मोदी के भारत में क्यों पिछड़ी है आधी आबादी ?
आकलन: मोदी के भारत में किस हाल में हैं चार ‘जातियां’, क्यों पिछड़ी है आधी आबादी
यह सर्वमान्य तथ्य है कि देश में चार जातियां हैं। सही मायनों में देश में चार वर्ण और अनगिनत जातियां हैं, जिनकी संख्या हजारों में है। चार वर्ण हैं- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। तथाकथित ‘अछूत’ कही जाने वाली जाति को ‘शूद्र’ के नीचे रखा गया था, जिन्हें अब दलित कहा जाता है। दरअसल वर्ण भारत के लिए अभिशाप रहे हैं-जिनसे पदानुक्रम पैदा हुए, पूर्वाग्रह मजबूत हुए, रोजगार को अलग-थलग किया गया, गतिशीलता नकारी गई और करीब एक-चौथाई आबादी को विकास का स्वाद चखने से दूर रख गया। इसलिए, मैं प्रधानमंत्री मोदी द्वारा चार जातियों की दी गई परिभाषा का स्वागत करता हूं, जो गरीब, युवा, महिलाएं और किसान हैं। हालांकि मुझे ‘जाति’ शब्द पसंद नहीं है। लेकिन एक तरफ छोड़कर, हम अपने आप से यह सवाल पूछें कि मोदी के भारत में ये चार ‘जातियां’ किस हाल में हैं।
यूएनडीपी के अनुमान के अनुसार, भारत में 22.8 करोड़ लोग गरीब हैं, जो जनसंख्या का 16 प्रतिशत है। हालांकि यह आकलन गरीबी को मापने के बेहद निम्न पैमाने पर आधारित है, जिसमें शहरी इलाकों में प्रति महीने प्रति व्यक्ति आय 1,286 रूपये और ग्रामीण इलाके में 1, 089 रुपये है। वर्ष 1991 में शुरू की गई उदारीकरण की नीति को धन्यवाद देना चहिए, जिसके कारण लाखों लोग गरीबी से बाहर आ सके। लेकिन इन आंकड़ों पर विचार करें। देश की निचली 50 प्रतिशत आबादी के पास केवल तीन प्रतिशत संपत्ति है और वे कुल राष्ट्रीय आय का केवल 13 फीसदी अर्जित करते हैं। इस वर्ग में 32.1 प्रतिशत बच्चे कम वजन के, 19.3 प्रतिशत कमजोर और 35.5 प्रतिशत बौने हैं। 15 से 49 आयु वर्ग की 50 प्रतिशत से ज्यादा महिलाएं खून की कमी यानी एनीमिया से पीड़ित हैं। सरकार ने अगले पांच साल तक 81 करोड़ लोगों यानी 57 प्रतिशत आबादी को प्रति व्यक्ति प्रति माह पांच किलोग्राम मुफ्त राशन देना आवश्यक समझा। इसका साफ मतलब है कि देश में बड़े पैमाने पर कुपोषण और भुखमरी है। स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया रिपोर्ट, 2023 (अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी) और आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण के अनुसार, 2017-18 और 2022-23 के बीच तीन प्रकार के श्रमिकों की मासिक कमाई स्थिर रही है। ऐसे में मात्र 16 प्रतिशत आबादी को गरीब आंकना गलत है।
युवा
आधा भारत 28 वर्ष (औसत आयु) से कम आयु का है। पीएलएफएस (जुलाई 2022-जून 2023) के अनुसार, 15-29 वर्ष की आयु के लोगों की बेरोजगारी दर 10.0 प्रतिशत (ग्रामीण 8.3, शहरी 13.8) है। स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया रिपोर्ट, 2023 के अनुसार, 25 वर्ष से कम आयु वाले स्नातकों में बेरोजगारी दर 42.3 प्रतिशत है। स्नातक छात्रों की जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई, (और लंबे समय तक इंतजार करना पड़ा) बेरोजगारी दर कम हो गई, लेकिन 30-34 वर्ष की आयु के स्नातकों के बीच भी बेरोजगारी दर 9.8 प्रतिशत है। उच्च बेरोजगारी का असर आंतरिक प्रवासन, अपराध, हिंसा और नशे के उपयोग में बढ़ोतरी में दिखता है। सरकार का यह दावा जुमला बनकर रह गया कि वह हर साल दो करोड़ रोजगार पैदा करेगी। विगत जुलाई में संसद में एक लिखित जवाब में सरकार ने खुलासा किया कि मार्च, 2022 में सरकारी महकमों में 9,64,359 पद खाली थे। सरकार के पास इतने बड़े पैमाने पर बेरोजगारी का कोई जवाब नहीं है। युवाओं में बढ़ती बेरोजगारी एक ज्वालामुखी के समान है, जो कभी भी फट सकती है।
