सोशल मीडिया उपयोग की आयु-सीमा तय करनी होगी !

सोशल मीडिया उपयोग की आयु-सीमा तय करनी होगी …

14-15 वर्ष के बच्चों के लिए माता-पिता की सहमति जरूरी होगी। 13 और उससे कम आयु वालों को अपने सोशल मीडिया अकाउंट्स बंद करने होंगे। यह कानून फिलहाल गवर्नर की मेज पर है। लेकिन लागू होने के बाद इसके दूरगामी प्रभाव होने की उम्मीद है।

भारत में भी, सरकार और अदालतों ने सोशल मीडिया का उपयोग करने के लिए उम्र-सीमा तय करने के विचार पर बहस की है। लोग आम तौर पर इस बात से चिंतित रहते हैं कि सरकार लोगों के जीवन में बहुत हस्तक्षेप कर रही है।

कोई यह तर्क दे सकता है कि यह पैरेंट्स पर निर्भर है कि वे तय करें उनके बच्चों के लिए क्या अच्छा है। अगर उन्हें इंस्टाग्राम रील्स या एक्स के फीड से दिक्कत नहीं है, तो हम हस्तक्षेप करने वाले कौन होते हैं? क्या सोशल मीडिया के अच्छे पहलू नहीं हैं? उदाहरण के लिए, दुनिया में क्या हो रहा है, यह बच्चों को इस बारे में जानने में मदद कर सकता है। या यह उन्हें दोस्तों से जुड़ने में सहायक है। या इससे उन्हें पढ़ाई में मदद मिल सकती है।

ठीक है- सैद्धांतिक रूप से- इनमें से कई अच्छी चीजें सोशल मीडिया से मिल सकती हैं, लेकिन हकीकत ये है कि यह बच्चों के लिए बेहद हानिकारक भी है। सबसे अधिक समस्याएं मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित हैं – डिप्रेशन, एंग्जाइटी और एडिक्शन।

किशोरावस्था के शुरुआती दिन अपने दोस्तों से तुलना, उनकी राय के प्रभाव और अपनी पहचान को लेकर असुरक्षा का समय है (हम सभी ऐसे थे)। इसमें जोड़ दें सोशल मीडिया की अराजक दुनिया, जिसमें आपको तराशी हुई देहें, समृद्ध जीवन शैली, सफलता की कहानियां, ध्रुवीकृत विचार, सनसनीखेज दृश्य दिखाए जाते हैं।

ये तमाम तरह के कंटेंट आपके अटेंशन को होल्ड करने के लिए तैयार किए गए हैं। ऐसे में आपको क्या लगता है क्या होगा? क्या आपको इस बात को समझने के लिए किसी रिसर्च या स्टडी की आवश्यकता है कि बारह या चौदह साल के बच्चे के लिए यह सब खतरनाक है?

मानसिक स्वास्थ्य के अलावा नींद, आहार और पोषण से संबंधित समस्याएं भी हैं। सोशल मीडिया से किशोरों की शारीरिक गतिविधियां कम हो जाती है। याद करें पहले बच्चे हर शाम पार्क में खेलते थे, अब वे उतना नहीं खेलते हैं। वे पैरेंट्स के साथ अब ज्यादा बहस करने लगे हैं।

यदि आप हर दिन सोशल मीडिया पर घंटों बिता रहे हैं तो ध्यान केंद्रित करने की क्षमता और रचनात्मकता कम हो जाती हैं। इसके बावजूद, आज लाखों बच्चे और टीनएजर्स सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं।

मैं नहीं जानता पैरेंट्स अपने बच्चों पर कितना ध्यान रख रहे हैं। लेकिन रेस्तरां में फोन और टैबलेट देखने वाले बच्चों की भारी तादाद पर नजर डालें, तो ज्यादा उम्मीद नहीं जगती। सोशल मीडिया कंपनियां उम्र की जांच बेमन से करती हैं, जिसमें खुद यूजर ही अपनी उम्र को प्रमाणित करता है।

12 साल के बच्चे को यह कहने से कोई नहीं रोकता कि वह 18 साल का है, और तुरंत उसका अकाउंट बना दिया जाता है। उसके बाद हमें नहीं पता वो बच्चा क्या कर रहा होता है। और हम सभी जानते हैं कि जब पैरेंट्स टीनएजर्स पर रोक-टोक लगाते हैं तो क्या होता है।

यही कारण है कि सोशल मीडिया एज-रेगुलेशन के लिए सरकारी हस्तक्षेप आवश्यक हो गया है। सब जानते हैं कि सोशल मीडिया न केवल बच्चों, बल्कि बड़ों के लिए भी एडिक्टिव है। कोई कह सकता है कि वयस्कों को अपना जीवन अपनी इच्छानुसार जीने का अधिकार है। लेकिन सोशल मीडिया की सभी बुराइयों को जानने के बावजूद अगर हम अपने बच्चों को उसका इस्तेमाल करने देते हैं तो क्या हम युवा पीढ़ी के प्रति गैर जिम्मेदार नहीं साबित होंगे?

आदर्श तरीका तो यही होगा कि पैरेंट्स घर पर ही इसका ध्यान रखें, लेकिन रेगुलेटरी-मदद के बिना यह संभव नहीं है। एज-वेरिफिकेशन की उचित प्रणाली के अभाव में बच्चे हमेशा अपनी उम्र के बारे में झूठ बोलकर अकाउंट खोलने के तरीके ढूंढते रहेंगे।

बच्चों के मस्तिष्क को सोशल मीडिया की दुनिया में प्रवेश करने से पहले और अधिक विकसित होने दें। उनके विकास के लिए ये प्री-टीन और अर्ली-टीन वर्ष महत्वपूर्ण हैं, साथ ही यह वह समय भी है जब स्कूल में पढ़ाई पहले से और कठिन होती चली जाती है। ऐसे में उन्हें सोशल मीडिया से दूर रखना उन्हीं के हित में होगा।

उचित रेगुलेशन के बिना बच्चों को सोशल मीडिया से दूर रखना बेहद मुश्किल है। एक समाज के रूप में हमें तय करना होगा कि हम क्या चाहते हैं : हमारे बच्चे 12-15 साल की उम्र में रील देखें, या पढ़ाई करें, किताबें पढ़ें और खेल खेलें?

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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