भारत में बच्चों के लिए रोचक पब्लिक स्पेस क्यों नहीं हैं?

भारत में बच्चों के लिए रोचक पब्लिक स्पेस क्यों नहीं हैं?

जब भी वीकएंड आता है, वह बच्चों के लिए टीवी, आईपैड और मोबाइल के समक्ष 48 घंटों के संघर्ष की तरह होता है। खासतौर पर मानसून के मौसम में जब पार्क वगैरा भी कीचड़ से सने होते हैं। बच्चों की लाइब्रेरियां तो खोजे से नहीं मिलतीं। म्यूजियम?

मेरी सात साल की बेटी के लिए म्यूजियम का मतलब है किसी विशालकाय डायनोसौर के कंकाल की प्रदर्शनी, कुछ पहेलीनुमा संरचनाएं जिन्हें उसकी अति-उत्साहित मां उसे समझाने और खुद समझने की कोशिश कर रही होती है, और अंत में महज आधे घंटे बाद किसी कैफे में शरण ले लेना।

प्ले-एंड-लर्निंग की गतिविधियां होम-लाइब्रेरी तक सीमित हैं, जिनमें कभी-कभार कोई प्रयोगात्मक किट होती है और पैसों का व्यय करने वाली क्लासेस अंत में ज्यादा कुछ नहीं सिखा पातीं। लेकिन हाल ही में हमें अलहदा अनुभव हुआ, जब हमने स्वयं- यानी चार जन का परिवार और बहुत सारे कजिन्स- को जर्मनी में लम्बी छुट्टियां बिताते पाया। वहां खेल और सीखने के बीच की सीमारेखा धुंधला गई थी, और वहां हम बच्चों को सिखा नहीं रहे थे, उनके साथ मिलकर खुद भी बहुत कुछ सीख रहे थे!

अकेले बर्लिन में ही 50 से ज्यादा चिल्ड्रंस म्यूजियम थे और छह दिनों के अपने प्रवास के दौरान हमने हर रोज उनमें से दो का लाभ उठाया। लेबिरिंथ नामक एक म्यूजियम में सीढ़ियों, गुफाओं, सुरंगों, खुफिया मुकामों, कोनों-अंतरों के माध्यम से तीन से दस साल के बच्चों को खेल-खेल में बहुत मजेदार बातें सिखाई जा रही थीं, जैसे विभिन्न टेक्सचर्स की सेंसरी टाइल्स, समुद्र की लहरों के पैटर्न्स, विभिन्न पशुओं की आकृतियां, भिन्न-भिन्न फ्लोरा और फॉना (वनस्पति और जीव-जगत) को प्रदर्शित करने वाले प्ले-स्टेशन, पर्यावरण-सम्बंधी इनोवेटिव सूचनाएं देने वाले वीडियो जो स्क्रीन को छूने भर से चल पड़ते थे।

क्राफ्ट-कॉर्नर- और ये तमाम चीजें खेलते-कूदते, मजा उठाते हुए सीखी जा सकती थीं। फिर एक डीडीआर म्यूजियम था, जिसमें कम्युनिस्ट शासन के दौरान पूर्वी जर्मनी में रहने वाले लोगों के जीवन को प्रदर्शित किया गया था। यह सात साल के किसी बच्चे के लिए एक कठिन विषय था, पर इसे वहां बहुत मजेदार तरीकों से समझाया गया।

एक दिन हम जर्मनी स्पाई म्यूजियम गए तो अगले दिन एनी फ्रैंक म्यूजियम। एनी फ्रैंक म्यूजियम में प्रवेश से पूर्व हमें एक छोटी-सी बुकलेट दी गई, जिसमें पूछे सवालों का जवाब देने पर पुरस्कार दिया जाना था। एफईजेड बर्लिन में हमने एक अर्बन-फॉरेस्ट की यात्रा की, जो पेड़ चढ़ना, तैरना, जंगल की सैर जैसी मजेदार गतिविधियों से भरा था।

ओर्बिट म्यूजियम में बच्चों को बताया जाता था कि एस्ट्रोनॉट बनने के लिए क्या किया जाता है। एस्ट्रिड लिंडग्रेन में दंतकथाओं से भरे नाटक प्रदर्शित किए जाते थे। जर्मनी के स्कूल इन तमाम म्यूजियमों के साथ सक्रिय सहभागिता करते हैं और स्कूलों में ये तमाम विषय एक जीवंत-शिक्षण-अनुभव के साथ सिखाए जाते हैं।

जर्मनी की लगभग हर बसाहट के पास अपने पार्क थे, जिनमें खेलकूद की अनेक गतिविधियां की जा सकती थीं। हम जर्मनी में जहां भी गए, बच्चे इन्हीं सब लर्निंग-विद-फन वाली गतिविधियों में डूबे दिखलाई दिए। वे अनमने ढंग से कुछ समय के लिए कोई काम नहीं कर रहे होते थे- अगर वे पेंटिंग कर रहे होते या कोई फोर्ट बना रहे होते तो काम पूरा होने तक वहां से हटते न थे। और ऐसा वे स्वप्रेरणा से करते थे, इसके लिए पैरेंट्स द्वारा उन पर दबाव नहीं बनाया जाता था।

भारत में भी ऐसे प्रयास हो रहे हैं, जैसे मुम्बई में वास्तु संग्रहालय या कोलकाता में आरबीआई म्यूजियम, लेकिन हमें अभी एक लम्बी यात्रा तय करना है। म्यूजियम कुछ सीखने और नॉलेज हासिल करने की जगह ही नहीं होते, बल्कि एक्सप्लोरेशन और इंटरेक्शन के डायनैमिक-स्पेस भी होते हैं। हमें उस पुरानी कहावत को याद रखना चाहिए कि ‘सुना और भूला, देखा और याद रखा, पर किया तब ही जाकर समझा!’

म्यूजियम कुछ सीखने की जगह ही नहीं होते, बल्कि एक्सप्लोरेशन और इंटरेक्शन के डायनैमिक-स्पेस भी होते हैं। हमें उस पुरानी कहावत को याद रखना चाहिए कि ‘सुना और भूला, देखा और याद रखा, पर किया तब ही जाकर समझा!’
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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