दुनिया एक खाद्यान्न-संकट के मुहाने पर आ खड़ी हुई है

इस महीने की शुरुआत में यूएन सुरक्षा परिषद की एक विशेष बैठक हुई। पर वह रूसी युद्ध या नाइजर के तख्तापलट के बारे में नहीं थी। वह खाद्य सुरक्षा के लिए बुलाई गई थी। और जब यूएन की सुरक्षा परिषद फूड के बारे में बात करती है तो आप सोच सकते हैं यह एक बड़ी समस्या है। लेकिन कितनी बड़ी?

आज दुनिया में 78 करोड़ यानी हर दस में से एक लोग ऐसे हैं, जिन्हें नहीं पता कि उनका अगला भोजन कहां से आएगा। लगभग 34.5 करोड़ लोग भुखमरी से ग्रस्त हैं। 2020 के बाद यह संख्या दोगुनी हो गई है। इनमें से 4.9 करोड़ लोग अकालग्रस्त होने की कगार पर हैं। ये अभूतपूर्व है।

विश्व खाद्य कार्यक्रम की स्थापना 1963 में की गई थी। तब से वैश्विक आंकड़े कभी भी इतने नहीं रहे हैं। फिर आज ऐसी स्थिति क्यों बनी? एक कारण तो बढ़ती आबादी है। जब आबादी बढ़ती है तो भूखों की संख्या में भी वृद्धि होती है। लेकिन वर्तमान संकट के पीछे दो मनुष्य-निर्मित समस्याएं हैं। पहली है युद्ध।

आज भुखमरी से जूझ रही दुनिया की 70% आबादी युद्धग्रस्त क्षेत्रों जैसे यमन, कॉन्गो, चाड, नाइजर आदि में रहती है। यूक्रेन में चल रहे युद्ध से हालात और बदतर हो गए हैं। दुनिया के कुल गेहूं निर्यात में यूक्रेन की हिस्सेदारी 10% के आसपास है। साथ ही वह लगभग 15% मक्के का निर्यात भी करता है। इनमें से अधिकतर खाद्यान्न विकासशील देशों को जाता था, जिस पर अब रोक लग गई है।

पिछले महीने रूस ने ब्लैक सी ग्रेन डील से हाथ खींच लिए। उसने यूक्रेन के खाद्यान्न निर्यात पर रोक लगा दी है। इससे खाद्य-संकट और बढ़ गया है। गेहूं की कीमतों में लगभग 10% का इजाफा हुआ है, जबकि करोड़ों टन गेहूं यूक्रेन में रुका पड़ा है।

जरा सोचें कि ये हालात कितने विडम्बनापूर्ण हैं : एक तरफ दुनिया में 78 करोड़ लोग भूखे हैं, जबकि युद्ध के कारण गेहूं यूक्रेन के भंडारगृहों में रखा सड़ रहा है!दूसरा कारण है जलवायु परिवर्तन। 2023 में हमें इतिहास की सबसे भयावह हीट-वेव्ज़ का सामना करना पड़ा है। पिछले महीने को अभी तक की सबसे गर्म जुलाई के रूप में दर्ज किया गया था।

चीन प्रलयंकारी बाढ़ों का सामना कर रहा है। लाखों हेक्टेयर फसलें नष्ट हो गई हैं। मौसम की मार से फसलों पर सीधा असर पड़ रहा है। आने वाले दो दशकों में गेहूं-उत्पादन में लगभग 20% की गिरावट आ सकती है। 2080 तक यह आंकड़ा 40% तक पहुंच सकता है। यानी जहां एक तरफ आबादी बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर खाद्य-उत्पादन गिर रहा है। जाहिर है, यह बुरी खबर है।

इन दोनों कारणों के चलते दुनिया के अनेक देश कठोर कदम उठाने को मजबूर हुए हैं।भारत का ही उदाहरण लें, जो अब अपने खाद्य-निर्यात पर रोक लगा रहा है। पिछले साल भारत ने गेहूं-निर्यात पर पाबंदी लगाई थी। फिर उसने चावल की विभिन्न किस्मों के निर्यात पर नियंत्रण लगा दिया। इसके बाद प्याज पर 40% निर्यात ड्यूटी की बारी आई।

खबरों के मुताबिक अगली बारी शकर की आ सकती है। सरकार सात साल में पहली बार शकर निर्यात पर नियंत्रण की घोषणा कर सकती है। ये निर्णय महत्वपूर्ण हैं पर चौंकाने वाले नहीं। आखिर भारत में खाद्य पदार्थों की महंगाई दोहरे अंकों में पहुंच गई है। पिछले महीने यह तीन साल में सबसे अधिक थी।

जुलाई में कुल मुद्रास्फीति 7.44% थी, जो कि आरबीआई की आदर्श संख्या से लगभग दोगुनी है। ऐसे में भारत के सामने घरेलू-आपूर्ति के नियमितीकरण के सिवा कोई चारा नहीं था। लेकिन भारत के निर्णयों का दुनिया पर असर पड़ता है। भारत दुनिया के लगभग 40% चावल का निर्यात करता है।

पिछले साल भारत ने 140 देशों को 2.2 करोड़ टन चावल का निर्यात किया। जब यह आपूर्ति रातोंरात समाप्त हो जाएगी तो उसका असर तो दिखेगा ही। जनवरी की तुलना में चावल की कीमतें तकरीबन 20% बढ़ गई हैं, जो कि 2011 के बाद सर्वोच्च है।अगर आप खाद्य-उत्पादक देश हैं- जैसे कि भारत या अमेरिका- तो आप निर्यात को नियंत्रित करके अपने लिए खाद्यान्न सुरक्षित कर सकते हैं, लेकिन दुनिया के 130 से अधिक देशों के पास यह सुविधा नहीं है। वे खाद्यान्न के आयातक हैं और जितना बेचते हैं, उससे ज्यादा खरीदते हैं।

भुखमरी का असर कुपोषण, विकास में बाधा और घटती इम्युनिटी के रूप में दिखेगा। महामारी के बाद वैश्विक भूख में 119% की बढ़ोतरी हुई है। पिछले साल यूएन ने भूखों को भोजन देने के लिए 14 अरब डॉलर की मदद दी थी, लेकिन लक्ष्य 40 अरब डॉलर का है।

यह सुनने में बहुत लगता है, लेकिन अमेरिका के रक्षा बजट में 5% की कटौती से भूख की समस्या काे हल किया जा सकता है। तेल कम्पनियों ने इस साल की पहली तिमाही में 100 अरब डॉलर कमा लिए हैं। यानी सवाल प्राथमिकताओं का है।

(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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