कानफोडू आवाज़ बनता जी का जंजाल, ध्वनि प्रदूषण का आदी बनता समाज
कानफोडू आवाज़ बनता जी का जंजाल, ध्वनि प्रदूषण का आदी बनता समाज
खैर, आज बात हमारी वर्णमाला की उत्पति या भाषा की वैज्ञानिकता पर ना होकर तेजी से बढ़ रही अनुपयोगी आवाज़, उसे सुनने की क्षमता और मानसिक स्वास्थ पर पड़ रहे नकारात्मक प्रभाव पर है. इस प्रकार, मुख्य अंतर शोर और ध्वनि के बीच वह है ध्वनि एक भौतिक घटना है जो जान बूझकर या वांछित हो सकती है, जबकि शोर ध्वनि की एक व्यक्तिपरक धारणा है, जो अवांछित या विचलित करने वाली है. इसके अतिरिक्त, जबकि ध्वनि का मानवीय भावनाओं और व्यवहार पर सकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है. शोर कुछ मामलों में तनाव, झुंझलाहट या स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बन सकता है.
बढ़ती जनसंख्या और विकास के साथ शोरगुल अब धीरे-धीरे प्रदूषण का रूप ले चुकी है, जिसकी चपेट में ना सिर्फ आप और हम हैं, बल्कि गहरे समुद्र तक का जीवन तंत्र प्रभावित हो रहा है. रासायनिक प्रदूषण ही एकमात्र प्रदूषण नहीं है, जो प्राणियों को नुकसान पहुंचा रहा है, बल्कि ध्वनि प्रदूषण भी तेज़ी से बढ़ रहा ख़तरा है. ध्वनि प्रदूषण और प्रकाश प्रदूषण ‘सेंसरी प्रदूषण’ के रूप है, जो मस्तिष्क से सूचना प्राप्त करने और उसके अनुरूप कार्य करने की क्षमता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करते है.
रासायनिक प्रदूषण से उलट ध्वनि प्रदूषण का मानव स्वास्थ के लिए जटिल मानसिक और शारीरिक बीमारियों का सबब बनता है. तेज़ आवाज़ का असर बहुत हद तक वैसा ही है जैसा सिगरेट का. जिस तरह सिगरेट पीने वाला सिर्फ़ अपने ही फेफड़ों को नुक़सान नहीं पहुंचाता, अपने आस-पास खड़े लोगों को भी बीमार करता है, ध्वनि प्रदूषण भी काफ़ी हद तक वैसा ही है. ध्वनि के प्रति मानव कान की प्रतिक्रिया ध्वनि आवृत्ति (हर्ट्ज़) और ध्वनि दबाव (डेसिबल) दोनों पर निर्भर करती है. एक स्वस्थ युवा व्यक्ति की सुनने की सीमा 20-20,000 हर्ट्ज़ होती है.
ध्वनि प्रदूषण का सीधा और सरल सा मतलब है- अनचाही आवाज़. 65 डेसिबल (डीबी) ध्वनि से ऊपर के शोर को ध्वनि प्रदूषण के रूप में परिभाषित किया जाता है. सटीक रूप से कहें तो, 75 डीबी से अधिक होने पर शोर हानिकारक हो जाता है और 120 डीबी से ऊपर दर्दनाक होता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, ध्वनि प्रदूषण स्वास्थ्य के लिए सबसे खतरनाक पर्यावरणीय खतरों में से एक है, और यूरोपीय पर्यावरण एजेंसी के अनुसार, लम्बे अवांछित शोर हर साल 12,000 असामयिक मौतों, हृदय रोग के 48,000 नए मामलों, 2 करोड़ से अधिक लोगो में उपजे चिड़चिड़ापन, 32 करोड़ बच्चों सहित 36 करोड़ बहरे लोगो में अधिकांश के बहरापन और 110 करोड़ किशोर और युवा में संभावित बहरापन लिए जिम्मेदार है.
