बिना फीस, बिना डिग्री ही मैनेजमेंट सीख सकते हैं

हम आते हैं इस दुनिया में खाली हाथ और जाते हैं खाली हाथ। बीच का समय कहलाता है ‘जीवन का सफर’, बस वही आपकी संपत्ति है। ऐसे शब्दों से जब किसी किताब की शुरुआत हो, तो पढ़ने की इच्छा क्यों न होगी? आत्मकथा है एक जाने-माने उद्योगपति की, जो रईस परिवार में जन्मे। मगर कठिनाइयों से उन्हें भी जूझना पड़ा।

जब जन्म हुआ, पंडित ने कुंडली देखकर कहा- ये बच्चा जीवन में बड़ी सफलता पाएगा। बस, सबकी अपेक्षाओं के बोझ में वो दब गया। कॉलेज में पहुंचा एक शर्मीला और लो-कॉन्फिडेंस वाला लड़का। और तो और, जब उसने विदेश में एमबीए करने की इजाजत मांगी, तो पिताजी ने मना कर दिया।

पैसों की कमी नहीं थी, बस पिताजी को डर था कि बेटा बाहर न सेटल हो जाए। खैर, बीस साल की उम्र में उन्होंने फैमिली बिजनेस में पैर रखा। व्यवसाय दादाजी ने शुरू किया था, काफी बड़ा था, देशभर में फैला। एक ही बंगले में चार भाई, उनके परिवार रहते थे, रोज शाम को साथ भोजन करते। जॉइंट बिजनेस, जॉइंट फैमिली।

एमबीए हो न सका, मगर कुछ सीखने की चाह जिसमें हो, उसके लिए तो जिंदगी ही टीचर का रूप ले लेती है। हमारे जिज्ञासु नौजवान ने वो सब किया, जो कोई मालिक का बेटा नहीं करता। फैक्ट्री में लोगों से बात की। सड़कों की धूल खाकर दुकानवालों से मुलाकात की। अपने से ज्यादा ज्ञानी लोगों को गाइड और गुरु बनाया।

और इस तरह बिना फीस, बिना डिग्री ‘मैनेजमेंट क्या होता है’ उसकी नब्ज पकड़ ली। मगर बिजनेस पुरानी स्टाइल से चल रहा था, चाचा-ताऊ उसमें बदलाव नहीं चाहते थे। फिर भी, हमारे नौजवान ने हिम्मत नहीं हारी। मुख्य व्यापार था नारियल का तेल, जो एक-दो किलो के टिन में बिकता था। मगर लूज भी बिकता था।

मन में ख्याल आया, क्यों न हम ही 100 और 200 एमएल की यूनिट बेचें? और टिन में नहीं, प्लास्टिक की बोतल में। आज आपको विश्वास नहीं होगा मगर 80 के दशक में प्लास्टिक का चलन नहीं था। दुकानदारों का कहना था कि चूहे बोतल कुतर जाते हैं, उसका नुकसान होगा। तो फिर उन्हें कैसे मनाएं?

कंपनी की टीम ने दिमाग लगाया, बोतल की डिजाइन बदली। एक पिंजरे में तेल की बोतल रखी, साथ में चूहे। दो दिन ऑब्जर्व किया, वीडियो रिकॉर्डिंग की। चूहे कुछ न बिगाड़ पाए, नई बोतल मार्केट में निकली और आज तक हम उसे यूज कर रहे हैं। शायद आप समझ गए होंगे कि मैं किसकी बात कर रही हूं।

पैराशूट नारियल की प्रसिद्धि बढ़ती गई और कंपनी के प्रॉफिट भी। मगर हर्ष मारीवाला और बहुत कुछ करना चाहते थे। वो अपने फैमिली बिजनेस को नए तरीके से चलाना चाहते थे, प्रोफेशनल मैनेजर्स के साथ। यहां उनके आइडियाज़ की कद्र नहीं थी। उनका दम घुट रहा था।

अपने चचेरे भाइयों को उन्होंने कहा कि बिजनेस में बंटवारा हो जाए। इस तरह जन्म लिया एक नई कंपनी ने, जिसका नाम है मैरिको। जहां एकदम अलग वर्क कल्चर का सृजन हुआ। आत्मसम्मान और अपनेपन की भावना से लोग काम करने लगे। आगे बढ़ने की होड़ में हम भूल रहे हैं कि ‘पीपुल कम फर्स्ट।’ बहुत सारे स्टार्टअप हैं, जिनके पास पैसे बहुत हैं, और उसके बल पर उन्होंने लोगों का दिमाग खरीद लिया है। न कंपनी की तरफ से निष्ठा, न काम करने वालों की तरफ से ।

खैर ‘हार्श रिएलिटीज़’ नामक किताब में बहुत सारी काम की बातें हैं। आप जरूर पढ़ें। वैसे आजकल किताब पढ़ते हुए लोग कम दिखते हैं, सब फोन के अंदर घुसे हुए हैं। पर मैं दावे से कह सकती हूं कि जिस तरह जिम में शरीर पनपता है, उसी तरह किताब से दिमाग उभरता है।

खासकर, सच्चाई से लिखी गई आत्मकथा पढ़कर। कोई कितना भी अमीर हो, प्रसिद्ध हो, सफल हो- उसके जीवन में भी संघर्ष है। देखा जाए तो संघर्ष का नाम ही जीवन है। संघर्ष से न कतराओ, उससे नजर मिलाओ।

(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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