हिमालयी क्षेत्र में विकास प्रक्रिया पर ब्रेक लगाना होगा

हिमालयी क्षेत्र में विकास प्रक्रिया पर ब्रेक लगाना होगा

आंखों को सुकून देने वाली प्रकृित इस बार डरा रही है। दरकते पहाड़ों के विचलित करने वाले दृश्य थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के हिमालयी इलाके भारी वर्षा, बाढ़, भूस्खलन से अस्थिर होकर अपरिवर्तनीय क्षय में प्रवेश कर रहे हैं। अस्थिर ढलानों से नीचे खिसकती भारी चट्टानें, पारिस्थितिकी के नुकसान से कई जानें जा चुकी हैं।

विशेषज्ञों की मानें तो पहाड़ी राज्यों में प्रकृति की इस विनाश लीला पर शोक मनाने का अब वक्त नहीं है। जलवायु परिवर्तन पर तुरंत कार्रवाई करने का वक्त आ गया है।हालांकि जलवायु परिवर्तन का असर पहले से कहीं ज्यादा जाहिर था। विशेषज्ञों के अनुसार यह कहना गलत नहीं होगा कि अब तक के मानसून पर चरम मौसम की घटनाएं हावी रही हैं।

इनमें उमस भरी हीटवेव से लेकर मूसलाधार बारिश और साइकलोजेनेसिस तक उतार-चढ़ाव रहा। इस साल जून में देश के 77 स्टेशनों में भारी वर्षा की घटनाएं पिछले पांच सालों में सबसे ज्यादा सामने आईं। वैज्ञानिकों का कहना है कि इस पूरे घटनाक्रम के लिए बदलती जलवायु और हमारी अक्रियाशीलता सीधे तौर पर जिम्मेदार है।

हिमालयी भू-दृश्य भूस्खलन और भूकंप के लिए अतिसंवेदनशील क्षेत्र है। हिमालय का निर्माण भारतीय और यूरेशियाई प्लेटों के टकराने से हुआ है। भारतीय प्लेट के उत्तर दिशा की ओर गति के कारण चट्टानों पर लगातार दबाव बना रहता है, जिससे वे कमजोर हो जाती हैं और भूस्खलन की आशंका बढ़ जाती है।

भूस्खलन के प्रभावी कारकों जैसे- भूविज्ञान, भू-आकृति कारक, ढाल, भूमि उपयोग, वनस्पति आवरण और मानव क्रियाकलापों के कारण हिमालय की युवा पर्वत शृंखलाएं भूस्खलन के लिए संवेदनशील हैं।दुनिया के किसी हिस्से में एक दशक से भी कम समय में बार-बार ऐसी बड़ी आपदाएं हर साल होना बहुत ही असामान्य है।

ग्लोबल वार्मिंग के हद से गुजर जाने के चलते भारत में चरम मौसम की घटनाओं में वृद्धि का पैमाना हर साल नई ऊंचाइयां छू रहा है। दुनिया के सबसे कमजोर पारिस्थितिकी तंत्रों में से एक हिमालय, ग्लोबल वार्मिंग का खामियाजा भुगत रहा है। बढ़ते तापमान के कारण क्रायोस्फीयर- ग्लेशियर, बर्फ और पर्माफ्रॉस्ट- में अपरिवर्तनीय बदलाव हो रहे हैं, जिसका इन जल स्रोतों पर निर्भर डाउनस्ट्रीम क्षेत्रों पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है।

इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) 2019 और 2022 में प्रकाशित दो रिपोर्ट के अनुसार यह क्षेत्र आपदाओं के प्रति बहुत संवेदनशील है। इसका मतलब है कि एक बहुत मजबूत योजना प्रक्रिया का पालन होना चाहिए।

अधिक ऊंचाई के क्षेत्रों पर तेजी से गर्मी बढ़ने, ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने और अधिक अनियमित बर्फबारी के पैटर्न की चेतावनी दी है। जैसे-जैसे तापमान बढ़ता जा रहा है, इन परिवर्तनों के दूरगामी परिणाम होंगे- जैव विविधता के नुकसान से लेकर जल असुरक्षा और प्राकृतिक आपदाओं के खतरे में वृद्धि तक।

विशेषज्ञों का कहना है कि इस संवेदनशील क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव अधिक विनाश का कारक बनता है और ऐसे में विकास के लिए होने वाले निर्माण अधिक आपदाओं को न्योता देंगे। जलवायु परिवर्तन, अनियोजित शहरीकरण और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन ही इस घटनाक्रम का कारक है। इसके लिए जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय-प्रतिकूल विकास गतिविधियों में आई अचानक तेजी दोनों ही बराबर के जिम्मेदार हैं।

गौरतलब है कि हिमालय के दरकने की समस्या के दो पहलू हैं, पहला है बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचे का विकास, जो हिमालय जैसे बहुत ही नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र में हो रहा है और यह पर्यावरण की रक्षा करने की प्रक्रिया के बिना हो रहा है। और दूसरा, जलवायु परिवर्तन जो इसके लिए एक कैटेलिस्ट की भूमिका निभा रहा है।

(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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