क्या होता है Elder Daughter Syndrome ?
क्या होता है Elder Daughter Syndrome, बच्चों को ऐसे रखें इससे दूर
क्या आपने कभी Elder Daughter Syndrome के बारे में सुना है. भारत में अधिकतर घरों में पहला बच्चा अगर बेटी हो तो वह समय से पहले मैच्योर होने लगती है. घर की कई जिम्मेदारियों को निभाना बच्चे के नेचर में आ जाता है. चलिए आपको बताते हैं कि ये क्या होता है और इसके प्रभाव को कैसे कम किया जा सकता है.
भारत के अधिकतर घरों में पहला बच्चा एक उम्र में आकर अपने ऊपर काफी जिम्मेदारियां ले लेता है. अपने से छोटे भाई-बहनों की देखभाल, घर के कामों में मां की मदद जैसे कई काम घर का पहला बच्चा आगे से करने लगता है. वे छोटी उम्र में ही बड़ों जैसे काम करने लगते हैं क्योंकि वे खुद को इनके लिए मेंटली तैयार कर लेते हैं. वैसे इस तरह का भाव या नेचर लड़कियों में ज्यादा देखा जाता है. घर की बड़ी बेटी अपनी इच्छा से परिवार की कई जिम्मेदारियां उठा लेती है. इसे Elder Daughter Syndrome (ईडीएस) पुकारा जाता है और इससे बाहर आना काफी मुश्किल होता है. भारत में इस सिंड्रोम का प्रभाव कम उम्र की लड़कियों में ज्यादा देखा जाता है.
क्या आप जानते हैं कि ये Elder Daughter Syndrome क्या है. इससे प्रभावित इंसान में कौन-कौन से लक्षण नजर आते हैं. साथ ही इससे बचने के लिए हमें कौन-कौन से कदम उठाने चाहिए. यहां हम आपको एक्सपर्ट के जरिए बताने जा रहे हैं कि ये क्या होता है? साथ ही जानें आप अपनी बच्ची को इससे कैसे दूर रख सकते हैं.
क्या होता है Elder Daughter Syndrome?
मनोचिकित्सक डॉ. डॉक्टर अनामिका पापडीवाल का कहना है कि बच्चों में इस तरह के सिंड्रोम की असल वजह गलत पेरेंटिंग होती है. एक्सपर्ट कहती हैं कि बच्चों से ज्यादा इसके लिए पेरेंट्स जिम्मेदार होते हैं. बच्चों में उम्र के ज्यादा गैप की वजह से ऐसा होता है. पेरेंट्स बड़े बच्चे पर ज्यादा जिम्मेदारियां डाल देते हैं क्योंकि इससे उनके काई काम आसान हो जाते हैं. डॉ. अनामिका के मुताबिक अधिकतर पेरेंट्स इस कंडीशन में बड़ी बेटी या बेटे से अपेक्षाएं ज्यादा करने लगते हैं.
बता दें कि इस सिंड्रोम को पेरेंटीफिकेशन के नाम से भी जाना जाता है. लॉस एंजल्स की एक यूनिवर्सिटी में इस पर रिसर्च की गई. यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया की रिसर्च के मुताबिक ये अभी तक फिजिकल डायग्नोज में शामिल नहीं है. शोधकर्ताओं ने पाया कि घर की बड़ी बेटी समय से पहले मैच्योर हो जाती है. इसमें अपने छोटे भाई-बहनों की केयर करना सबसे कॉमन है.
इस सिंड्रोम के लक्षण
एक्सपर्ट अनामिका पापडीवाल के मुताबिक अगर जिम्मेदारियां देने के बजाय बच्चे पर प्रेशर बनाया जाए तो उसके व्यवहार में बदलाव नजर आने लगता है. वो गुस्से में रहने लगता है, स्कूल से शिकायते आना, हाथ-पैर पटकना, जिद्दी हो जाना, भाई-बहन से बात-बात पर झगड़ा करने जैसे लक्षण बताते हैं कि बच्चा सिंड्रोम का शिकार है.
यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया में साइकोलॉजी के असिस्टेंट प्रोफेसर जेनिफर होलब्रुक का कहना है कि हमनें घर के बड़े बेटे के मुकाबले बेटी में चिंता करने का भाव ज्यादा देखा. उनके मुताबिक इस सिंड्रोम के कुछ लक्षण नजर आते हैं जिसमें ज्यादा जिम्मेदार होना, पेरेंटल भाव, बचपन के अनुभव की कमी, बाउंड्री में रहना, गिल्ट, बाउंड्री को बनाने में दिक्कत का होना शामिल है.
ये रिश्तों के लिए सही है या गलत
कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं का कहना है कि इसके रिश्तों पर पॉजिटिव और नेगेटिव दोनों प्रभाव पड़ते हैं. खुद की देखभाल में कमी, छोटी उम्र में ही स्ट्रेस लेना, परिवार की चिंता में डूबे रहना जैसी आदतों के कारण बच्चा अपने बचपन से कहीं न कहीं दूर हो जाता है. वैसे छोटी उम्र से ही चिंता का भाव अगर मन में आ जाए तो ये परिवार को जोड़कर रखने का काम भी करता है.
इस तरह इससे आएं बाहर
डॉ. अनामिका कहती हैं कि पेरेंट्स को बच्चे की काउंसलिंग लेनी चाहिए. पेरेंट्स को सबसे पहले अपने अंदर बदलाव लाना चाहिए. बच्चों में भूल से भी भेदभाव नहीं करना चाहिए.
अगर किसी को ईडीएस की समस्या है वह इस सिंड्रोम से बाहर आने के लिए कुछ तरीके आजमा सकता है. सबसे पहले ऐसे लोगों को हेल्दी बाउंड्री बनानी चाहिए.
इसके अलावा अपने लिए समय निकालने जैसी एक्टिविटी को जरूर दोहराना चाहिए. ऐसा करके हम अपनी वैल्यू को समझ पाते हैं.
अपनी चिंता भी जरूरी है और इसके लिए सिंड्रोम में प्रभावित इंसान को मी टाइम निकालना चाहिए. इसमें वो काम करना चाहिए जो आपको अच्छा लगे. वैसे बुक पढ़ना एक बेस्ट ऑप्शन है.
घर की बड़ी बेटी को सारी जिम्मेदारियां देने के बजाय पेरेंट्स को कई काम बच्चों में बांट देने चाहिए. ऐसा करने से प्रभावित बच्चा बराबर व्यवहार महसूस करता है.