हालांकि, संख्या के मामले में अन्य प्रदूषण की तुलना में ध्वनि प्रदूषण कम प्रभावी और कम अनुमानित खतरा लग सकता है, पर शोरगुल का मनुष्य सहित तमाम जन्तुओं के दिमाग और शरीर के आंतरिक बाह्य नियंत्रण प्रणाली पर काफी व्यापक असर होता है. ध्वनि प्रदूषण ना सिर्फ मानव स्वास्थ बिगाड़ रहा है, बल्कि आर्थिक रूप से भी नुकसानदेह है. वर्ल्ड इकॉनॉमिक फ़ोरम की एक रिपोर्ट के अनुसार यूरोप में हर तीन में से एक शख़्स ट्रैफ़िक शोर से प्रभावित है, इसकी वजह से सेहत पर असर पड़ता है, जिससे काम प्रभावित होता है और इसका असर आर्थिक स्थिति पर पड़ता है.
सामान्यतः ध्वनि प्रदूषण का मुख्य स्रोत यातायात का शोर है, जिसमें मोटर, रेल और वैमानिक का शोर शामिल है. इसके अलावा औद्योगिक और ख़राब शहरी नियोजन का शोर-शराबा भी अनुपयोगी ध्वनि का बहुत बड़ा स्रोत है. विकासशील देश मुख्य रूप से ख़राब शहरी नियोजन से होने वाले ध्वनि प्रदूषण के शिकार हैं, जिसमे बेतरतीब रूप से नियोजित हाट, बाज़ार, चौक-चौराहे वाले व्यासायिक केंद्र और यातायात केंद्र मुख्य रूप से कानफोडू आवाज़ के हॉट स्पॉट बन चुके हैं. फ्रंटियर 2022 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के मुरादाबाद सहित दक्षिण एशिया के पांच शहर सबसे शोरगुल वाले दस शहरों में शामिल पाए गए. भारत के ख़राब तरीके से नियोजित शहर व्यावसायिक और यातायात केंद्र में होने वाले शोरगुल को और भी बढ़ा दे रहे हैं, जिसे गुड़गाँव के ऍम जी रोड से पटना के डाकबंगला चौराहे तक महसूस किया जा सकता है! कस्बों से लेकर छोटे-बड़े शहरों के हर चौक चौराहे ध्वनि प्रदूषण के केंद्र के रूप में बदलते जा रहे हैं.
भारत सहित सम्पूर्ण उपमहाद्वीप के देश ध्वनि प्रदूषण के एक खास स्रोत से यातायात से इतर मुख्य रूप से शिकार है; धार्मिक और सामाजिक आयोजनों से निकलने वाली कर्णफोडू आवाज़. किसी भी धर्म के सन्देश को सम्यक रूप से लोगों तक पहुंचाना सवालों के घेरे में नहीं है, असली समस्या धार्मिक और सामाजिक कार्य के नाम पर कानफोडू आयोजनों की आम होती प्रवृति है. हालाँकि धर्म शांति का मार्ग है पर धार्मिक आयोजन ध्वनि विस्तारक के साथ चोली दामन जैसे जुड़ गए हैं. अक्सर धार्मिक और सामाजिक जुटान में शोरगुल का स्तर 350-500 डीबी तक पहुँच जाता है .वैज्ञानिक कहते हैं सिर्फ एक रात के लिए इन आवाज़ों को सुनने के बाद युवा लोगों विशेष कर महिलाओं में एंडोथेलियल डिसफंक्शन हो जाता है.
सामाजिक और यहाँ तक व्यक्तिगत स्तर पर देखे तो लगता है कि ध्वनि प्रदूषण को प्रदूषण मानते ही नहीं हैं, मसलन हमारे अपने घरों में ही टीवी, गाड़ियां, धार्मिक आयोजन और चुनाव प्रचार भी, इन सभी स्तरों पर ध्वनि प्रदूषण तो होता है लेकिन हमें समझ नहीं आता. चूँकि यह एक सेंसरी प्रदूषक है, जो दिखाई भी नहीं देता है तो हम उसी शोरगुल में समय के साथ ढल जा रहे हैं. ऐसा इसलिए भी होता है कि मानव कान की संवेदनशीलता अपनेआप आस पास के शोर यहां तक कि बढ़ते शोर के एक स्तर तक भी समायोजित हो जाती है, और हमें तेज आवाज़ से हो रही क्षति का पता भी नहीं चलता. मानव कान का आसपास के ध्वनि के मुताबिक समायोजित हो जाने का कतई ये मतलब नहीं है कि उसका बुरा प्रभाव ना पड़ना. तभी तो कई लोग कानफोडू माहौल में ख़ुशी महसूस करते है. 350-500 डीबी ध्वनि की मारक क्षमता का अंदाज़ा दिनचर्या के ध्वनि स्तर से लगाया जा सकता है, हमारी सांसों 10 डीबी, घड़ी की टिकटिक 20 डीबी और फ्रिज का चलना 40 डीबी सामान्य बातचीत 60 डीबी के स्तर की होती है. यहाँ तक कि बहुत तेज आवाज में बजने वाले रेडियो या टेलीविजन आदि से 105 से 110 डीबी की ध्वनि निकलती है.
