कांग्रेस का पतन केवल 2014 से शुरू नहीं हुआ ?

कांग्रेस का पतन केवल 2014 से शुरू नहीं हुआ

दिल्ली के सत्ता-गलियारों में इन दिनों अटकलों का एक नया खेल चल रहा है : ‘कांग्रेस-युक्त’ भाजपा के लिए पार्टी छोड़ने वाला अगला कांग्रेसी कौन होगा? जहां भाजपा नेतृत्व 2024 के लोकसभा चुनावों में 400 सीटें पार करने का दावा कर रहा है, वहीं कांग्रेस इस असुविधाजनक सवाल से जूझ रही है कि क्या सबसे पुरानी पार्टी इस बार 50 सीटें पार कर पाएगी?

2014 के चुनावों को याद करें, जब कांग्रेस अब तक की सबसे कम 44 सीटों पर सिमट गई थी। 2019 थोड़ा बेहतर था, जब उसने 52 सीटें जीती थीं और केरल और तमिलनाडु (द्रमुक के साथ गठबंधन में) ने उसे दक्षिण में कुछ बेहतर महसूस कराया था।

2024 में भी, अधिकांश जनमत सर्वेक्षणों से पता चलता है कि कांग्रेस को केरल और संभवतः तेलंगाना को छोड़कर किसी भी अन्य राज्य में दोहरे अंक में प्रवेश करने में कठिनाई होगी। ‘उत्तर-पश्चिम’ की जिस लहर ने पिछले दोनों अवसरों पर भाजपा को सत्ता में पहुंचाया था, वह पश्चिमी समुद्र तट से लेकर हिंदी पट्टी तक फैले विशाल क्षेत्र में फिर से ऐसा करने के संकेत दे रही है और इससे कांग्रेस लड़खड़ा रही है। सनद रहे कि 2019 में कांग्रेस ने उत्तर-पश्चिम बेल्ट के 10 राज्यों की 243 में से केवल छह सीटें जीती थीं।

लेकिन कांग्रेस का चुनावी पतन 2014 में नरेंद्र मोदी के उत्थान के साथ ही शुरू नहीं हुआ था। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जबर्दस्त सहानुभूति-लहर के बाद से कांग्रेस को लोकसभा में बहुमत नहीं मिला है। इन चालीस वर्षों में, कांग्रेस ने केवल दो बार 200 सीटों को पार किया है।

उसका सबसे अच्छा प्रदर्शन 1991 में था, जब चुनाव अभियान के बीच में राजीव गांधी की दु:खद हत्या ने कहानी बदल दी थी। एकमात्र अन्य अवसर 2009 में आया, जब डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व को जनता का समर्थन मिला। लेकिन घटती संख्या के इतर, परेशान करने वाला यह सवाल भी बना हुआ है कि खुद को चुनाव जीतने के लिए अधिक योग्य बनाने के लिए कांग्रेस ने पिछले दशक में क्या किया?

कांग्रेस नेता भाजपा के संस्थागत वर्चस्व की ओर इशारा करेंगे- चाहे वह चुनाव आयोग हो, ईडी हो, मीडिया हो, या चंडीगढ़ में मेयर का चुनाव और चुनी हुई सरकारों को गिराने के लिए ऑपरेशन लोटस जैसे कदम हों। यह सच है कि राज्यसत्ता की मदद से भाजपा को अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों पर भारी बढ़त मिल गई है। लेकिन एक आकर्षक और एकजुट विकल्प के रूप में खुद को फिर से खड़ा करने में कांग्रेस की असमर्थता ने क्या उसके पतन में योगदान नहीं दिया?

जनसम्पर्क को फिर से स्थापित करने के लिए राहुल गांधी की यात्राएं प्रशंसनीय कवायद हैं, लेकिन इस तरह के धारावाहिक-प्रयोग वर्षों की संगठनात्मक उपेक्षा की भरपाई नहीं कर सकते। कभी-कभी, राहुल गांधी उफान भरे समुद्र के बीच डगमगाते जहाज के बहादुर लेकिन असहाय कप्तान की तरह दिखते हैं। पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने ब्लॉक स्तर के कार्यकर्ताओं तक अधिक पहुंच बनाने का प्रयास किया है, लेकिन क्या उनके पास लंबी लड़ाई के लिए सहनशक्ति या अधिकार है?

विडंबना यह है कि वर्तमान में आठ मुख्यमंत्री ऐसे हैं, जो कभी कांग्रेस के साथ थे। पिछले एक दशक में ही कांग्रेस के कम से कम 13 पूर्व मुख्यमंत्रियों ने पार्टी छोड़ दी है। कई मामलों में इसे बढ़ती महत्वाकांक्षा और चढ़ते सूरज को सलाम करने की प्रवृत्ति का परिणाम माना जाता है तो कुछ मामलों में ईडी की कार्रवाई का डर भी बताया जाता है। लेकिन पार्टी के यथास्थितिवादी केंद्रीय नेतृत्व और राज्यों की असंतुष्ट इकाइयों के बीच भी अलगाव बढ़ रहा है।

मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया या असम में हिमंत बिस्वा सरमा ने अपने से उम्रदराज नेताओं से पिछड़ने के बाद पार्टी छोड़ दी थी। कांग्रेस में कभी एक व्यावहारिक और समायोजनकारी दृष्टिकोण अपनाया जाता था, जो अंदरूनी प्रतिस्पर्धाओं को प्रबंधित करता था, लेकिन आज जब एक छोटी मंडली ही तमाम फैसले लेने लगी है तो पार्टी में रस्साकसी का आलम है।

इसके विपरीत भाजपा, संघ परिवार की राजनीतिक शाखा है। कैडर-आधारित बंधुत्व पार्टी को जोड़े रखता है। जब पार्टी ने 1984 में 2 सीटें जीती थीं तब भी उसके यहां बड़े पैमाने पर पलायन नहीं हुआ था और नेतृत्व बरकरार रहा था।

पुनश्च : हाल ही में एक सहभोज के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष खरगे वरिष्ठ कांग्रेसियों से घिरे थे। जैसे ही उनमें से एक ने जाने की अनुमति मांगी, एक पत्रकार ने मजाक में चुटकी ली : आशा है आप केवल लंच ही छोड़कर जा रहे हैं, पार्टी नहीं!

कांग्रेस को प्रतिभाओं की पहचान करके राज्यों के स्तर पर उन्हें नेतृत्व का मौका देना शुरू कर देना चाहिए। तेलंगाना के रेवंत रेड्डी की तरह राजस्थान में सचिन पायलट या केरल में शशि थरूर को कमान क्यों नहीं सौंपी जा सकती?

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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