आम मतदाता भी सुस्त और सुप्त पड़े हैं…

आम मतदाता भी बारिश वाले बादलों की तरह सुस्त और सुप्त पड़े हैं…

मैदानों में बारिश के अते-पते नहीं हैं और सावन बीता जा रहा है। उधर हिमाचल में जो बादल गीले पैरों पर चलते-चलते सामने वाली पहाड़ी के कंधों पर बिखरी हुई धूप चुना करते थे, वही अब पहाड़ों पर फट पड़े हैं। इन पहाड़ी इलाकों में नदियां अपना रास्ता बदल रही हैं।

उन रास्तों पर लोगों ने जो घर बांधे थे, वे जमींदोज हो रहे हैं। लोगों के रहने का ठिकाना नहीं रहा। उनका माल-असबाब सब बिखरकर नदी के साथ हो लिया और हम मैदानी इलाकों वाले, दूर बैठकर केवल उस तबाही के दृश्य भर देखने पर विवश हैं। मैदानी इलाकों में आएं तो वही बादल भूरे पड़ चुके हैं। लग रहा है जैसे उनके मुंह पर कोई हल्दी पोत गया है।

मौसम से याद आया, इधर कुछ राज्यों में भर सावन में एक अलग ही मौसम आ पड़ा है- चुनावी मौसम। नूंह हो या कोई और इलाका, सुनसान-सी एक हवा बह रही है- हर तरफ। सांय-सांय। ये हवा सारे शहर को बयां करती फिरती है।

सबको तलाश है। सबको कसक है। दर्द की जड़ को खोजने की। दर्द तो दिखता है। यदा-कदा। यहां- वहां। लेकिन इसकी जड़ दिखाई नहीं देती। इस चुनावी मौसम में वो माहौल हवा हो जाता है जो कभी हमें गुदगुदाता था। सुबह की नाजुक धूप जैसे दरिया के पानी पर गिरती थी! हल्की सुस्त-सी हवा, शाख-शाख पौधों को जगाती थी। जब दौड़ते थे दरिया, समुंदरों की तरफ, काले आसमान में जब सितारे चटखते थे, हर किसी की आंखों में रोशनी जाग जाती थी। ये सब बातें अब केवल खयालों में रह गई हैं।

चुनाव होते ही ऐसे हैं। हर तरफ एक अजीब-सी तपन। एक चीख। एक पुकार। तम और गम भरे बादलों की तरह। जैसे बारिश वाले बादल मैदानी इलाकों में सुस्त और सुप्त पड़े हैं, वैसे ही राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी लोग यानी आम मतदाता सुस्त ही हैं। कोई उनकी रुचि या प्रसन्नता नहीं देख रहा। केवल नेता लोग तीव्रता की हद तक सक्रिय हो चुके हैं।

कुछ राजनीतिक दलों ने तीन महीने पहले ही कुछ टिकट जारी कर दिए हैं। नेताओं की सक्रियता का ये भी बड़ा कारण है। कोई मौजूदा प्रत्याशी का विरोध कर रहा है। कोई दूसरे का टिकट कटवाकर अपने लिए संघर्ष में जुट गया है। पता है कुछ बदलने वाला नहीं है। फिर भी लगे हैं संघर्ष में।

यह सोचकर कि प्रयास तो किए ही जा सकते हैं। इससे भला कोई किसी को कैसे रोक सकता है?
टिकटों के विरोधों को देखकर लगता है कांग्रेस की शैली अब भाजपा में भी आ चुकी है। दरअसल जो भी राजनीतिक दल बड़ा हो जाता है, कांग्रेस के गुण उसमें आ ही जाते हैं।
एक जमाना था जब कांग्रेस में बगावती सुर यहां-वहां पसरे रहते थे लेकिन भाजपा में ऐसा नहीं होता था। अब माहौल बदल चुका है।

किसानों के खेतों में जैसे सोयाबीन की फसल पक रही है वैसे ही वोटों की फसल पकाने की तैयारियां चल रही हैं। जैसे मधुमक्खियां अपने पंखों की छांह में शहद पकाती हैं, क्या राजनीतिक पार्टियां, क्या नेता, हर कोई अपने हिस्से की फसल पकाने में जुटे हुए हैं।

हर शहर, हर कस्बा, हर गांव चुप है। केवल नेता बोल रहे हैं। जहां तक आम आदमी का सवाल है- वह अपने रोजाना के संघर्ष में लगा हुआ है। एक अजीब-सी चुप्पी साधे सबकुछ देख तो रहा है लेकिन रोज के कामों से फुर्सत नहीं है।

सारे चौकों के बर्तन धुले हैं या नहीं? चूल्हे की आखिरी राख भी बुझ चुकी है या नहीं? वो अपने ही वजूद की आंच के आगे, औचक हड़बड़ी में, खुद को ही सानता, खुद को ही गूंधता, खुश है कि रोटी बेली जा रही है। खुश है कि दो वक्त का इंतजाम हो चुका है।

किसी नेता, किसी पार्टी को उसकी फिक्र पूरे पांच साल से नहीं थी। लेकिन चुनाव के वक्त इस सूखे से सावन में भी अचानक सुविधाओं की बाढ़ आ चुकी है। गैस सिलेंडर नाम मात्र के दाम पर। हर महीने मुफ्त की रेवड़ी। कहीं पैसे के रूप में। कहीं मोबाइल फोन या इसी तरह की अन्य सुविधा के रूप में।

अगर कोई सुकून है तो सिर्फ इतना कि चंद्रमा पर हमारा अभियान सफल हो चुका है। विक्रम और प्रज्ञान दो भाई मिलकर नई-नई सूचना दे रहे हैं…

इस बीच हम अब सूरज का अध्ययन करने के लिए भी यान भेज रहे हैं।

वही सूरज जिसके उगने से हमारा बहुत कुछ उदित होता है और जिसके डूबने से हमारा बहुत कुछ डूब जाता है। हो सकता है सूरज के अध्ययन से बहुत कुछ नया निकले।

हो सकता है सूर्य के अध्ययन से ही कुछ नया निकले…
अगर कोई सुकून है तो सिर्फ इतना कि चंद्रमा पर हमारा अभियान सफल हो चुका है। विक्रम और प्रज्ञान दो भाई मिलकर नई-नई सूचना दे रहे हैं… इस बीच हम अब सूरज का अध्ययन करने के लिए भी यान भेज रहे हैं।

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