राजनीति में सहयोग की गुंजाइश बाकी है ?

राजनीति में सहयोग की गुंजाइश बाकी है

नई दिल्ली जब ऋषि सुनक से लेकर शेख हसीना वाजेद और जो बाइडन समेत दुनिया भर के सत्ताधारियों और अंतरराष्ट्रीय प्रतिनिधिमंडलों के हुजूम का स्वागत कर रही थी, तब विपक्षी खेमे में दो बातें ऐसी भी घटीं, जो सुर्खियां बनने के काबिल थीं। एक, ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के पहले पेज पर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का इंटरव्यू; और दो, ब्रुसेल्स में मीडिया से बात करते राहुल गांधी का बयान।

मनमोहन सिंह ने अपने इंटरव्यू में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की आलोचना में कुछ नहीं कहा। भारत जिस दिशा में आगे बढ़ रहा है, उसके बारे में उन्होंने कुल मिलाकर आशावादी नजरिया ही जाहिर किया। इतना जरूर कहा कि देश में अगर सामाजिक मेलजोल का माहौल रहे तो वह और बेहतर प्रदर्शन कर सकता है। लेकिन राहुल ने सरकार पर सीधा आरोप लगाया कि वह भारत में लोकतंत्र को कमजोर कर रही है।

हालांकि दोनों नेताओं ने रूस-यूक्रेन मसले पर साफ-साफ कहा कि मोदी सरकार ने सही रुख अपनाया है और वे उसका समर्थन करते हैं। राहुल ने एक कदम आगे बढ़कर यह भी कहा कि विपक्ष की सरकार होती तो वह भी लगभग यही नीति अपनाती। यह सब भारतीय राजनीति के लिए कोई नई बात नहीं है।

विदेश नीति और रणनीतिक मामलों में सत्ता पक्ष और मुख्य विपक्ष के बीच पहले भी एक सहमति देखी गई है। लेकिन हाल के दिनों में, हमारी राजनीति में इतना विभाजन और ध्रुवीकरण हो गया है कि कही जाने वाली चंद सामान्य बातें भी अब सुर्खियों के काबिल मानी जा सकती हैं।

यह सब कैसे शुरू हुआ, यह समझने के लिए कोई गहरा शोध करने की जरूरत नहीं है। वाजपेयी दौर के बाद से ही कांग्रेस और भाजपा के रिश्ते में खटास पैदा होने लगी थी। आडवाणी दौर में, आप चाहें तो कह सकते हैं कि आपसी तहजीब के तकाजों को हवा में उड़ा दिया गया और शुद्ध कटुता हावी हो गई थी।

इसने राष्ट्रीय विमर्श को नष्ट तो किया ही, व्यापक राष्ट्रीय हित को भी नुकसान पहुंचाया। यहां हम इसके तीन उदाहरण दे रहे हैं, जिनमें दो तो शुद्ध रूप से विदेश नीति से संबंधित हैं और एक आर्थिक नीति से संबंधित है, जिनके व्यापक परिणाम हुए :

1. 2005 से 2008 के बीच, भारत-अमेरिका परमाणु संधि। सही बात तो यह थी कि यूपीए सरकार ने इस मामले में उसी प्रक्रिया का अगला तार्किक कदम उठाया था जिसे वाजपेयी ने शुरू किया था। लेकिन भाजपा ने इसे इस हद तक ‘आत्मसमर्पण’ मान लिया कि उसने अपने स्थायी वैचारिक विरोधियों- वाम दलों तक से हाथ मिलाने से परहेज नहीं किया और इस संधि को लेकर सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में वोट भी दिया। संसद में उस समय सुषमा स्वराज ने कहा था, यह संधि वैसी ही है जैसी मुगल बादशाह जहांगीर ने ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में कारोबार करने की इजाजत दी थी। उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा था, उस इजाजत ने ढाई सौ साल तक देश को गुलाम बनाने की नींव रखी थी। इस परमाणु संधि का भी वही परिणाम होगा।

2. इसी तरह, भाजपा ने भारत-बांग्लादेश सीमा समझौते में भी अड़ंगा लगाया था। इस समझौते के तहत दोनों देश अपने-अपने अंदरूनी क्षेत्र में बसी बस्तियों का आदान-प्रदान करने वाले थे। भाजपा इसके पीछे के तर्क को, या यह भी समझने को राजी नहीं थी कि इस समझौते के तहत शेख हसीना की अवामी लीग सरकार को मजबूती देने और इस प्रक्रिया में अपने एक सीमा विवाद को निपटाना भारत के ही व्यापक हित में था। अरुण जेटली ने कहा था, भारत की जमीन के मामले में कोई समझौता नहीं किया जा सकता। तब तक मोदी भाजपा के प्रमुख नेता के तौर पर उभर चुके थे और मैंने अगस्त 2013 में ‘डियर नरेंद्र भाई’ शीर्षक से अपने कॉलम में उनसे अपील की थी कि वे इस मामले में दखल दें और समझौते को होने दें।

3. तीसरा उदाहरण मल्टीपल ब्रांड रिटेल में एफडीआई की इजाजत देने का था। एक बार फिर भाजपा ने इस कदम का जोरदार विरोध किया और इसे भारत की आर्थिक आजादी पर हमला बताया। उसने पड़ोस की परचून की दुकानों के भविष्य को लेकर चिंता जताते हुए इस कदम के खिलाफ संसद में वोट देकर इसे रोक दिया। लेकिन यह आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण कदम था। भारत आज अगर आर्थिक ताकत है तो ऐसे कदमों की ही वजह से। अब करीब एक दशक बाद, यह जानना मुफीद होगा कि आज इन नीतियों की क्या स्थिति है। भारत-अमेरिका रणनीतिक संबंध और गहरा हुआ है और मोदी सरकार परमाणु संधि का इस हद तक समर्थन करती है कि वह इसमें जिम्मेदारी वाले मसले को भी सुलझाने के लिए तैयार है। बांग्लादेश के मामले में, सीमा विवादों का निपटारा मोदी सरकार की शुरुआती उपलब्धियों में शुमार है। और इस निपटारे को लेकर कोई विवाद भी नहीं हुआ। और, मल्टीपल ब्रांड रिटेल वाले मामले का क्या हुआ? प्रतिबंधों को एक-एक करके खत्म या हल्का कर दिया गया। और ई-कॉमर्स का? चाहे वह ग्लोबल मार्केट लीडर अमेजॉन हो या विदेशी पैसे से चलने वाले स्टार्टअप (ज्यादातर चीनी और कुछ जापानी), ये सब भाजपा के उन लोगों के लिए एक सबक हैं, जिन्होंने संसद में जोर-आजमाइश के लिए मजबूर किया था और मुंह की खाई थी।

भारत की विश्व-दृष्टि में मूलभूत परिवर्तन का श्रेय इस बात को जाता है कि उसकी घरेलू राजनीति की प्रतिस्पर्द्धी ताकतें राष्ट्रहित में आपसी सहयोग को तरजीह देती रही हैं। यूक्रेन-रूस मसले पर कांग्रेस ने मोदी सरकार का जो समर्थन किया है वह इन्हीं मिसालों में शामिल है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *