राजस्थान में मंत्रिमंडल विस्तार का एनालिसिस …
राजस्थान में मंत्रिमंडल विस्तार का एनालिसिस …
तपे-तपाए और हार्डकोर चेहरे खारिज, कोई एडजस्टमेंट नहीं, जिनकी चर्चा, वो क्यों नहीं बन पाए मंत्री
राजस्थान में शनिवार को मंत्रिपरिषद के शपथ ग्रहण में क्या नया दृश्य दिखा?
ये समझने के लिए आपको आज और कल (बीता हुआ) में ले चलता हूं।
कुल 22 मंत्रियों ने शपथ ली। दो मंत्री- कन्हैयालाल चौधरी (मालपुरा ) संजय शर्मा (अलवर) ने मुख्यमंत्री भजनलाल के पैर छुए। बाकी ने सामान्य अभिवादन किया।
इससे पहले के कुछ दशकों की बात करूं तो भैरोंसिंह शेखावत, अशोक गहलोत, वसुंधरा राजे के शपथ ग्रहण में 99 प्रतिशत मंत्री मुख्यमंत्री के पैर छूते नजर आते थे। पिछली बार डोटासरा ने जब गहलोत के पैर छूए तो कई मायने निकाले गए।
खैर… सवाल पैर छूने का नहीं है। सबकी अपनी आस्था और विश्वास। काफी निजी विषय है, लेकिन राजनीति तो पूरी इशारों और मायनों पर ही टिकी है। कौन कितना झुकता है। कौन कितना रुकता है।
कहते हैं इससे पावर सेंटर की महिमा झलकती है। …लेकिन यहां एक स्पष्ट तथ्य ये है कि राजस्थान में सिर्फ सरकार ही नहीं बदली, राजनेताओं की पूरी पीढ़ी बदलने जा रही है। भजनलाल खुद पहली बार के विधायक हैं। उनकी टीम में 22 मंत्री में से 17 नए चेहरे हैं। दोनों डिप्टी सीएम में से भी दूसरी बार के विधायक हैं।
एक और बात साफ है कि जिन नामों की सबसे ज्यादा चर्चा थी, उन्हें सिरे से खारिज कर दिया गया है। ये मैसेज दिया गया है कि भाजपा तपे-तपाए और हार्डकोर चेहरों से बाहर निकल रही हैं। ध्रुवीकरण जहां सबसे ज्यादा हुआ, वहां के चर्चित चेहरे बाबा बालकनाथ, प्रतापपुरी और बालमुकंद आचार्य मंत्रिपरिषद में कहीं नहीं दिखे। इससे कुछ की पीड़ा तो साफ तौर पर दिखने लगी है।
मंत्रिपरिषद में क्या खास बातें-
सभी जातियों को साथ लेने की रणनीति
किसी समाज से अगर एक या दो विधायक चुनाव जीते हैं तो उसमें से एक को मंत्री बनाया गया है। पटेल, विश्नोई, जट सिख, देवासी, कुमावत, रावत, धाकड़, गुर्जर और माली समाज इसके उदाहरण हैं। हालांकि जाट समाज में सबसे ज्यादा 4 मंत्री बनाए गए हैं। किसान आंदोलन और क्षेत्रीय संतुलन के आधार पर ऐसा हुआ है। हालांकि भाजपा के कोर वोट बैंक में शामिल वैश्य समुदाय को इस बार ज्यादा महत्व नहीं मिल पाया है। कुछ और जातियां भी छूट गईं। यादव कोर वोटर रहा है, लेकिन एक भी मंत्री नहीं बनाया है।
मुद्दों के आधार पर जो उग्र थे, सिर्फ उन्हें जगह मिली
चुनाव और चुनाव के बाद सबसे ज्यादा चर्चा में रहे बाबा बालकनाथ, प्रतापपुरी और बालमुकुंद आचार्य में से दो को मंत्री बनाने के कयास थे। सांसद से विधायक बने बालकनाथ का नाम तो सीएम की रेस में भी था। प्रतापपुरी भी मंत्री बनने की उम्मीद से जयपुर में थे। दोनों को काफी निराशा हुई। उधर, पांच साल तक मुद्दों के आधार पर उग्र रहे डॉ. किरोड़ी मीणा और मदन दिलावर कैबिनेट मंत्री बनने में सफल रहे।
चलते चुनाव में प्रत्याशी को मंत्री बनाने के पीछे की रणनीति