लेकिन अब ख़तरा केवल मानव तक ही सीमित नहीं है. मौजूदा समय में हज़ारों की संख्या में होने वाले ऑयल ड्रिल्स, समुद्री यातायात, व्यापार के लिए इस्तेमाल होने वाले जलयान की वजह से जमीन के मुकाबले शांत समुद्र में ध्वनि का स्तर बढ़ा है. समुद्र में, खास कर गहरे समुद्र में प्रकाश के अभाव में समुद्री जीवन में संचार तंत्र ध्वनि आधारित ही विकसित हुई है. समुद्र में बढ़ती आवाज का असर जलीय जीवो के आपसी संचार प्रणाली, जो कम स्तर के खास किस्म के आवाज़ पर आधारित होती है, पर पड़ा है. सबसे अधिक असर गहरे समुदी जीवो में जिसमे ह्वेल, डॉलफिन आदि शामिल है, खानपान की आदतों, प्रजनन और माइग्रेशन के तरीक़े में बदलाव आया है, पर पड़ा है. हाल के एक अध्ययन के मुताबिक केवल समुद्री यातायात के कारण विश्व की सबसे बड़ी परभक्षी ह्वेल की प्रजाति की संख्या में एक-चौथाई की कमी आयी है. अवांछित शोरगुल जंतु ही नहीं पेड़ पौधों तक को अपने शिकार बना रहे है. कैलिफ़ोर्निया पॉलिटेक्निक स्टेट यूनिवर्सिटी के विशेषज्ञों ने पता लगाया है कि ध्वनि प्रदूषण का शोर समाप्त होने के बाद भी पर्यावरण में पौधों के जीवन की विविधता पर प्रभाव पड़ता रहता है. ध्वनि प्रदूषण एक साइलेंट किलर की तरह मानवीय मनोदशा के साथ पेड़-पौधों और जीवजंतुओं के परासंवेदी क्रियाओं पर मारक प्रहार कर चुका है.
चूकी हमारा शरीर और खास कर सुनने की प्रणाली आसपास के आवाज़ के अनुरूप खुद को संयोजित कर लेता है, अतः हम तेज आवाज़ के बीच दिनचर्या को ढाल लेते है और तेज आवाज़ का असर धीरे धीरे हमारे स्वास्थ को तबाह करती रहती है. ऐसी स्थिति में इसके परिणाम को नजरंदाज न करते हुए इस ओर ध्यान देने की जरुरत है. हमारे देश में इस शोर को नियंत्रित करने के लिए कानून है लेकिन इसे प्रभावी रूप से लागू नहीं करने में कहीं-न-कहीं इच्छाशक्ति की कमी और लोगों का जागरूक न होना है. हमें आज सिर्फ़ बीमारी और उसके निदान की दवाइयाँ दिखती हैं.
हमारा प्रशासन भी इसके दुष्परिणाम से अवगत नहीं है इस वजह से हेलमेट नहीं लगाने पर चालान तो काट देता है लेकिन ध्वनि मानकों की धज्जियां उड़ाते लोग बच निकलते हैं. ध्वनि प्रदूषण से बचने के लिए जागरूकता के साथ ट्रैफिक कानूनों के साथ इसे जोड़ने की दिशा में पहल करनी होगी. स्वास्थ्य से परे अर्थ हानि से दुष्परिणाम को समझने वाले समाज को सार्वजनिक जगहों पर धूम्रपान न करने जैसे सख्त कानून की जरुरत है क्योंकि यह सिर्फ़ मनुष्यों का मामला नहीं यह समूची जैव-विविधता के जीवन बचाने का सवाल है.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि …न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.