसे आईआईटी की तरफ धकेल देते हैं। दसवीं कक्षा के बाद एक परीक्षा होती है- केवीपीवाई (किशोर वैज्ञानिक प्रोत्साहन योजना)। इसमें चुने गए छात्रों को विज्ञान की दुनिया के अनेक रास्तों के बारे में जानकारी दी जाती है। मगर उनका मकसद एक ही रहता है- आईआईटी।

स्वाभाविक है कि तेज छात्र सबसे अच्छे कॉलेज में दाखिला लेना चाहेगा। मगर हमने उसको इतना बड़ा दर्जा दे दिया है कि लोग समझने लगे हैं कि ‘आईआईटी नहीं, तो फ्यूचर नहीं।’ लाखों बच्चे कोटा में दिमाग घिस रहे हैं, जेईई की तैयारी में। कुछ अपनी इच्छा से, मगर ज्यादातर मां-बाप की इच्छा पूरी करने के लिए।

मगर क्या हर बच्चा इतना प्रेशर ले सकता है? हॉस्टल में रहकर दिन-रात पढ़ाई का बोझ। 2023 में कोटा में पढ़ने वाले 23 बच्चों ने खुदकुशी कर ली। क्योंकि वो अपने मां-बाप से कह नहीं पाए- ‘ये मुझसे नहीं हो पाएगा।’

खैर, ऐसे बच्चे भी हैं जो जी-जान लगाकर जेईई की परीक्षा देते हैं, मगर उन्हें एडमिशन लायक रैंक नहीं मिलती। वो कहीं और बीटेक में दाखिला लेते हैं, लेकिन मन में गूंजता है- ‘मैं आईआईटी नहीं।’ यानी कि ‘मैं होशियार नहीं।’ भाई, अगर आपने खुद ऐसा मान लिया है तो दुनिया क्यों नहीं मानेगी?

ये बात सही है कि आईआईटी के स्टूडेंट्स को फेसिलिटीज़ अच्छी मिलती है, नौकरी आसानी से मिलती है। मगर ये नहीं कि उनकी रगों में खून कुछ अलग बह रहा है। कौशल का बीज हम सबमें है, उसको पनपाने के लिए मन की मिट्टी को सींचना होगा। इसको करने के दो तरीके हैं। एक तो आप एक विषय चुन लें और इसके मास्टर बन जाएं।

आज इंटरनेट एक टाइमपास का जरिया है, मगर ज्ञान का महासागर भी है। बस, इस सागर में गोते लगाने की आस होनी चाहिए। आईआईटी से लेकर एमआईटी तक अनेक सब्जेक्ट्स में ऑनलाइन कोर्स (MOOC) ऑफर करते हैं। यूट्यूब, टेड टॉक के जरिए भी आप बहुत कुछ सीख सकते हैं।

प्रसिद्ध लेखक मैल्कम ग्लेडवेल ने अपनी किताब ‘द आउटलाइनर्स’ में सक्सेस पर काफी रिसर्च की। कई हस्तियों को परखा। सबमें एक बात पाई। चाहे बिल गेट्स हो या माइकल जैक्सन। उन हस्तियों ने अपनी कला-प्रतिभा पर दिल-ओ-जान लगा दी। न पैसे के लिए, न तालियों के लिए, न किसी फायदे के लिए। 19 साल की उम्र में बिल गेट्स ने हार्वर्ड छोड़कर अपनी कंपनी माइक्रोसॉफ्ट शुरू की।

लेकिन ये कोई ‘ओवरनाइट सक्सेस’ नहीं। मैल्कम ग्लेडवेल इसे कहते हैं ‘10,000 ऑवर रूल’ (10 हजार घंटों की तपस्या) अपनी दिलचस्पी और प्रतिभा की किसी भी फील्ड में पूरे तन और मन से डूब जाओ। खोजो, सीखो, आनंद लो। आप उस फील्ड में माहिर हो जाएंगे। डिग्री हो न हो, बंद दरवाजे आपके लिए खुल जाएंगे।

हां, इधर तक पहुंचना मुश्किल है क्योंकि लोग आपके फालतू के शौक पर टिप्पणी करेंगे। उन्हें इग्नोर कीजिए। बस अपने रास्ते पर चलते जाइए। मुस्कराते हुए, इठलाते हुए। बेहतरीन इंजीनियर बनना हो या बेहतरीन बावर्ची, फॉर्मूला वही है। मेहनत, मगर प्यार से। गाता रहे मेरा दिल, मिल जाएगी मंजिल। जो मेहनत करते-करते कोस रहा है, जिसे काम एक बोझ लग रहा है, वो थका-हारा कितनी दूर जा पाएगा? अपनी मंजिल तक ना पहुंच पाएगा। चांद की तरफ नजर फेंकें। ऊंचे-ऊंचे सपने देखें।

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