श्रीकरणपुर में 5 जनवरी को चुनाव होने हैं। यहां भाजपा प्रत्याशी सुरेंद्रपाल टीटी को मंत्री बनाकर पार्टी ने चौंका दिया। राजस्थान में ऐसा पहला मामला है, जब चलते चुनाव के बीच किसी को मंत्री बना दिया गया है। बताया जाता है कि सरकार ने इसको लेकर चुनाव आयोग से पूछा था, तब जवाब मिला था कि ये नैतिक तौर पर तो गलत है, लेकिन कानूनी तौर पर सही है। ऐसे में भजनलाल ने कानून का रास्ता चुना। हालांकि ये तय है कि मतदाता जरूर प्रभावित होगा।
टीटी पहले भी मंत्री रह चुके हैं। अब इनको बिना विधायक बने मंत्री बनाया गया है। ऐसे में जनता में यह मैसेज जाएगा कि अगर टीटी चुनाव जीत जाते हैं तो एक मंत्री उनके इलाके का रहेगा। इससे भाजपा को सीधा फायदा होगा। कानून में वैसे भी मंत्री बनाने की मनाही नहीं है। कुछ राजनीतिक जानकर यह भी बताते हैं कि यह भाजपा की चौकाने वाली स्टाइल है। शपथ ग्रहण के दौरान नारे लगे थे- मोदी है तो मुमकिन है।
जानिए अनसुलझे सवालों के जवाब
भजनलाल सरकार के लिए कोई चुनौती है क्या?
मंत्रिपरिषद में मुख्यमंत्री सहित 25 चेहरे हैं। सरकार ये ही लोग चलाएंगे। इनमें से मुख्यमंत्री खुद नए हैं। इसके अलावा 19 लोगों के पास भी पहले से कोई ज्यादा अनुभव नहीं है। ऐसे में भजनलाल के सामने सरकार के अंदर कोई बड़ी चुनौती नहीं है, लेकिन विपक्ष बड़ी चुनौती के रूप में रहेगा। सदन में नए चेहरे कैसा प्रदर्शन कर पाएंगे, ये देखना होगा।
…तो क्या सिर्फ विपक्ष ही सबसे बड़ी चुनौती है?
जैसा दिखता है वैसा होता नहीं। भाजपा में अंदरखाने भयंकर विरोध है। बालकनाथ की छवि से समझा जा सकता है। वसुंधरा खेमा लगभग नाराज है। हालांकि फिलहाल हाईकमान के डर से चुप है। असल में विपक्ष से बड़ी चुनौती भाजपा के लिए भाजपा ही है। भजनलाल सरकार की विफलता पर विपक्ष से ज्यादा नजर भाजपा की ही है। अब भजनलाल कितनी सूझबझ से सबको लेकर चलते हैं, ये देखने वाला विषय होगा।
आलाकमान के अलावा राजस्थान से किसकी चली?
राजस्थान में भजनलाल कैबिनेट के सिलेक्शन में आलाकमान के अलावा बात करें, तो यहां से तीन नेता अपने समर्थकों को शामिल करवा पाए। इनमें सबसे ज्यादा संगठन महामंत्री चंद्रशेखर की चली, इसके बाद डिप्टी सीएम दीया कुमारी और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया की।
संघ के चेहरों को मंत्रिमंडल में शामिल करवाने के लिए चंद्रशेखर ने समन्वयक की भूमिका अदा की। झाबर सिंह खर्रा, संजय शर्मा, बाबू लाल खराड़ी जैसे चेहरों को मंत्रिमंडल में मौका दिया गया है।
दीया कुमारी ने अपने पूर्व संसदीय क्षेत्र राजसमंद से अविनाश गहलोत को शामिल करवा लिया। अविनाश पिछले लोकसभा चुनाव से लेकर अब तक दीया कुमारी के प्रमुख कार्यकर्ता के रूप में नजर आते रहे हैं।
इसके बाद सतीश पूनिया समर्थक सुमित गोदारा, जिन्होंने पद की शपथ लेने के बाद पूनिया के पैर भी छुए। राजेंद्र राठौड़ ने बाबूलाल खराड़ी की पैरवी की थी।
जो दावेदार थे, उन्हें मंत्री नहीं बनाने के पीछे क्या वजह?
