सांसदों के निलंबन पर चौंकने की नहीं जरूरत ?
सांसदों के निलंबन पर चौंकने की नहीं जरूरत, पक्ष-विपक्ष को रखनी होगी मर्यादा, संसद न बने राजनीतिक अखाड़ा
निलंबित सांसदों में एक टीएमसी के कल्याण बनर्जी ने जब उपराष्ट्रपति धनखड़ की मिमिक्री की और कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने उसका वीडियो बनाया, तब से यह मामला ‘चेयर’ के अपमान का भी हो गया है और खुद पीएम मोदी ने राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ से बात की. फिलहाल, तो मामला दोनों ही पक्षों के बीच रस्साकशी का दिखता है. यह शायद संसद का आखिरी सत्र भी हो, इस सरकार का, लेकिन अब तक मामला सुलझने के करीब नहीं है.
सांसदों का निलंबन है उचित
चूँकि यह प्रैक्टिस में कम रहा है और लोगों को आदत नहीं है, इसलिए लोगों को यह अजीब लग रहा है कि इतनी भारी संख्या में सांसदों का निलंबन हो गया. हालांकि, इसका एक पक्ष और भी है. अगर हम देखें तो पिछले कुछ समय से संसद की जो मर्यादा है, उसकी जो गरिमा है, उसका जो महत्व है, वह काफी घट गया है. खासकर, उच्च सदन यानी राज्यसभा से जो अपेक्षा रहती थी, हालाँकि अपेक्षा तो यह रहती थी कि दोनों ही सदनों के सदस्य मर्यादित आचरण करें, लेकिन राज्यसभा से थोड़ी अधिक अपेक्षाएं थीं. दुर्भाग्य से आज उसको राजनीतिक दलों ने अपना-अपना मंच सदन को बना दिया है. वे जितना चीखते, चिल्लाते हैं, समझते हैं कि उससे उनकी पार्टी का उतना ही प्रचार होगा.
यह सोच खासकर दो-तीन दशकों से बनी है. संसद में तो इससे भी ज्यादा टीका-टिप्पणी होती थी, इससे बड़े नेताओं पर होती थी. जैसे जब पंडित नेहरू और डॉक्टर लोहिया एक साथ संसद में थे, तो उनके बीच भी उत्तर-पूर्व को लेकर तीखी बहस हुई थी. नेहरू ने जब उस पर कहा था कि वहां तो कुछ उपजता नहीं, उस पर अगर चीन का कब्जा हो भी गया तो क्या हुआ, उस पर एक सांसद ने तब कहा था कि नेहरू जी, आपके सिर पर भी तो कुछ नहीं है, तो उसे भी दे दीजिए. कहने का मतलब ये कि इतनी तीखी टिप्पणी भी होती थी. उसी तरह बिहार की तेज-तर्रार नेत्री तारकेश्वरी सिन्हा कांग्रेस की सांसद थीं. उन्होंने महिलाओं को लेकर कोई सवाल किया और तब उन्होंने डॉक्टर लोहिया से पूछा था कि वह महिलाओं पर इतनी टिप्पणी क्यों करते हैं?
मर्यादा का रखना होगा ध्यान
आज की संसद बदल गयी है. सांसद जो कुछ भी कर रहे हैं, वह उनके राजनीतिक दलों का मंच नहीं है. पूरा देश अपने घरों में संसद की कार्यवाही देख रहा है. संसद देश की सर्वोच्च पंचायत है, वहां कानून बनते हैं, लेकिन पक्ष हो या विपक्ष, सबने इसे अपनी राजनीति का अखाड़ा बना दिया है. वे सोच रहे हैं कि वे जितना मीडिया के सामने आएंगे, चीखेंगे, चिल्लाएंगे, उतना ही उनकी पार्टी का प्रचार होगा. ये जो सांसदों का निलंबन हुआ है, वह गलत नहीं हुआ है. सांसदों के निलंबन की संख्या को लेकर जो सवाल हो रहा है, उसमें यह समझना चाहिए कि सांसदों का आचरण कितना गलत है कि इतनी संख्या में उनका निलंबन हुआ है. यह तो बल्कि काफी समय से बाकी है. यह बहुत पहले हो जाना चाहिए था. यह किसी भी पार्टी के फायदे की बात नहीं है.
चाहे किस भी पार्टी की सरकार हो, गलत आचरण करनेवाले सांसदों के खिलाफ ऐसी कार्रवाई होनी चाहिए, बल्कि इससे भी कठोर कार्रवाई होनी चाहिए, तभी सांसद समझेंगे और संसद की, राजनीति की शुचिता तय होगी. विपक्ष यह बहुत हास्यास्पद बात कह रहा है कि विधेयकों को पारित कराने और उन पर चर्चा न हो, इसके लिए सरकार ऐसा कर रही है. लोग जानते हैं और देखते हैं. आखिर विपक्ष कब इतना गंभीर हो गया था कि वह विधेयकों पर चर्चा चाहता है. इससे पहले भी महत्वपूर्ण विधेयक पारित हुए, तब विपक्ष ने वॉकआउट किया, हंगामा किया और उस पर चर्चा नहीं की. तब उनकी चिंता कहां गयी थी, अब तो संसद का कार्यकाल पूरा होने वाला है और शायद ये आखिरी सत्र भी हो. विपक्ष तो पिछले 9 वर्षों में अपनी भूमिका को याद करे, जब कई अहम बिल पर चर्चा उन्होंने नहीं की और बहिर्गमन किया.
सांसद रखें लक्ष्मणरेखा का ध्यान
दरअसल, सरकार को कुछ और कठोर नियम बनाने चाहिए. केवल निलंबन से काम नहीं चलेगा. संसद की मर्यादा तभी बरकरार होगी, जब सांसद समझें कि उनको सदन में कैसे व्यवहार करना है, वहां अपनी राजनीति नहीं चमकानी है. भारतीय राजनीति में अभी एक खतरनाक मोड़ यह आया है कि पक्ष और विपक्ष में नफरत जैसी भावना आ गयी है, संसद को इन्होंने रण का मैदान बना दिया है. अगर नाम लेकर कहें तो कांग्रेस को लगता है कि देश पर शासन करने का अधिकार उसी का है और वह राजनीतिक शत्रुता से लैस हो गयी है. हम इसे सदन में भी देख सकते हैं. राजनीति में तो हार-जीत लगी रहती है और वहां तीखी टिप्पणी भी होती है, मजाक भी होता है, मिमिक्री भी हो सकती है, लेकिन शत्रुता का भाव नहीं होना चाहिए. बस.
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