न्यायपालिका: कार्यपालिका से बेवजह टकराव के निहितार्थ !

न्यायपालिका: कार्यपालिका से बेवजह टकराव के निहितार्थ, पारदर्शी व्यवस्था से ही कायम होगा जनता का भरोसा
कार्यपालिका और न्यायपालिका में मतभिन्नता एक जीवंत लोकतंत्र की निशानी है, लेकिन टकरावों के बढ़ते मामले चिंताजनक हैं। पारदर्शी व्यवस्था में निष्पक्ष और मेरिट वाले न्यायाधीशों की नियुक्ति से न्यायपालिका के प्रति जनता का भरोसा बढ़ने के साथ सरकार के साथ जजों का टकराव भी कम होगा।
सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश ने कहा है कि देश की सभी समस्याओं के समाधान की न्यायपालिका से उम्मीद करना गलत है। शायद इसलिए संविधान निर्माताओं ने समस्याओं और चुनौतियों के समाधान के लिए सरकार, संसद और सुप्रीम कोर्ट के बीच कार्यक्षेत्र और अधिकारों का बंटवारा किया था। 1973 में केशवानंद भारती मामले में शीर्ष अदालत ने सरकार और संसद के साथ अदालतों की लक्ष्मण रेखा का निर्धारण करने वाले संविधान के मूल ढांचे के सिद्धांत का ऐतिहासिक फैसला दिया था। प्रधान न्यायाधीश चन्द्रचूड़ ने उस फैसले को संविधान और गणतंत्र का ध्रुवतारा बताया है। लेकिन शक्तियों के विभाजन के लिए स्पष्ट और लिखित नियमावली न होने से कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव हो रहे हैं।

मतभिन्नता एक जीवंत लोकतंत्र की निशानी है, लेकिन टकरावों की बढ़ती संख्या सभी के लिए चिंता की बात है। इसके चार जरूरी पहलुओं की पड़ताल से न्यायिक व्यवस्था को पुष्ट और दुरुस्त किया जा सकता है। पहला, केशवानंद भारती के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले से नाखुश सरकार ने वरिष्ठता को दरकिनार कर पसंदीदा जजों को नियुक्त करने की गलत परंपरा शुरू की थी। न्यायपालिका को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाने के लिए जजों ने कॉलेजियम प्रणाली की शुरुआत की। न्यायिक फैसलों से न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए बनाए गए कॉलेजियम की भूमिका पर सरकार और न्यायपालिका के बीच सर्वाधिक टकराव हो रहे हैं। न्यायाधीशों द्वारा न्यायाधीशों की मनमाफिक नियुक्ति के मर्ज को खत्म करने के लिए संसद ने सर्वसम्मति से एनजेएसी आयोग की नियुक्ति का कानून बनाया। कॉलेजियम प्रणाली को सड़ांधपूर्ण बताने के बावजूद शीर्ष अदालत की संविधान पीठ ने एनजेएसी कानून को निरस्त करने का फैसला दे दिया। लेकिन उस फैसले के आठ साल बाद भी न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया को व्यवस्थित करने के लिए मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर यानी एमओपी पर सरकार और न्यायाधीशों में सहमति नहीं बन पा रही है। उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के स्थानांतरण और सर्वोच्च न्यायालय में उनकी पदोन्नति के बारे में ठोस नियम न बनने से वरिष्ठता का उल्लंघन हो रहा है। सर्वोच्च अदालत में न्यायाधीशों के सभी पद भरे हैं, लेकिन उच्च न्यायालयों में रिक्त पदों में नियुक्ति पर टकराव जारी है। रिक्त पदों पर भर्ती में विलंब से योग्य न्यायाधीशों में असंतोष बढ़ने के साथ आम जनता को न्याय मिलने में देरी होती है। न्यायाधीशों की नियुक्ति, स्थानांतरण और पदोन्नति के नियमों को एमओपी के माध्यम से लिखित तौर पर नोटिफाई करने की जरूरत है। पारदर्शी व्यवस्था में निष्पक्ष और योग्य न्यायाधीशों की नियुक्ति से न्यायपालिका के प्रति जनता का भरोसा बढ़ने के साथ सरकार से जजों का टकराव भी कम होगा।