इसके 3 प्रमुख कारण हैं…
1. वसुंधरा गुट के विधायकों को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं कर मैसेज दिया गया कि पार्टी बड़ी है, व्यक्ति नहीं। कई विधायक अनुभवी थे और पहले मंत्री रह चुके हैं, लिहाजा उनकी जगह नए को मौका दिया गया है।
2. हिंदुत्व की छवि वाले नेता बाबा बालकनाथ और प्रतापपुरी को मंत्री बनाने के कयास थे, लेकिन इन्हें कैबिनेट में शामिल नहीं कर मैसेज देने की कोशिश की है कि भाजपा अब इन नेताओं से दूरी बना रही है।
3. मंत्रिमंडल में जातिगत संतुलन और इलाके के अनुसार भी बैलेंस बनाने की कोशिश की गई है। यही वजह है कि कई दिग्गज इस फाॅर्मूले में फिट नहीं बैठे।
वसुंधरा राजे के समर्थक साफ, अब भविष्य क्या
इस कैबिनेट को देखें सबसे अधिक झटका पूर्व सीएम और बीस साल से भाजपा का चेहरा रहीं वसुंधरा राजे को लगा। उनके खेमे के माने जाने वाले कालीचरण सराफ, श्रीचंद कृपलानी जैसे एक भी समर्थकों को भजनलाल कैबिनेट में नहीं रखा गया। गजेंद्र सिंह खींवसर को जरूर इस टीम में जगह मिली, लेकिन वे आलाकमान के खाते से मंत्री बने। उन्होंने राजे से दूरी बना ली थी।
ये भी साफ हो गया है कि चंद महीनों में होने वाले लोकसभा चुनाव में राजस्थान की 25 सीटों पर खड़े होने वाले प्रत्याशियों को लेकर राजे से राय नहीं ली जाएगी। लोकसभा चुनाव 2014 और 2019 के समय राजे से रायशुमारी जरूर की गई थी, लेकिन इस विधानसभा चुनाव से पहले राजे को थोड़ी-बहुत तवज्जो ही दी गई थी। बहुमत आने के बाद उतनी भी अहमियत नहीं दी जा रही।
अब यह भी साफ हो गया है कि राजस्थान की राजनीति में राजे की भूमिका खास नहीं रहने वाली। हो सकता है कि आलाकमान राजे को लोकसभा चुनाव में बतौर प्रत्याशी उतारे और केंद्र की ओर रुख करवाए जाए।
क्या बड़े वोट बैंक वाले समाज संतुष्ट हो गए?
भजनलाल कैबिनेट को मोटे तौर पर देखें, तो आमतौर पर जातिगत समीकरणों को संतुष्ट करने के प्रयास किए गए हैं, लेकिन जाट समाज पूरी तरह संतुष्ट नहीं कहा जा सकता।
जाट समाज से 4 मंत्री कैबिनेट में शामिल हैं, फिर भी राजभवन के बाहर शपथ के बाद जाट समाज के कुछ लोगों ने नाराजगी भरे नारे लगाए।
जाट समाज को नाराजगी है कि अजय सिंह किलक, भैराराम जैसे सीनियर लीडर्स को नजरअंदाज किया गया है। किलक के मंत्री बनने की काफी संभावना थी।
जिनकी टिकट को लेकर नाराजगी, उन्हें मिला प्रमोशन
मंत्रिमंडल में उन सदस्यों को शामिल किया गया, जिनका विधानसभा चुनाव में टिकट को लेकर विरोध रहा। इनमें सुरेश रावत, अविनाश गहलोत और सुमित गोदारा शामिल हैं। इनका विरोध इतना रहा कि इनकी सीटों पर भाजपा के बागी तक खड़े हो गए। ये नेता टाइट फाइट में जीत गए। रावत पर तो पिछले लोकसभा चुनाव में टिकट बेचने तक के आरोप लगे थे और विधानसभा चुनाव से पहले एफआईआर तक दर्ज करवा दी गई थी।