महिलाएं
महिलाएं आबादी का आधा हिस्सा हैं और उनके ‘पिछड़ेपन’ के कई कारण हैं- जिसमें पितृसत्ता, प्रतिगामी सामाजिक और सांस्कृतिक मानदंड, कम शिक्षा, कम संपत्ति, उच्च बेरोजगारी, लैंगिक भेदभाव और महिलाओं के खिलाफ अपराध मुख्य हैं। एनसीआरबी रिपोर्ट (दिसंबर, 2023) के अनुसार, 2021 की तुलना में 2022 में महिलाओं के विरुद्ध अपराध के मामले में चार प्रतिशत की वृद्धि हुई और 2022 में महिलाओं के खिलाफ 4,45,000 अपराध दर्ज किए गए। ज्यादातर अपराध परिवार के सदस्यों द्वारा क्रूरता, घरेलू हिंसा, अपहरण, यौन उत्पीड़न, बलात्कार और दहेज की मांग के थे।
लैंगिक असमानता और भेदभाव जिंदगी के हर क्षेत्र में पाया जाता है, खासतौर से आय के मामले में। अनौपचारिक क्षेत्र में पुरुष कामगार महिला श्रमिकों की तुलना में 48 प्रतिशत अधिक कमाते हैं, जबकि नियमित वेतन वाले पुरुष महिलाओं की तुलना में 24 फीसदी अधिक कमाते हैं। महिलाओं में आबादी और श्रमिक का अनुपात 21.9 प्रतिशत है, जबकि पुरुषों में यह 69.4 प्रतिशत है। शहरी महिलाओं की श्रम बल में भागीदारी दर 24.0 है, जबकि पुरुषों की 73.8 प्रतिशत है। विश्व बैंक के अनुसार, वर्ष 2004-05 से 2011-12 के बीच 1.96 करोड़ महिलाओं ने काम छोड़ दिया। अगर इन असमानताओं को नजरअंदाज किया जाता है, तो इसका मतलब यह होगा कि महिलाएं आने वाली कई सदियों तक दबी ही रहेंगी।
किसान
एनसीआरबी का आंकड़ा बताता है कि वर्ष 2014 और 2022 में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या अधिक रही है। यदि इसमें कृषि मजदूरों की संख्या को भी जोड़ दिया जाए, तो 2020, 2021 और 2022 में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या क्रमश: 10,600, 10,881, और 11,290 रही है। हर साल किसान अपनी जी-तोड़ मेहनत से गेहूं और चावल की रिकॉर्ड पैदावार करते हैं, जिसका सबूत केंद्रीय पूल में इसके बढ़ते भंडार से मिलता है। इसके बावजूद किसान गरीब हैं। जब कृषि उत्पाद की कीमत कम होती है, तब किसानों को नुकसान होता है और जब कीमत बढ़ती है तो भारतीय जनता पार्टी की सरकार निर्यात पर रोक लगा देती है।
किसानों के पिछड़ेपन का मुख्य कारण छोटी जोत, खेती में बढ़ती लागत, अपर्याप्त एमएसपी और अनिश्चित बाजार मूल्य, उपभोक्ता के पक्ष में पक्षपाती आयात और निर्यात नीतियां, प्राकृतिक आपदाएं और बीमा राशि है, जो या तो हैं ही नहीं या उनको नकार दिया गया है। एक खुशहाल किसान विरोधाभासी होता है। किसानों का गुस्सा उस वक्त देखने को मिला, जब सरकार ने उनसे बिना सलाह लिए कृषि कानून लागू करने की कोशिश की थी। इन चारों ‘जातियों’ का बड़ा हिस्सा गरीब और दुखी है तथा उन्हें मोदी सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों पर बहुत ज्यादा भरोसा नहीं है। उन्हें यह मालूम है कि सरकार का झुकाव अमीरों की तरफ है। किसानों की चुप्पी सरकार की नीतियों का अनुमोदन या सहमति नहीं है। यह चुप्पी इसलिए है, क्योंकि वे गरीब हैं, उनके पास कम ताकत है और वे डर के साये में जीते हैं।