दूसरा, पीआईएल, सरकार और न्यायाधीशों के बीच टकराव का सबसे बड़ा माध्यम है। अनुच्छेद-226 के तहत उच्च न्यायालय और अनुच्छेद-32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय को जनता के मूल अधिकारों की रक्षा के लिए आदेश देने के साथ गलत कानूनों को रद्द करने का अधिकार है। 1979 के आसपास जेलों में बंद कैदियों की रिहाई के लिए जनहित याचिका की बड़ी शुरुआत हुई। पिछले कई सालों से हर मर्ज की दवा बन चुके पीआईएल से बढ़ रही न्यायिक सक्रियता के खिलाफ सभी दलों के नेताओं और सरकारों ने चिंता जाहिर की है। सेम सेक्स मैरिज, समान नागरिक संहिता, वैवाहिक दुष्कर्म जैसे अनेक मामलों में कानून बनाने का अधिकार संसद के पास होने के बावजूद अदालतों में लंबी-चौड़ी सुनवाई का चलन बढ़ गया है। कई न्यायाधीशों ने भी पीआईएल के दुरुपयोग और सियासी इस्तेमाल पर गुस्सा जाहिर किया है। पीआईएल के दुरुपयोग को रोकने के लिए बनाए गए लिखित नियमों का उच्च न्यायालय और सर्वोच्च अदालत में ही पालन न होने से न्यायिक अराजकता भी बढ़ रही है। लेकिन यह भी हकीकत है कि पीआईएल की संख्या में बढ़ोतरी से सरकार और संसद की संस्थागत विफलता उजागर हो रही है।

तीसरा, अनेक सियासी मामलों में राज्यों में पुलिस व केंद्र की सीबीआई और ईडी जैसी एजेंसियां गैर-जरूरी गिरफ्तारियों से लोगों की स्वतंत्रता का हनन करती हैं। सभी मामलों में अभिव्यक्ति की आजादी और जीवन के बहुमूल्य अधिकार की रक्षा करना अदालतों की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। लेकिन इन मामलों को संभालने में दो तरह के विरोधाभास की वजह से न्यायाधीशों की आलोचना होती है। एक, गिरफ्तारी और जमानत से जुड़े मामलों में जिला अदालतों में ही शुरुआती सुनवाई और फैसला होना चाहिए। दो, आम जनता को सालोंसाल न्याय नहीं मिलता, लेकिन वीआईपी लोगों के मामलों में शीर्ष अदालत में झटपट सुनवाई हो जाती है। विधिक पिरामिड को दरकिनार कर बड़े मामलों की सर्वोच्च न्यायालय में सीधी सुनवाई होने से समानता का कानून ध्वस्त हो रहा है। चार वरिष्ठ जजों की प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद भी शीर्ष अदालत की कार्य प्रणाली, मामलों की सुनवाई और लिस्टिंग के लिए ठोस सुधार नहीं हो सके हैं।

चौथा, शक्तियों के विभाजन के बावजूद राज्यों के मुख्यमंत्री, उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, केंद्रीय कानून मंत्री और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सालाना कॉन्फ्रेंस का रिवाज है। 2016 की कॉन्फ्रेंस के समय अदालतों में 2.61 करोड़ मामले लंबित थे, जो अब बढ़कर पांच करोड़ से ज्यादा हो गए हैं। मुकदमों के बढ़ते बोझ और जेलों में बढ़ती भीड़ पर राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू, प्रधानमंत्री मोदी और न्यायाधीशों ने कई बार चिंता व्यक्त की है।

गरीब-अमीर सभी लोग कानून के सामने बराबर हैं। आम जनता से जुड़े मुकदमों को दरकिनार कर रसूखदारों, वीआईपी और शहरों में रहने वाले धनाढ्य लोगों के मामलों में जल्द सुनवाई और फैसलों से कानून और न्यायाधीशों में भरोसा कमजोर होता है। मुकदमों में जल्द फैसला, जमानत की जल्द सुनवाई और विचाराधीन कैदियों की रिहाई पर फोकस करने के बजाय, सरकार के मामलों में बेवजह हस्तक्षेप के लिए न्यायाधीशों की सबसे ज्यादा आलोचना होती है। ऐसे मामलों में विवाद पैदा करके सोशल मीडिया में सरकार और न्यायाधीशों के टकराव की फेक न्यूज को वायरल करना आईटी सेल से जुड़े लोगों का एक बड़ा शगल बन गया है। टकराव बढ़ाने के ऐसे आभासी प्रयासों से सरकार और न्यायपालिका के साथ समाज और देश, दोनों का बड़ा नुकसान हो रहा है। सांविधानिक सीमाओं का अतिक्रमण करके सरकारी व्यवस्था को दुरुस्त करने से पहले अदालतों को सबसे पहले अपना घर ठीक करने की जरूरत है।

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